राज-सिंहासन--भाग(९) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राज-सिंहासन--भाग(९)

सूरजगढ़ के सैनिकों के जाने के उपरांत सभी जनों का वार्तालाप समाप्त हो चुका था क्योंकि सबको नीलमणी एवं सहस्त्रबाहु की सत्यता ज्ञात हो चुकी थी,कुछ शेष ही नही रह गया था,इसलिए सभी अपनी अपनी कुटिया मेँ लौट गए क्योंकि अब सारी बात सुलझ चुकी थी ,लेकिन अभी सहस्त्र,वीर,सोनमयी,नील और ज्ञानश्रुति बाहर ही थे....
राजकुमारी नीलमणी जब अपने राज्य नहीं लौटीं तो ज्ञानश्रुति ने उनसे प्रश्न किया....
राजकुमारी आप सूरजगढ़ लौट सकतीं थीं किन्तु आप क्यों नहीं लौटीं?
इतने वर्षों पश्चात मुझे मेरे भ्राता मिलें हैं,मैं उनसे भी कुछ वार्तालाप करना चाहती थी,मुझे अपना राजभवन तनिक भी नहीं भाता,यहाँ सब कितने मिलनसार एवं कोमल स्वभाव के हैं,इसलिए सोचा कि कुछ दिन और यहाँ विश्राम करूँ,सबसे मेल बढ़ाऊँ,राजकुमारी नीलमणी बोली...
तब तो आपने बहुत अच्छा विचार किया,ज्ञानश्रुति बोला।।
और आपने क्या विचार किया? शान्त होकर यही खड़े रहोगे या कुछ कार्य भी करोगें,सोनमयी ने ज्ञानश्रुति से कहा।।
मैं देख रहा हूँ कि आप जबसे मिलीं हैं तो आप मुझ पर केवल क्रोध ही किए जा रहीं हैं,मैं पूछ सकता हूँ कि आपको मुझसे क्या कष्ट है? ज्ञानश्रुति ने सोनमयी से पूछा।।
तुम जाकर स्नान करके कुछ खा लों,मुझसे वार्तालाप करने का प्रयास मत करो और सुनो! मैं तुम्हारे किसी भी प्रश्न का उत्तर क्यों दूँ? वो तो हम सबने तुम्हें दया करके छोड़ दिया,नहीं तो ना जाने तुम्हारा क्या होता? सोनमयी बोली।।
देखिए ! आप मुझसे अभद्रता कर रहीं हैं,ज्ञानश्रुति बोला...
हाँ! कर रही हूँ अभद्रता ,बोलो क्या करोगें? सोनमयी बोली।।
मैं भला क्या कर सकता हूँ?मैं तो असहाय प्राणी हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
ये जो तुम ऐसा व्यवहार करते हो ना ! बस यही मुझको नहीं भाता,सोनमयी बोली।।
तो आपको क्या भाता है?ज्ञानश्रुति ने पूछा।
सबकुछ भाता है परन्तु तुम नहीं भाते,सोनमयी क्रोधित होकर बोली।।
तो ऐसा मैं क्या करूँ? जो आपको भाने लगूँ,ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
जाकर उल्टे होकर वृक्ष से लटक जाओ,किन्तु मेरे मस्तिष्क का संतुलन मत बिगाड़ो,यदि मेरे मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ गया तो तुम्हारे साथ कुछ बुरा हो सकता है,सोनमयी बोली।।
तो ये बता दीजिए कि मैं कौन से वृक्ष पर उल्टा लटकूँ,जो वृक्ष कहेंगीं तो उस पर लटक जाऊँगा,ज्ञानश्रुति बोला।।
भ्राता! वीरप्रताप! कृपया इस वाचाल को शान्त कीजिए,नहीं तो मैं कुछ कर दूँगी,सोनमयी क्रोधित होकर बोली।।
राजकुमार ज्ञानश्रुति ! कृपया शान्त हो जाइए,आप मेरे संग सरोवर पर चलकर स्नान करने के उपरांत कुछ खा कर मेरी कुटिया में विश्राम कर लीजिए,वीरप्रताप बोला।।
जी!भ्राता! जैसा आपका आदेश,ज्ञानश्रुति बोली।।
अब देखो इसे! कितनी भद्रता दिखा रहा है,भला इसके वार्तालाप से प्रतीत होता है कि ये कहीं का राजकुमार है,जब देखो आभार,जब देखो क्षमा,जब देखो आदेश,इसका अपना भी कोई अस्तित्व है या नहीं,या ऐसा अभिनय कर रहा है,आप सबने तो इस पर विश्वास कर लिया किन्तु इसके व्यवहार को देखकर मुझे अब तक इस पर विश्वास नहीं हो रहा,सोनमयी बोली।।
अच्छा! तो ये कारण है आपके क्रोधित होने का,ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
हाँ,सोनमयी बोली।।
मेरा स्वभाव तो ऐसा ही है,इसलिए तो सब मुझसे प्रेम करते हैं लेकिन एक आप ही है जो मुझ पर क्रोध करतीं रहतीं हैं,ज्ञानश्रुति बोला।।
तुम्हारा तात्पर्य क्या है? कि मैं तुमसे प्रेम करने लगूँ,सोनमयी ने ये पूछ तो लिया परन्तु दूसरे ही क्षण वो लजा भी गई....
और समय की वास्तविकता को देखते हुए नीलमणी ने बात बदलने का प्रयास किया....
क्या तुम भी इनसे उलझ रही हो? चलो हम भी स्नान करके आते हैं,मुझे तो जोरो की भूख लग रही हैं,नीलमणी बोली।।
हाँ सखी! चलों,यहाँ से कुछ दूर एक झरना है,आज हम वहीं स्नान करके आते हैं,सोनमयी बोली।।
चलो तो शीघ्रता करो,वैसे भी आज इतना समय हो गया है और हमने स्नान नहीं किया....
और दोनों सखियाँ अपने अपने वस्त्र लेकर स्नान को चल पड़ी....
इधर सहस्त्र,वीर और ज्ञानश्रुति भी स्नान करने सरोवर पर चले गए.....
सबने स्नान के पश्चात भोजन किया और विश्राम हेतु कुटिया में आ गए....
तीनों अपने अपने बिछौने पर लेटकर बातें करने लगे....
सहस्त्र ने वीरप्रताप से पूछा....
तो अनुज फिर अब तुमने क्या सोचा है?
किस विषय में भ्राता?वीर ने सहस्त्र से पूछा।।
राजकुमारी नीलमणी के विषय में,सहस्त्र बोला।।
मैं आपका तात्पर्य नहीं समझा भ्राता! वीरप्रताप बोला।।
तुमने सुना ना ! कि नीलमणी के पिता कितने क्रूर शासक हैं,क्या वें स्वीकार करेंगें कि तुम उनकी पुत्री से प्रेम करो,सहस्त्रबाहु बोला।।
अब जो भी परिणाम हो किन्तु मैं इस भय से राजकुमारी से प्रेम करना तो नहीं छोड़ सकता,वीरप्रताप बोला।।
सोच लो ,अभी भी समय है,सहस्त्रबाहु बोला।।
सब सोच लिया भ्राता! वीरप्रताप बोला।।
मुझे तुमसे यही आशा थी ,मुझे ज्ञात था कि तुम्हारा उत्तर यही होगा एवं अब वो मेरी बहन भी है तो मैं यही चाहता हूँ कि उसे तुम जैसा निर्डर जीवनसाथी मिले जो उसकी सदैव रक्षा कर सकें,सहस्त्रबाहु बोला।।
धन्यवाद भ्राता! इस सम्बन्ध को स्वीकारने हेतु,वीरप्रताप बोला।।
धन्यवाद कैसा अनुज! मुझे प्रसन्नता है कि तुम्हें तुम्हारी प्रिऐ मिल गई,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,यदि आप दोनों के मध्य वार्तालाप समाप्त हो गया हो तो मैं तनिक विश्राम कर लूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
क्यों ?राजकुमार! भला हमारे वार्तालाप से आपको क्या आपत्ति है?वीरभद्र ने पूछा।।
दो दिन हो चुके हैं भ्राता वीर! मै सोया नहीं हूँ इसलिए तनिक विश्राम करना चाहता हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
सो जाइए,राजकुमार! अब हम वार्तालाप नहीं करेंगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
और सभी विश्राम करने लगे.....
उधर सोनमयी और नीलमणी भी भोजन करने के उपरांत अपनी कुटिया में विश्राम करने पहुँचीं एवं नीलमणी से सोनमयी से पूछा....
क्यों सखी तुम्हें ज्ञानश्रुति पर इतना क्रोध क्यों आता है?
कुछ नहीं सखी उसके वार्तालाप पर क्रोध आता है,सोनमयी बोली।।
वो हृदय का कोमल है,केवल उसकी बातें ही ऐसी होतीं हैं,नीलमणी बोली।।
जो भी हो परन्तु मुझे उसके वार्तालाप में रूचि नहीं है,सोनमयी बोली।।
ठीक है परन्तु,अभी विश्राम करो,नीलमणी बोली।।
और दोनों विश्राम करने लगी.....
सायंकाल का समय था....
सभी विश्राम के पश्चात कुटिया से बाहर निकले.....
कुछ क्षण सबने वार्तालाप किया इसके उपरांत सोनमयी बोली....
नीलमणी! तुम यहीं ठहरो,मैं तनिक जल लेकर आती हूँ,अभी भोजन हेतु जल का उपयोग होगा,एवं रात्रि के लिए भी तो एकत्र करके रखना होगा...
तो मैं चलती हूँ ना तुम्हारे संग जल लेने,नीलमणी बोली।।
ना सखी! तुमसे नहीं होगा,तुम्हें ऐसे कार्य करने का अभ्यास नहीं है,सोनमयी बोली।।
तो तुम अकेले कैसे करोगी?नीलमणी बोली।।
ये राजकुमार ज्ञानश्रुति हैं ना! ये करेंगें मेरी सहायता,जल के दो कलश ये भी लेते आऐंगे,सोनमयी बोली।।
जी! मैं कैसे? मुझे तो ऐसे कार्य करने का कोई अभ्यास नहीं है,ज्ञानश्रुति बोला।।
तो क्या तुम नाम बस के ही राजकुमार हो,ये इतना कठिन कार्य तो नहीं है कि तुम कर ना सको,सोनयमी बोली।।
परन्तु मैं ही क्यो? देवी सोनमयी! ज्ञानश्रुति बोला।।
यहाँ रहना है ना तो कार्य तो करने पड़ेगे,यदि जल नहीं भर सकते तो भोजन पकाने में सहायता करनी होगी,सोनमयी बोली।।
क्या कहा..भोजन...,ये तो मुझसे ना होगा ,इससे भला है कि मैं जल के कलश ही भर लाऊँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
तो चलो मेरे संग झरने पर पीने का जल भरने,सोनमयी बोली।।
हाँ! देवी सोनमयी चलिए,ज्ञानश्रुति बोला।।
ये सब देखकर सब हँसने लगे और कुछ समय पश्चात दोनों जल भरने निकल पड़े....

घना जंगल,बड़े बड़े वृक्ष,वृक्ष इतने घने हैं कि सूरज का प्रकाश सरलता से धरती पर नहीं पहुँचता,वन्यजीवों का भी सायंकाल को खतरा बढ़ जाता है...
वें दोनों मार्ग पर चले जा रहे थे किन्तु सोनमयी ने ज्ञानश्रुति से एक वाक्य भी नहीं कहा ये देखकर ज्ञानश्रुति ने सोनमयी से पूछा...
देवी...सोनयमी...सुनिए तो,क्या आप मुझसे क्रोधित हैं...?
जी,हाँ..,सोनमयी बोली।।
इसका कारण,ज्ञानश्रुति ने पूछा।।
आपकी वाचाल प्रवृत्ति,सोनमयी बोली।।
आप वार्तालाप नहीं करेंगीं तो मार्ग कैसे कटेगा,ज्ञानश्रुति बोला।।
जी,मुझे आपसे वार्तालाप करनें में कोई रूचि नहीं है,सोनमयी बोली।।
जैसी आपकी इच्छा देवी! ज्ञानश्रुति बोला।।
कुछ ही क्षणों में दोनों झरनें पर पहुँचे,अपने अपनें कलशों में जल भर कर वापस आने लगें,अभी भी सोनमयी, ज्ञानश्रुति से कुछ ना बोली...
ज्ञानश्रुति भी इसलिए नहीं बोला कि कहीं सोनमयी पुनः उस पर क्रोध ना करने लगे.....
सोनमयी की गति कुछ तीव्र थी क्योंकि उसे जल भरे कलशों को उठाने का अभ्यास था,उसने एक कलश सिर पर रखा था और एक हाथों में लेकर वो ज्ञानश्रुति से आगें आगें चल रही थी,वहीं ज्ञानश्रुति जल से भरें कलशो को उठाकर अत्यधिक कष्ट मेँ था....
सोनमयी आगें थी एवं उसके सिर पर रखे कलश के कारणवश वो ऊपर नहीं देख सकती थी,इसलिए उसने ऊँचे वृक्ष की डाल पर झुरमुट में छुपें काले तेंदुए को नहीं देखा और जैसे ही सोनमयी वृक्ष के तले आई उस तेंदुए ने सोनमयी पर आक्रमण कर दिया......
सिर पर रखें कलश के जल ने उसके शरीर को पूर्णतः भिगो दिया एवं वो धरती पर गिर पड़ी,तेदुए ने अवसर गवाएं बिना पुनः सोनमयी पर आक्रमण कर दिया तथा उसके पाँव को अपने मुँह में भर लिया,सोनमयी अपना बचाव करने लगी ये देखकर ज्ञानश्रुति भागकर आया एवं उस तेदुएं को झटक कर सोनमयी से अलग किया और शीघ्रता से निकट ही पड़े कलश से उस पर प्रहार किया,ये देखकर तेंदुआ भयभीत हुआ और वन में कहीं विलुप्त हो गया.....
ज्ञानश्रुति शीघ्रता से सोनमयी के पास आकर बोला....
देवी! आप ठीक तो हैं ना!
परन्तु सोनमयी ठीक नहीं थी,कचादित उसके पाँव में गहरे घाव आए थे जिनसे निरन्तर रक्त बह रहा था,सोनमयी ने खड़े होने का प्रयास किया किन्तु वो खड़ी नही हो पाई....
सोनमयी को खड़े होने में असफल देखकर ज्ञानश्रुति ने उसे अपने बाहुओं में उठाया एवं निवासस्थान की ओर बढ़ चला....
उसकी कृतज्ञता देखकर सोनमयी भी मौन हो गई एवं कुछ ना बोल सकी....
देवी सोनमयी! अत्यन्त पीड़ा हो रही होगी आपको तो,ज्ञानश्रुति बोला...
परन्तु सोनमयी तब भी कुछ ना बोली और मौन होकर केवल ज्ञानश्रुति के मुँख को ही निहारती रही....

क्रमशः...
सरोज वर्मा....