चौधराइन लीलावती को अपने पुरखों की पुरानी हवेली बहुत प्यारी थी,उन्होंने अपनी सारी जिन्दगी ग़रीबी में काटी, जीवन-भर संघर्ष किया ,दो वक्त का खाना नहीं मिला परिवार को लेकिन उन्होंने उस हवेली को अपने हाथों से बाहर जाने नहीं दिया था,ना जाने कितने खरीदार उसे मुँहमाँगे दामों पर खरीदने आएं फिर भी लीलावती झुकीं नहीं,वो सबसे ये कहा करती कि चाहे घर कितना भी पुराना क्यों न हो, किन्तु फिर भी ये हमारे पुरखों की शान है, आख़िर वे भी उसी में पले थे और ये हमारी धरोहर है जिसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, उन्होंने इसी हवेली में घुटनों के बल चलना सीखा होगा और उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम क्षण भी उसी में ब्यतीत किए होगें,इसलिए इस हवेली को मैं जीते जी कुछ नहीं होने दूँगी,वें अपने उस आशियाने पर जान छिड़कतीं थीं,
उनकी हवेली के सामने जो मैदान था,उस पर एक इमली का पेड़ लगा था,लीलावती इस मामले में बड़ी दरियादिल थीं,इसलिए उन्होंने उस पेड़ के आस पास की जमीन घिरवाई नहीं थीं,ऐसे ही खुली छोड़ रखी थी ,वहाँ पर गांँव के बच्चे आते, गिल्ली-डण्डा खेलते, उस इमली के पेड़ के तले कबड्डी खेलते,वहाँ चौधराइन का पुस्तैनी कुआँ भी था,जिसका पानी गंगाजल की तरह मीठा था,सारे गाँव में एक ये ही ऐसा कुआँ था जिसका पानी इतना मीठा था,दाल पकाने के लिए पूरा गाँव इसी कुएँ का पानी इस्तेमाल करता था,इसलिए शाम-सबेरे उस कुएँ पर पनिहारिनों का जमघट लगा रहता था,घूँघट काढ़े बहुएँ और बेटियाँ आपस में हँसी-ठिठोली करती,पायल और बिछुएँ छनकाती उस कुएँ पर पानी भरने जातीं थीं,
और तो और सावन में उसी इमली के पेड़ पर झूले डलते सभी पास-पड़ोस की औरतें उन झूलों पर झूलते हुए सावनी और कजरी गातीं,साथ में चौधराइन भी ढ़ोलक की थाप पर दो चार बढ़िया बढ़िया लोकगीत सबको सुना डालती,वो जब जवान थी तो चौधरी जी की खुशी के लिए गाती थी और अब उन्हें याद करके गाती है,इतने साल बीत गए उन्हें गए हुए लेकिन चौधराइन ने अभी भी उनकी यादों को दिल के किसी कोने में सँजोकर रखा है,सोलहवांँ पार ही किया था कि रामरतन चौधरी के संग ब्याहकर इस हवेली में आ गई थी,लीलावती के रुप को देखकर सास फूली ना समाई और किलो भर मिर्चों से उसकी नज़र उतारी,जब तक लीला की सास जिन्दा थी तो उसने लीला को कोई कमी ना होने दी,बस यही कहा करती थी कि......
बहुरिया!ये इमली का पेड़ मैनें लगाया था,जब तक ये तेरे घर के सामने है तुझे कभी भी किसी चींज की कमी ना होगी,भगवान करें तेरी झोली हमेशा खुशियों से भरी रहें,
जब तक लीलावती की सास रही तो वो हर साल इच्छानौवीं को इस पेड़ तले भण्डारा किया करती थी,लोंग आँवले के पेड़ तले इच्छानौवीं का त्यौहार मनाते हैं लेकिन वो इमली के पेड़ तले मनाती थी,जब उसे पता चला कि लीला उम्मीद से है तो उसी पेड़ की इमली तुड़वाकर उसने लीला के मुँह में डलवाई थी और भगवान की दया से लीला ने तीन स्वस्थ बेटे और दो स्वस्थ बेटियों को जन्म दिया,उसकी सास को उस इमली के पेड़ पर अटूट आस्था थी,गाँव में या घर परिवार में कुछ भी अनहोनी हो जाए या कोई अप्रिय घटना होने वाली हो तो लीला की सास उस पेड़ को जल चढ़ाकर प्रार्थना किया करती थी और सच में कई बार ऐसा हुआ था कि अनहोनी होने से पहले ही टल गई......
धीरें धीरें सास की ये सब बातें चौधराइन लीलावती ने भी अपने जीवन में ढ़ाल लीं,उसे भी उस पेड़ के साथ अटूट श्रद्धा हो गई,जब कभी वो अपने जीवन में उदास या हताश हो जाती तो उसकी छाँव तले जाकर जीभर के रो लेती थी,जैसे कि कोई अपनी माँ के गले लिपटकर रो रहा हो,उसके पास बैठकर अपने दुखड़े रोती और सच में फिर उसके भीतर एक नई ऊर्जा और उमंग का प्रवाह होने लगता वो खुद को तरोताज़ा महसूस करने लगती,
उसे याद है जब उसे इतनी कम उम्र में चौधरी रामरतन छोड़कर गए थे तो उसने सोचा वो कैसे पाँच पाँच बच्चों को पालेगी,कैसे जिएगी उनके वगैर,तब वो उस इमली के पेड़ के पास जाकर बहुत रोई,लेकिन जब वो अपना रोना खतम करके उस पेड़ के पास से उठी तो उसे तब तक जीने का रास्ता मिल चुका था,वो अब खुद को बेसहारा महसूस नहीं कर रही थी,लीलावती कहती है कि जब तक वो पेड़ है तब तक मैं भी जिन्दा हूँ,जैसे किसी जादूगर के प्राण किसी पंक्षी में बसते हैं उसी तरह शायद मेरे प्राण उस पेड़ में बसते हैं,
चौधरी रामरतन जी के स्वर्ग सिधारने के बाद लीलावती कभी भीतर नहीं सोई,वो घर के आँगन में ही सोती थी,सर्दियों में उसे चाहें दो रजाई ओढ़कर सोना पडे़ लेकिन वो आँगन में ही सोती थी,क्योंकि उसे वहाँ से इमली का पेड़ दिखता है,गर्मियों की चांदनी रातों में जब तेज बयार चलती है तो पेड़ की डालियांँ यूँ लगतीं हैं जैसे कि पेड़ भी हवा लगने से खुशी के मारें नाच रहा हो लेकिन अमावस की काली रात में वहीं डालियाँ किसी भूत के समान लगतीं हैं, कभी-कभी चौधराइन की रात में नींद खुल-खुल जाती जब वो ऐसा कोई सपना देखती कि वो सुबह उठी और पेड़ वहाँ नहीं है क्योंकि अब उसके बेटे और बहुएं उस पेड़ को कटवाने की बात करते हैं,वो चाहते हैं कि वो मैदान खाली हो जाएं तो उस जमीन को बेंचकर वो बहुत सारा रूपया पा सकते हैं लेकिन चौधराइन है कि तैयार ही नहीं है,
वो कहती है कि पुरखों ने इसे छाया के लिए लगाया था,कुआंँ इसलिए खुदवाया था कि मुसाफिर इस कुएँ का पानी पीकर इसकी छाया में कुछ देर सुस्ता सकें और गांँव के लोगों से भी यह छिपा नहीं था कि चौधराइन मर जाएगी लेकिन इमली का पेड़ कभी ना कटने देगी, एक छोटा-सा बीज लाकर उनकी सास ने उस जगह लगाया था, वही अब इतना फल-फूल कर ख़ूब फैल गया है, पेड की डालियाँ अपने आप इतनी फैल गई हैं कि अब उस ज़मीन पर दिन-रात अंधेरा-सा छाया रहता है,उस पेड़ की डालियों में अनेक पंछी रहते हैं, जब जानते हैं कि आखिर पंक्षी किसके हुए उनके ऊपर तो एक ही कहावत जँचती है कि ‘चरसी यार किसके, दम लगाए खिसके, मतलब आज यहांँ है,कल वहाँ,सिर्फ़ मतलब के यार हैं,
लेकिन चौधराइन को कभी वह पेड़ नहीं अखरा,सदा उसकी हरियाली का वैभव देखकर उसकी आंँखें ठंडी होती रही हैं और चौधराइन सदा से देखती आई है कि कच्ची पक्की इमलियों के गिरने पर बच्चों का जमघट आकर इकट्ठा हो जाता,सब ओर से बच्चे शोर मचाते हुए कहते हैं,मुझे भी चाहिए....मुझे भी चाहिए....लेकिन अब चौधराइन की उम्मीदें टूटने लगी थी,उसकी हिम्मत जवाब देने लगी थी जब से उसके बेटों ने वो जमीन बेचने की बात कही थी,अगर जमीन बिकी तो वो पेड़ भी कटेगा और अगर पेड़ कटा तो चौधराइन ये कभी भी अपने जीते जी होते नहीं देख सकती थीं.....
अब चौधराइन का बुढ़ापा आ गया था,तीनों बेटों ने अपना अलग अलग काम शुरु कर दिया था, बड़ा और मँझला बेटा दोनों ही अपने परिवार के साथ शहर जाकर बस गए थे,लेकिन छोटा बेटा अपनी माँ को छोड़कर बाहर नहीं गया,वो गाँव के स्कूल में ही पढ़ाता था,लेकिन तनख्वाह कम होने की वज़ह से उसे अपने परिवार का खर्चा चलाना मुश्किल हो रहा था,उसकी बेटी भी सयानी हो रही थी जिसकी शादी की चिन्ता उसे अब सताने लगी थी,वो सोचता था कैसें इतनी सी तनख्वाह में बेटी का दान-दहेज जुटा पाएगा,वो भी चाहता था कि इमली के पेड़ वाली जमीन बिक जाएं और सभी भाई अपना अपना हिस्सा आपस में बाँट लें,लेकिन चौधराइन है कि मानती ही ना थी,
फिर एक दिन चौधराइन लीलावती का बड़ा बेटा शम्भूनाथ चौधरी शहर के एक बहुत बड़े बिल्डर्स को चौधराइन के पास लाकर बोला.....
अम्मा!ये शहर के बहुत बड़े बिल्डर्स हैं,
हाँ! तो बिठा इन्हें,इनके चाय नाश्ते का इन्तजाम कर और सुन रोटी खिलाएं बिना ना जाने देना,इस घर से आज तक कोई भूखा ना लौटा,ये इस घर की परम्परा है,चौधराइन लीलावती बोली।।
माँ के कहने पर शम्भूनाथ ने बिल्डर्स की खातिरदारी की और जब बिल्डर्स के जाने का वक्त आया तो वो अपनी माँ के पास जाकर बोला.....
अम्मा!एक बात कहनी थी...
तो बोल!के बात है?चुपचाप क्यों खड़ा है?चौधराइन बोली।।
वो अम्मा ये साहब है ना! हमारी उस इमली वाले पेड़ की जमीन के मुँहमाँगे दाम देने को तैयार हैं,अगर तू कहें तो हाँ बोल दूँ,शम्भूनाथ बोला।।
तूने किस से पूछकर ये फैसला किया,होश तो ठिकाने हैं तेरे,चौधराइन दहाड़ी।।
अम्मा!तू समझें करें,मुँहमाँगा रूपया देने को राज़ी हैं साहब,शम्भूनाथ बोला।।
म्हारे को रूपया ना चाहिए,लीलावती बोली।।
अम्मा!हम सबकी सालों की गरीबी मिट जाएगी,हम जी खोलकर जिन्दगी जी सकेगें,किसी चींज के लिए मोहताज ना रहना पड़ेगा,शम्भूनाथ बोला।।
ना!मैं ये कभी ना करने की,म्हारे मरने के बाद जो करना है कर लीजो,लीलावती बोली।।
तो तू ना मानेगी अम्मा!शम्मूनाथ बोला।।
कतई नहीं,लीलावती बोली।।
फिर क्या था,शम्भूनाथ उस दिन अपना सा मुँह लेकर वापस शहर लौट गया और उस दिन के बाद गाँव कभी ना लौटा,तीज-त्यौहार पर भी नहीं,इधर लीलावती मन ही मन कुढ़ती रहीं बेटे के लिए,लोंग कहते कि ऐसा भी क्या मोंह इस इमली के पेड़ के साथ जो सगे बेटे को भी छोड़ दिया.....
लीलावती सोचती तो बहुत कुछ थी लेकिन उस पेड़ के आगें वो सब कुछ छोड़ने को राजी थी,अब गाँव में वैसे भी उसके साथ के ज्यादा लोंग ना रह गए थे,कोई कोई तो अपने बच्चों के साथ शहर जाकर बस गए थे और किसी किसी को भगवान का बुलावा आ गया था,जवानों का अभी भी गाँव से शहर के लिए पलायन जारी था,नए बच्चे खेती बाड़ी करना नहीं चाहते थे लेकिन जीने के लिए रुपया भी चाहिए इसलिए धीरे धीरे सबने शहर का रूख़ कर लिया था,जो बुजुर्ग गाँव में बचें थे वो भी धीरें धीरें अपनी जमीनों को अच्छे दामों में बेचकर करोड़पति बन गए थे......
इस पर लीलावती कहती.....
छीः..छीः....कोई ईमान-धरम नहीं बचा है यहाँ किसी का ,अपनी धरती जैसी माँ को बेचकर रुपया तिजोरियों में भरकर क्या मिलेगा?जिसने हमें पाला,जिस धरती पर उगा अन्न खाकर हम बड़े हुए उस से ही दगाबाज़ी,
देखादेखी गाँव में भी शहर की तरह अब लोगों के पक्के तिमंजिला मकान बन गए थे,मकान तो पक्के बन गए थे लेकिन गाँव की रौनक दिनबदिन घटती जा रही थी,ना अब पीपल के पेड़ के नीचें चौपाल लगती और ना कोई बुजुर्ग अब हुक्का पीता हुआ मिलता,ना ही बुजुर्गों का किसी पेड़ के नीचें जमघट लगता, अब घर घर टीवी हो गए थे इसलिए बच्चे अब इमली के पेड़ के नीचें खेलने भी ना आतें,अब घर घर खुद की बोरिंग हो गई थी इसलिए इमली के पेड़ वाला कुआँ भी खाली पड़ा रहता,अब वहाँ पनिहारिनों का जमघट ना लगता,लीला ये सब देखती तो उसका जी भर आता,
लेकिन लीला तब भी हार ना मानीं,सावन आया और उसने दो तीन झूलें उसी इमली के पेड़ पर डलवाएं,आस-पड़ोस की बहु बेटियों को झूला झूलने का न्यौता दिया,खुद भी ढो़लक लेकर कजरी और सावनी गाने बैठ गई,चारों ओर से और भी औरतें लीलावती का गाना सुनने बैठ गईं,सभी बहुएँ और बेटियाँ बारी बारी से झूले में झूला झूलने के लिए बैठतीं और खूब हँसी ठिठोली करते हुए खिलखिला पड़तीं,लेकिन तभी कुछ ऐसा घटित हुआ जिसकी किसी को आशा ना थीं,
एकाएक इमली के पेड़ के नीचें कुछ ऐसा हुआ,लीलावती के सबसे छोटे बेटे रामकिशन की बेटी सुमन जो कि अब सयानी हो चुकी थी,अब उसके विवाह के विषय में सोचा जा रहा था तो वो झूले पर चढ़ी,झूला ऊँचा था और वो झूला झूलने में मस्त थी,तभी उसके हाथ की रस्सी की पकड़ छूट गई और वो धम्म से नीचें आकर आ गिरी और उसका सिर एक पत्थर से जा टकराया,एकाएक शोर मच उठा,सब ढ़ोलक-मंजीरें छोड़कर उस ओर भागे, एकाएक खुशियों के क्षण मातम में बदल गए,शोर बढ़ता ही जा रहा था,किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या हुआ?
सभी उस ओर भागेँ जहाँ सुमन गिरी पड़ी थी,उसके सिर से खून की धारा बह रही थी और उसकी माँ पानकुँवर भी अपनी जवान बेटी सुमन की ओर भागी और वहाँ का वीभत्स दृश्य देखकर उसकी आत्मा काँप उठी,उसने देखा कि उसकी बेटी के सिर से खून बह रहा है और वो धरती पर अचेत पड़ी है ,लीलावती की छोटी बहु पानकुँवर ने जैसे ही अपनी बेटी की ये अवस्था देखी तो वो चीख पड़ी और उसका सिर अपनी गोद में रखकर विलाप करने लगी,लीलावती वहाँ पहुँची और उसने सबसे कहा.....
हटो भीड़ हटाओ,लड़की को साँस तो आने दो,फिर उसने सबसे पहले लड़की की नाड़ी जाँची जो अभी भी चल रही थी,लीलावती ने कुछ जवान लड़को को बुलवाकर फौरन लड़की को ट्रैक्टर की ट्राली में चढ़वाया और कुछ और लोगों के साथ शहर के अस्पताल रवाना हो गई, लेकिन शहर पहुँचते पहुँचते लड़की के प्राण जा चुके थे,अस्पताल पहुँचकर डाँक्टर ने जवाब दे दिया,
लीलावती मृत पोती के साथ गाँव लौटी और अब वो किसी से नजरें मिला पाने के काबिल ना रही थी,उसे स्वयं से शर्मिंदगी महसूस हो रही थी कि ना वो इमली के पेड़ पर झूला डलवाती और ना लड़की झूला झूलती और ना ये खतरनाक हादसा होता,कुछ लोंग बच्ची को उठाकर भीतर लाए,लड़की को उठाने वाले लोगों के चेहरें सहमें हुए थे,डरते-डरते उन्होंने उसे भीतर रख दिया,लीलावती के छोटे बेटे रामकिशन ने अपनी मृत बेटी को देखा तो कुछ नहीं बोला बस उसकी लाश के पास दहाड़े मार कर रो पड़ा....
उसका रोना देखकर सबने सिर झुका लिया,इस कोलाहल को सुनकर लड़की की माँ पानकुँवर बेटी के पास गई और उससे चिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी,
रामकिशन किंकर्तव्यविमूढ़ सा वहीं खड़ा रहा,वो उस घड़ी कुछ भी समझने के काबिल ना रह गया था और फिर धीरे-धीरे अड़ोस-पड़ोस के अनेक लोंग भी आ-आकर इकट्ठे होने लगे,पानकुँवर का करुण क्रंदन स्वर सबके हृदय को हिला देता है, ऐसा कौन-सा पाप किया था उसने कि उसकी जवान बेटी आज उसकी आँखों के सामने उठी जा रही थी,क्या क्या सपने सँजोए थे उसने उसके ब्याह के लिए लेकिन आज वो सपने उसकी बेटी के साथ ही हमेशा के लिए अग्नि में समर्पित हो जाऐगें,
रामकिशन इतना बेसुध था कि उसकी आँखों में कोई भी तरलता शेष ना बची थी,लेकिन वो बस इमली के पेड़ को घूरे जा रहा था,उसे आज वो इमली का पेड़ काल के समान प्रतीत हो रहा था वो उसे ऐसे देख रहा था जैसे कि वो अपने किसी विराट शत्रु की ओर देख रहा हो, वो देर तक उसे घूरता रहा,उसने मन में सोचा ,यही है वह पुरखों का दैत्य, जिसने मेरी संतान को ही खा लिया, विक्षोभ से उसका गला रुंँध गया, उसने एक बार ज़ोर से अपनी मुट्ठियाँ बंद कर लीं और उसने देखा कि पानकुँवर का हृदय टुकड़े-टुकड़े होकर आंसुओं की राह बहा जा रहा था, उसने बेटी के सिर को अपनी गोद में रख लिया था और तरह-तरह के विलाप कर रही थी,रुदन की वह भयानक कठोरता रामकिशन के मन में उतर गई,उसने बहुत देर तक कुछ सोचा और बोला......
अम्मा!ये इमली का पेड़ मेरी बेटी को खा गया,अब तो तुझे ये जमीन बेचनी ही होगी ,
रामकिशन के इस कथन पर लीलावती ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चुपचाप अपने कमरें में चली गई....
जब लीलावती भीतर चली गई तो रामकिशन ने अपनी पत्नी पानकुँवर से धीरे से कहा,
मत रो!‘रोने से क्या अब वह लौट आएगी?
लेकिन पानकुँवर ना मानी वो ऐसे ही विलाप करती रही,आज उसने अपने घूंघट को नीचें तक नहीं सरकाया था,वो बस सबके सामने ऐसे ही मुँह खोलकर रोती रही क्योंकि इस समय वह बहू नहीं माँ थी,लोगों ने लड़की की अर्थी सजा दी और ले जाने लगें तो पानकुँवर चिल्ला उठी.....
मत ले जाओ मेरी फूल सी बच्ची को,मैं इसके वगैर कैसे जिऊँगीं,
ये सुनकर रामकिशन का हृदय भीतर ही भीतर कांँप उठा और उसकी आंँखों से आंँसू की दो-चार बूंदें धीरे से गालों पर बहती हुई भूमि पर टपककर उनके मन की अथाह वेदना को कह गईं.....
रामकिशन ने दुखी मन से अपनी बेटी का अन्तिम संस्कार कर दिया और घर लौट आया,इस दुखद घटना को सुनकर उसके दोनों बड़े भाई भी शहर से गाँव आ पहुँचें थे और तीनों भाइयों ने ये फैसला किया कि अब वो इमली के पेड़ वाली जमीन बिककर ही रहेगी और साथ में पेड़ भी कटेगा,लीलावती के बड़े बेटे को अब मौका मिल गया था अपना पक्ष रखने के लिए इसलिए वो लीलावती से बोला.....
मैं ने तो पहले ही बोला था कि जमीन बेंच दो लेकिन अम्मा उस समय तू ही ना मानी थी,अब जब वो पेड़ अपने घर की बच्ची को लील गया,तभी सबकी आँखें खुली,अब तो वो जमीन बिकनी ही चाहिए और सबको अपना अपना हिस्सा भी मिलना चाहिए,जीवन भर हमने गरीबी में काटें हैं लेकिन कम से कम अब हमारे बच्चे तो सुख चैन से रहें......
लीलावती का मँझला बेटा प्रभुदयाल भी बोला......
हाँ!बड़े भइया!अब तो वक्त आ गया है कि ये मनहूस पेड़ यहाँ से कट जाएं,
अब किसी की रजामंदी हो या ना हो मैं तो अब इस जमीन को बेचकर ही दम लूँगा,ये इमली का पेड़ मेरी बेटी का हत्यारा है,लीलावती का छोटा बेटा रामकिशन बोला।।
लीलावती ने उन सबकी बातों को सुनकर कोई भी बहस नहीं की बस इतना ही बोली.....
तो ढूढ़ लो कोई ग्राहक।।
इतना कहकर वो अपने बिस्तर पर आकर लेट गई और बक्से में रखी अपने पति की तस्वीर को निकालकर सीने से लगाकर रो पड़ी और बोली.....
ए जी!तुम मुझे अकेली छोड़कर क्यों चले गए,अब जिया नहीं जाता,तुम जानते हो ना मेरा उस पेड़ से कितना गहरा नाता है,पता है जब तुम गए थे ना तो मैं उस पेड़ के पास ही गई थी अपना दुख बाँटने,उसने मुझे हिम्मत दी तभी तो मैं इन बच्चों को पाल पाईं,वो और मैं अलग अलग नहीं हैं,जिस दिन वो पेड़ कटा तो शायद मैं भी.....
और फिर लीलावती अपने पति की तस्वीर को सीने से लगाएं बहुत देर तक यूँ ही रोती रही......
यूँ ही कुछ दिन बीते और लीलावती के बेटों ने उस जमीन का सौदा कर दिया,जमीन के मुँहमाँगे दाम मिले,जमीन के सौदे से मिलने वाले रूपयों के चार हिस्से हुए,तीनों बेटों का और एक हिस्सा लीलावती का,लीलावती ने अपने लिए कुछ नहीं रखा उसने अपना हिस्सा अपने दोनों बेटियों में बराबर बाँट दिया,देखते ही देखते उस जमीन के खरीदार ने खुदाई शुरु करवा दी,बड़ी बड़ी मशीनें वहाँ आ पहुँची और जल्द ही काम शुरु हो गया,ये सब तमाशा लीलावती अपने कमरें की खिड़की से देखती रहती,रात को अब वो आँगन में ना लेटती थी,उसे लगता था कि वो बहुत बड़ी गुनाहगार है जो उसने उस जमीन को बेचने के लिए हामी भरी,इसलिए वो उस पेड़ से बहुत शर्मिन्दा थी और उससे नजरें नहीं मिला पाती थी........
और फिर वो दिन भी आ पहुँचा जब इमली के पेड़ को काटने की बारी आईं,बहुत बड़ी मशीन आई थी उसे काटने के लिए जैसे ही मशीन ने पेड़ को काटना शुरू किया तो पेड़ के टुकड़े होने के साथ साथ इधर लीलावती के कलेजे के भी टुकड़े होने लगें,चौधराइन अपने बिस्तर पर पड़े पड़े आँसू बहाती रही,पेड़ इतना बड़ा था कि एक दिन में ना कट पाया आधे से ज्यादा पेड़ कटने के बाद शाम हो चुकी थी इसलिए पेड़ की कटाई बंद हो गई,उस रात लीलावती ने खाना ना खाया और घरवालों से बोली....
वो और मैं अलग अलग नहीं है उसका और मेरा एक गहरा रिश्ता है जब वो ही नहीं रहा तो मैं जिंदा रहकर क्या करूँगीं? और सबके सो जाने के बाद आधी रात के वक्त वो उस पेड़ के पास पहुँची और उससे लिपट लिपटकर खूब रोई और सुबह लोगों ने देखा कि चौधराइन उस पेड़ के पास अचेत पड़ी है और उस पेड़ के साथ साथ अपने प्राण भी त्याग चुकी थी.....
समाप्त....
सरोज वर्मा.....