राज-सिंहासन--भाग(६) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राज-सिंहासन--भाग(६)

नीलमणी को देखते ही सोनमयी बोली.....
ये अप्सरा धरती पर क्या कर रही हैं?
अरे,बहना! ये अप्सरा नहीं सूरजगढ़ राज्य की राजकुमारी नीलमणी हैं,वीरप्रताट बोला।।
ओह.... इनकी सुन्दरता देखकर तो ऐसा लगता है कि मानो ये कोई अप्सरा हों,सोनमयी बोली।।
जा...सोनमयी! इन्हें अपनी कुटिया में लेजा,किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो पूछ लेना,आज रात्रि ये हमारे यहाँ ही विश्राम करेंगीं,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी...भ्राता! अवश्य! आपके आदेश का पालन होगा,मैं इनका ध्यान रखूँगी,आइए राजकुमारी जी आइए...आइए...,सोनमयी ने नीलमणी से कहा।
और नीलमणी ,सोनमयी के संग कुटिया के भीतर चली आई,कुटिया के भीतर आते ही सोनमयी ने बिछौना बिछाते हुए नीलमणी से कहा....
लीजिए राजकुमारी जी आप इस बिछौने पर बिराजिए.....
सोनमयी! मुझे राजकुमारी मत कहो,मैं तो तुम्हारी सखी हूँ,नीलमणी ने सोनमयी से कहा।।
मेरी जैसी ऋषिआश्रम में रहने वाली कन्या को आपने अपनी सखी बनाने के योग्य समझा,ये तो आपकी महानता है,सोनमयी बोली।।
ऐसा मत कहो सखी! ये महानता नहीं मानवता हैं,जैसे आपके भाईयों ने मेरी सहायता भी तो मनावतावश ही तो की थी,नीलमणी बोली।।
मेरे भाई तो हैं ही दयालु एवं बड़े हृदय वाले,सोनमयी बोली।।
वो तो आज मुझे ज्ञात हो गया,इसलिए तो मैने उन पर विश्वास किया तभी तो मैं उनके साथ यहाँ चली आई,नीलमणी बोली।।
अच्छा,राजकुमारी ! आपको कुछ चाहिए तो बता दीजिए,सोनमयी ने पूछा।।
पुनः राजकुमारी ने कहा,मैने कहा ना कि सखी बोलो या तुम मेरा नाम भी ले सकती हो,नीलमणी बोली।।
अच्छा!नील! कुछ चाहिए तुम्हें,सोनमयी ने पुनः पूछा।।
हाँ,सखी! इन वस्त्रों और आभूषणों में विश्राम ना कर पाऊँगी,कुछ आरामदायक वस्त्र मिल जाते तो अच्छा होता,नीलमणी बोली।।
तुम कुछ क्षण प्रतीक्षा करो,मैं तुम्हारे लिए स्वच्छ एवं आरामदायक वस्त्रों का प्रबन्ध करती हूँ और इतना कहकर सोनमयी कुटिया के बाहर चली गई....
सोनमयी के बाहर जाते ही वीरप्रताप कुटिया के भीतर आकर बोला.....
राजकुमारी जी!आप भोजन में क्या ग्रहण करेंगीं?कृपया बताने का कष्ट करें,माँ ने पुछवाया है,वें कह रही थी कि शीघ्र ही पका देंगीं,
जी! मैं वही खा लूँगी जो आप लोंग खाते हैं,नीलमणी बोली।।
आप तो एक राजकुमारी हैं,आप हम आश्रमवासियों का भोजन कैसे ग्रहण कर सकतीं हैं? वीरप्रताप बोला।।
क्यों क्या मैं मानव नहीं हूँ? क्या मैं किसी अन्य ग्रह से आई हूँ?जो आप ऐसी बातें कर रहे हैं,मैं कबसे देख रही हूँ,आप ने राजकुमारी....राजकुमारी....पुकार पुकार के मेरे मस्तिष्क को असन्तुलित कर दिया है,अब भोजन के लिए पूछने चले आए,मानती हूँ कि आपने मेरी सहायता की है किन्तु इसका ये तात्पर्य नहीं है कि आप हर क्षण मुझे यही अवगत कराते रहे कि आपने मेरी सहायता की है एवं मैं एक राजकुमारी हूँ.....नीलमणी क्रोधित होकर बोली।।
परन्तु राजकुमारी! मेरा ये उद्देश्य बिल्कुल भी नहीं था,आपको कोई भ्रम हुआ है,वीरप्रताप बोला।।
तो....क्यों आप मुझे राजकुमारी.....राजकुमारी....कह कहके लज्जित कर रहें हैं,अभी आप लोग बाहर भी भी यही कह रहे थे,अभी सोनमयी भी यही कह रही थी और आप पुनः वही राजकुमारी.....राजकुमारी...वाला वार्तालाप लेकर बैठ गए,मैने अपना नाम बताया ना आपको तो आप मुझे नीलमणी कहकर क्यों नहीं पुकारते?नीलमणी क्रोधित होकर इतना कुछ कह गई....
क्षमा कीजिए,नीलमणी जी! आपको मेरी बात इतनी बुरी लगी उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ,वीरप्रताप बोला।।
पुनः वही नीलमणी जी! आप मुझे नीलमणी नहीं कह सकते,नीलमणी बोली।।
ये सुनकर वीरप्रताप भयभीत हो उठा और नीलमणी से बोला....
नीलमणी! तो अब मैं जाता हूँ और इतना कहकर वो जाने लगा ,उसे जाते हुए देखकर नीलमणी ने मन में सोचा.....
ऐसा प्रतीत होता है कि क्रोधवश मैंने कुछ अधिक ही बोल दिया और तभी उसने वीरप्रताप को रोकते हुए कहा....
वीर! सुनो! माँ से कहना वें जो भी प्रेम से पकाएगीं मैं खा लूँगी,महलों में रहती आई हूँ तो इसका ये अभिप्राय नहीं कि मैं सदैव छप्पन भोग ही करती हूँ,मैं अत्यधिक साधारण विचारों वाली हूँ और साधारण भोजन ग्रहण करना ही भाता है मुझे समझे!अभी जो क्रोधवश मैने जो कुछ भी कहा कृपया उसे हृदय पर मत लेना,मेरा स्वभाव ऐसा ही है,
ये सुनकर वीरप्रताप के मुँख पर मुस्कुराहट प्रकट हुई और अपना सिर खुजलाते हुए वो चला गया....
वीरप्रताप मुस्कुराता हुआ कुटिया के बाहर निकला तो सहस्त्रबाहु ने उसे देख लिया एवं पूछा.....
अच्छा तो महाशय !राजकुमारी के दर्शन करने गए थे,ऐसा प्रतीत होता कि मार्ग में निहारते निहारते मन ना भरा॥
भ्राता! ऐसा तो कुछ नहीं है,मैं उनसे केवल भोजन हेतु पूछने गया था,वीरप्रताप बोला।।
मेरे प्रिय अनुज! क्या मैं तुमको मूर्ख दिखाई देता हूँ?सहस्त्रबाहु बोला।।
ना भ्राता! मैने ऐसा तो नहीं कहा,वीरप्रताप बोला।।
अनुज! कहीं ऐसा तो नहीं कि राजकुमारी पर तुम अपना हृदय हार बैठे हो,सहस्त्र ने पूछा।।
ना भ्राता! वो राजकुमारी है,मेरा और उनका मेल भला कैसे हो सकता है? वीरप्रताप बोला।।
ठीक है भाई! तुम जाओ,अपना कार्य करो,मैं भी कहाँ तुमसे इस विषय पर बात करने चला आया,सहस्त्रबाहु बोला।।
भ्राता! मैं जाता हूँ,नीलमणी के भोजन का प्रबन्ध जो करना है,वीरप्रताप बोला।।
राजकुमारी से नीलमणी,क्या बात है? ऐसा प्रतीत होता है कि अत्यधिक प्रगति पर हो,चलते चलो....चलते चलो....एक ना एक दिन अवश्य अपने गन्तव्य तक पहुँच जाओगे,सहस्त्रबाहु बोला।।
भ्राता! आप भ्रमित हो रहे हैं,वीरप्रताप बोला।।
भ्रम....और मुझकों.....,सहस्त्रबाहु बोला।।
हाँ!भ्राता!हाँ!,वीरप्रताप बोला।।
अनुज! अब मेरा मस्तिष्क असमन्जस में हैं,कृपया जाओ यहाँ से,कहीं ऐसा ना हो कि मेरे मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ जाए,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,मैं जा रहा हूँ और भोजन करने अवश्य आ जाना,जाते हुए वीरप्रताप बोला....
हाँ...आ जाऊँगा,मेरी प्रतीक्षा करना...सहस्त्रबाहु बोला।।
इधर सोनमयी कुछ वस्त्र लेकर नीलमणी के समीप पहुँची और बोली....
लो नील! अपने वस्त्र बदल लो एवं अपने अमूल्य आभूषणों को उतार कर इस लकड़ी के सन्दूक में रख देना,इस सन्दूक में सुरक्षित रहेंगें...
ठीक है सखी! मै बदल लेती हूँ,नीलमणी बोली।।
मैं बाहर जाकर तुम्हारे लिए हाथ मुँख धोने के लिए जल भर देती हूँ,तुम बाहर आकर अपने हाथ मुँख धो लो,इसके उपरांत भोजन करने चलेंगें,सोनमयी इतना कहकर बाहर आ गई और कुछ समय पश्चात जल भरकर बोली....
नील! बाहर आ जाओ,जल भर दिया है।।
आती हूँ सखी! इतना कहकर नीलमणी बाहर आई
और नीलमणी को साधारण वस्त्रों में देखकर सोनमयी बोली...
सखी! तुम तो इन वस्त्रों में भी अप्सरा प्रतीत होती हो,तुम इतनी रूपवती हो कि कुछ भी धारण कर लो सुन्दर ही दिखती हो,
सोनमयी! तुम तो मेरी यूँ ही प्रसंशा कर रही हो,नीलमणी बोली।।
अच्छा! तुम हाथ मुँख धो लो,इसके उपरांत भोजन करने चलते हैं,आज तुम्हारे लिए भोजन मधुमती काकी ने पकाया है,हमें उनकी ही कुटिया में जाना होगा....सोनमयी बोली।।
नीलमणी ने अपने हाथ मुँख धोए और दोनों मधुमती की कुटिया के निकट पहुँचीं,जहाँ वीरप्रताप और सहस्त्रबाहु दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे....
चारों कुटिया के भीतर गए,सोनमयी सबके समक्ष पत्रक रखकर भोजन परोसने लगी,भोजन परोसने के पश्चात सभी भोजन करने लगें,कुटिया में दीपक का धूमिल सा प्रकाश था एवं चूल्हे की अग्नि का ही प्रकाश अधिक था,चूल्हे के प्रकाश में नीलमणी का सोने सा वर्ण अत्यधिक सुनहरा दिख रहा था,उसके कपोलों को चूमती हुई अल्के अत्यधिक आकर्षित लग रहीं थीं,उसके कमल समान अधर एक अलग ही छठा बिखेर रहे थे,नीलमणी का रूप पुनः वीरप्रताप को आकर्षित करने लगा,वीरप्रताप की दृष्टि भोजन पर कम एवं नीलमणी पर अधिक थी और ये सब सहस्त्रबाहु देख रहा था,अब तो सहस्त्रबाहु को पूर्ण विश्वास हो गया था कि अनुज वीर को नीलमणी से अवश्य ही प्रेम हो गया है।।

रात्रि को सोनमयी एवं नीलमणी अपने अपने बिछोने पर आकर लेटकर बातें करने लगी.....
सोनमयी बोली....
और सखी! तुम्हारे महल मे तो बहुत से दास दासियाँ होगें,तुम स्वयं तो कोई कार्य करती ना होगी।।
हाँ! सखी! जैसी तुमने कल्पना कर रखी है,वैसा कुछ भी नहीं है, महलों में केवल बाह्य आकर्षण ही होता है,उसकी सुन्दरता कभी भीतर जाकर देखों,वो तुम्हें सुन्दर नहीं दिखेगा,कहते हैं ना कि दूर के ढ़ोल सुहाने होते है,बिल्कुल वैसा ही है इसलिए मुझे यहाँ अत्यधिक आनन्द आ रहा है,मैं यहाँ प्रसन्न हूँ,यहाँ सब मुझसे अच्छा व्यवहार करते हैं,वहाँ मैं प्रसन्न नहीं हूँ,मेरी माता भी मुझे छोड़कर जा चुकीं हैं एवं मेरे पिता महाराज का व्यवहार उनकी प्रजा के लिए निन्दनीय है,वे अत्यधिक क्रूर प्रवृत्ति के हैं,वें अपने स्वार्थ हेतु किसी के भी प्राण हर लेते हैं,मैं ये देखकर अत्यधिक दुखी हो जाती हूँ,वहाँ महल में कोई ऐसा भी एक काँन्धा नहीं है जिस पर सिर रखके मैं अपना दुखड़ा रो सकूँ,ये कहते कहते नीलमणी की आँखें भर आईं।।।
ये कैसी बातें कर रही हो सखी! इसका तात्पर्य है कि तुम वहाँ प्रसन्न नहीं हो,सोनमयी ने पूछा।।
हाँ,सखी! कितना अच्छा हो कि मैं यहाँ सदैव के लिए रह जाऊँ,नीलमणी बोली।।
परन्तु ,तुम्हारे पिता महाराज,वें कुछ ना कहेगें,सोनमयी बोली।।
उन्ही का तो भय है,नीलमणी बोली।।
सखी! अभी तुम विश्राम करो,इस विषय पर और कभी बात करेंगें,सोनमयी बोली।।
इस तरह दोनों सखियों के मध्य वार्तालाप चलता रहा....
उधर अपनी कुटिया में सहस्त्रबाहु एवं वीरप्रताप विश्राम कर रहे थे.....
सहस्त्रबाहु ने वीरप्रताप से पूछा....
तो भा ही गई नीलमणी!!
भ्राता! अब क्या कहूँ? हृदय मस्तिष्क की बात नहीं सुन रहा है,वीरप्रताप बोला।।
किन्तु वह एक राजकुमारी है,सहस्त्रबाहु बोला।।
मुझे ज्ञात है भ्राता! वीरप्रताप बोला।।
अच्छा! अभी विश्राम करों,प्रातः इस विषय पर चर्चा करेंगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
और दोनों भाई विश्राम करने लगे.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....