शाह की कंजरी--(अमृता प्रीतम की कहानी) Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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शाह की कंजरी--(अमृता प्रीतम की कहानी)

शाह की कंजरी--(अमृता प्रीतम की कहानी)

उसे अब नीलम कोई नहीं कहता था. सब शाह की कंजरी कहते थे.

नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी. और वहां ही एक रियासती सरदार के हाथों पूरे पांच हज़ार में उसकी नथ उतरी थी. और वहां ही उसके हुस्न ने आग जला कर सारा शहर झुलसा दिया था. पर फिर वह एक दिन हीरा मंडी का रास्ता चौबारा छोड़ कर शहर के सबसे बड़े होटल फ़्लैटी में आ गई थी. वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातों-रात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुंह से सुनाई देता था,‘शाह की कंजरी.’

ग़ज़ब का गाती थी. कोई गाने वाली उसकी तरह मिर्जे की सद नहीं लगा सकती थी. इसलिए चाहे लोग उसका नाम भूल गए थे पर उसकी आवाज़ नहीं भूल सके. शहर में जिसके घर भी तवे वाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे ज़रूर ख़रीदता था. पर सब घरों में तवे की फ़रमायिश के वक़्त हर कोई यह ज़रूर कहता था ‘आज शाह की कंजरी वाला तवा ज़रूर सुनना है.’

लुकी छिपी बात नहीं थी. शाह के घर वालों को भी पता था. सिर्फ़ पता ही नहीं था, उनके लिए बात भी पुरानी हो चुकी थी. शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने ज़हर खाके मरने की धमकी दी थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार पहना कर उससे कहा था,‘शाहनिए! वह तेरे घर की बरकत है. मेरी आंख जोहरी की आंख है, तूने सुना हुआ नहीं है कि नीलम ऐसी चीज़ होता है, जो लाखों को खाक कर देता है और खाक को लाख बनाता है. जिसे उलटा पड़ जाए, उसके लाख के खाक बना देता है. और जिसे सीधा पड़ जाए उसे खाक से लाख बना देता है. वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है. जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूं तो सोना हो जाती है.’

‘पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,’ शाहनी ने छाती की साल सहकर उसी तरफ़ से दलील दी थी, जिस तरफ़ से शाह ने बत चलायी थी. ‘मैं तो बल्कि डरता हूं कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग दिखाए, और जो वह हाथों से निकल गई, तो लाख से खाक बन जाना है.’ शाह ने फिर अपनी दलील दी थी.

और शाहनी के पास और दलील नहीं रह गई थी. सिर्फ़ वक़्त के पास रह गई थी, और वक़्त चुप था, कई बरसों से चुप था. शाह सचमुच जितने रुपए नीलम पर बहाता, उससे कई गुणा ज़्यादा पता नहीं कहां-कहां से बह कर उसके घर आ जाते थे. पहले उसकी छोटी-सी दुकान शहर के छोटे-से बाज़ार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाज़ार में, लोहे के जंगले वाली, सबसे बड़ी दुकान उसकी थी. घर की जगह पूरा महल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते-पीते किरायेदार थे. और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन के लिए भी अकेला नहीं छोड़ती थी.

बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था,‘उसे चाहे होटल में रखो और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो, उसे मेरे घर ना लाना. मैं उसके माथे नहीं लगूंगी.’

और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मुंह नहीं देखा था. जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ता था, और अब वह ब्याहने लायक हो गया था, पर शाहनी ने ना उसके गाने वाले तवे घर में आने दिए, और ना घर में किसी को उसका नाम लेने दिया था.

वैसे उसके बेटे ने दुकान दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे, और जने जने से सुन रखा था,‘शाह की कंजरी.’

बड़े लड़के का ब्याह था. घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे, कोई सूटों पर सलमा काढ़ रहा था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुप्पटे पर सितारे जड़ रहा था. शाहनी के हाथ भरे हुए थे-रुपयों की थैली निकालती, खोलती, फिर और थैली भरने के लिए तहखाने में चली जाती.

शाह के यार दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के के ब्याह पर कंजरी ज़रूर गवानी है. वैसे बात उन्होंने ने बड़े तरीक़े से कही थी ताकी शाह कभी बल ना खा जाए,‘वैसे तो शाहजी को बहुतेरी गाने नाचनेवाली हैं, जिसे मरजी हो बुलाओ. पर यहां मल्लिकाए तर्रन्नुम ज़रूर आए, चाहे मिरज़े की एक ही ’सद’ लगा जाए.’

फ़्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था. वहां ज़्यादातर अंग्रेज़ लोग ही आते और ठहरते थे. उसमें अकेले-अकेले कमरे भी थे, पर बड़े-बड़े तीन कमरों के सेट भी. ऐसे ही एक सेट में नीलम रहती थी. और शाह ने सोचा-दोस्तों यारों का दिल ख़ुश करने के लिए वह एक दिन नीलम के यहां एक रात की महफ़िल रख लेगा.

‘यह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई,’ एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े,‘नहीं, शाह जी! वह तो सिर्फ़ तुम्हारा ही हक बनता है. पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है? उस जगह का नाम भी नहीं लिया. वह जगह तुम्हारी अमानत है. हमें तो भतीजे के ब्याह की ख़ुशी मनानी है, उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर.’

बात शाह के मन भा गई. इसलिए कि वह दोस्तों यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था (चाहे उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी ग़ैरहाजरी में कोई कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था). -दूसरे इसलिए भी कि वह चाहता था, नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क-भड़क देख जाए. पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी ना भर सका.

दोस्तों यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे,‘भाभी तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवाओगी? हम तो सारी ख़ुशियां मनाएंगे. शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफ़िल नीलम की तरफ़ हो जाए. बात तो ठीक है पर हज़ारों उजड़ जाएंगे. आख़िर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को थोड़ा खिलाया है? तुम सयानी बनो, उसे गाने बजाने के लिए एक दिन यहां बुला लो. लड़के के ब्याह की ख़ुशी भी हो जाएगी और रुपया उजड़ने से बच जाएगा.’

शाहनी पहले तो भरी भरायी बोली,‘मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती,’ पर जब दूसरों ने बड़े धीरज से कहा,‘यहां तो भाभी तुम्हारा राज है, वह बांदी बन कर आएगी, तुम्हारे हुक्म में बंधी हुई, तुम्हारे बेटे की ख़ुशी मनाने के लिए. हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की? जैसे कमीन कुमने आए, डोम मरासी, तैसी वह.’

बात शाहनी के मन भा गई. वैसे भी कभी सोते बैठते उसे ख़्याल आता था-एक बार देखूं तो सही कैसी है?

उसने उसे कभी देखा नहीं था पर कल्पना ज़रूर थी-चाहे डर कर, सहम कर, चहे एक नफ़रत से. और शहर में से गुज़रते हुए, अगर किसी कंजरी को तांगे में बैठते देखती तो ना सोचते हुए ही सोच जाती-क्या पता, वही हो?

‘चलो एक बार मैं भी देख लूं,’ वह मन में घुल सी गई,‘ जो उसको मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया, अब और उसे क्या कर लेना है! एक बार चन्दरा को देख तो लूं.’

शाहनी ने हामी भर दी, पर एक शर्त रखी,‘यहां ना शराब उड़ेगी, ना कबाब. भले घरों में जिस तरह गीत गाए जाते हैं, उसी तरह गीत करवाऊंगी. तुम मर्द मानस भी बैठ जाना. वह आए और सीधी तरह गा कर चली जाए. मैं वही चार बतासे उसकी झोली में भी डाल दूंगी जो ओर लड़के लड़कियों को दूंगी, जो बन्ने, सहरे गाएंगी.’

‘यही तो भाभी हम कहते हैं.’ शाह के दोस्तों नें फूंक दी,‘तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है, नहीं तो क्या ख़बर क्या हो गुज़रना था.’

वह आई. शाहनी ने ख़ुद अपनी बग्गी भेजी थी. घर मेहमानों से भरा हुआ था. बड़े कमरे में सफ़ेद चादरें बिछा कर, बीच में ढोलक रखी हुई थी. घर की औरतों नें बन्ने सेहरे गाने शुरू कर रखे थे....

बग्गी दरवाज़े पर आ रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़कर खिड़की की एक तरफ़ चली गईं और कुछ सीढ़ियों की तरफ़....

‘अरी, बदसगुनी क्यों करती हो, सहरा बीच में ही छोड़ दिया.’ शाहनी ने डांट सी दी. पर उसकी आवाज़ ख़ुद ही धीमी-सी लगी. जैसे उसके दिल पर एक धमक सी हुई हो...

वह सीढ़ियां चढ़ कर दरवाज़े तक आ गई थी. शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला संवारा, जैसे सामने देखने के लिए वह साड़ी के शगुन वाले रंग का सहारा ले रही हो.

सामने उसने हरे रंग का बांकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज थी और सिर से पैर तक ढलकी हुई हरे रेशम की चुनरी. एक झिलमिल सी हुई. शाहनी को सिर्फ़ एक पल यही लगा-जैसे हरा रंग सारे दरवाजे़ में फैल गया था.

फिर हरे कांच की चूड़ियों की छन छन हुई, तो शाहनी ने देखा एक गोरा-गोरा हाथ एक झुके हुए माथे को छू कर आदाब बजा रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई सी आवाज़,‘बहुत बहुत मुबारिक, शाहनी! बहुत बहुत मुबारिक...’

वह बड़ी नाज़ुक सी, पतली सी थी. हाथ लगते ही दोहरी होती थी. शाहनी ने उसे गाव-तकिए के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को लगा कि उसकी मांसल बांह बड़ी ही बेडौल लग रही थी.

कमरे के एक कोने में शाह भी था. दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी. उस नाज़नीन ने उस कोने की तरफ़ देख कर भी एक बार सलाम किया, और फिर परे गाव-तकिए के सहारे ठुमककर बैठ गई. बैठते वक़्त कांच की चूड़िया फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बांहों को देखा, हरे कांच की और फिर स्वाभाविक ही अपनी बांह में पड़े उए सोने के चूड़े को देखने लगी.

कमरे में एक चकाचौध सी छा गई थी. हर एक की आंखें जैसे एक ही तरफ़ उलट गई थीं, शाहनी की अपनी आंखें भी, पर उसे अपनी आंखों को छोड़ कर सबकी आंखों पर एक ग़ुस्सा-सा आ गया...

वह फिर एक बार कहना चाहती थी-अरी बदशुगनी क्यों करती हो? सेहरे गाओ ना ...पर उसकी आवाज़ गले में घुटती सी गई थी. शायद औरों की आवाज़ भी गले में घुट सी गई थी. कमरे में एक ख़ामोशी छा गई थी. वह अधबीच रखी हुई ढोलक की तरफ़ देखने लगी, और उसका जी किया कि वह बड़ी ज़ोर से ढोलक बजाए.

ख़ामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिए ख़ामोशी छायी थी. कहने लगी,‘मैं तो सबसे पहले घोड़ी गाऊंगी, लड़के का ’सगन’ करूंगी, क्यों शाहनी?’ और शाहनी की तरफ़ ताकती, हंसती हुई घोड़ी गाने लगी,‘निक्की निक्की बुंदी निकिया मींह वे वरे, तेरी मां वे सुहागिन तेरे सगन करे....’

शाहनी को अचानक तसल्ली सी हुई-शायद इसलिए कि गीत के बीच की मां वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ़ उसका मर्द था-तभी तो मां सुहागिन थी....

शाहनी हंसते से मुंह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गई-जो उस वक़्त उसके बेटे के सगन कर रही थी...

घोड़ी ख़त्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आई. फिर कुछ स्वाभाविक-सा हो गया. औरतों की तरफ़ से फरमाईश की गई,‘डोलकी रोड़ेवाला गीत.’ मर्दों की तरफ़ से फरमाइश की गई ‘मिरज़े दियां सद्दां.’

गाने वाली ने मर्दों की फ़रमाइश सुनी अनसुनी कर दी, और ढोलकी को अपनी तरफ़ खींच कर उसने ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया. शाहनी कुछ रौ में आ गई-शायद इसलिए कि गाने वाली मर्दों की फ़रमाइश पूरी करने के बजाए औरतों की फ़रमाइश पूरी करने लगी थी...

मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था. वह एक-दूसरे से कुछ पूछ रहीं थीं, और कई उनके कान के पास कह रहीं थीं,‘यही है शाह की कंजरी...’

कहनेवालियों ने शायद बहुत धीरे से कहा था-खुसरफुसर सा, पर शाहनी के कान में आवाज़ पड़ रही थी, कानों से टकरा रही थी-शाह की कंजरी.....शाह की कंजरी.....और शाहनी के मुंह का रंग फीका पड़ गया.

इतने में ढोलक की आवाज़ ऊंची हो गई और साथ ही गाने वाली की आवाज़,‘सुहे वे चीरे वालिया मैं कहनी हां....’ और शाहनी का कलेजा थम सा गया-वह सुहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़नेवाला मेरा बेटा...

फ़रमाइश का अंत नहीं था. एक गीत ख़त्म होता, दूसरा गीत शुरू हो जाता. गाने वाली कभी औरतों की तरफ़ की फ़रमाइश पूरी करती, कभी मर्दों की. बीच-बीच में कह देती,‘कोई और भी गाओ ना, मुझे सांस दिला दो.’ पर किसकी हिम्मत थी, उसके सामने होने की, उसकी टल्ली सी आवाज़… वह भी शायद कहने को कह रही थी, वैसे एक के पीछे झट दूसरा गीत छेड़ देती थी.

गीतों की बात और थी पर जब उसने मिरजे की हेक लगाई,‘उठ नी साहिबा सुत्तिये! उठ के दे दीदार...’ हवा का कलेजा हिल गया. कमरे में बैठे मर्द बुत बन गए थे. शाहनी को फिर घबराहट सी हुई, उसने बड़े ग़ौर से शाह के मुख की तरफ़ देखा. शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा वह पत्थर का हो गया था...

शाहनी के कलेजे में हौल सा हुआ, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गई तो वह आप भी हमेशा के लिए बुत बन जाएगी... वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत ना बने...

काफ़ी शाम हो गई, महफ़िल ख़त्म होने वाली थी...

शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बांटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बांटते हैं जिस दिन गीत बैठाए जाते हैं. पर जब गाना ख़त्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठाई आ गई...

और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकाल कर, अपने बेटे के सिर पर से वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी कहते थे.

‘रहेने दे, शाहनी! आगे भी तेरा ही खाती हूं.’ उसने जवाब दिया और हंस पड़ी. उसकी हंसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी.

शाहनी के मुंह का रंग हल्का पड़ गया. उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना संबंध जोड़ कर उसकी हतक कर दी थी. पर शाहनी ने अपना आपा थाम लिया. एक जेरासा किया कि आज उसने हार नहीं खानी थी. वह ज़ोर से हंस पड़ी. नोट पकड़ाती हुई कहने लगी,‘शाह से तो तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर कब लेना है? चल आज ले ले...’

और शाह की कंजरी नोट पकड़ती हुई, एक ही बार में हीनी सी हो गई...

कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाल गुलाबी रंग फैल गया...

समाप्त.....
अमृता प्रीतम...