यदि आप सभी का परिहास पूर्ण हो गया तो पुनः योजना के विषय में वार्तालाप प्रारम्भ करें,सोनमयी चिढ़ते हुए बोली....
हाँ..हाँ..अवश्य मेरी बहना! इसमें इतना क्रोधित होने की आवश्यकता नहीं है,वीरप्रताप बोला।।
क्रोधित ना होऊ तो क्या करूँ? आप सभी मेरे घाव पर परिहास जो कर रहे हैं,सोनमयी बोली।।
अच्छा! नहीं करते परिहास,अब तुम अपने मुँख की भंगिमाओं को तनिक विश्राम दो,वीरप्रताप बोला।।
हाँ..तो मैं ये कहना चाहता हूँ कि मुझे,सोनमयी और वीर को कुछ तांत्रिक विद्या का भी ज्ञान है,अधिक तो नहीं किन्तु यदि कहीं कोई मार्ग दिखाई ना दे तब हम उसका उपयोग करते हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
सच! भ्राता! आप सभी को तन्त्र विद्या का भी ज्ञान है,नीलमणी ने पूछा।।
हाँ..तनिक...तनिक,सहस्त्रबाहु बोला।।
और मैं अभागा,ना तो युद्ध विद्या में परांगत हूँ और ना ही तन्त्र विद्या में ,ऊपर से आप सभी मुझे राजकुमारी नीलमणी की सखी बना कर भेज रहे हैं,ज्ञानश्रुति बोला।।
कन्या बनने हेतु ऐसा कुछ अधिक नहीं करना पड़ता राजकुमार!बस कुछ कमर को लचीला बनाइए, आड़े-तेढ़े भाव मुँख पर लाइए और कोई पुरूष समक्ष आ जाए तो तनिक लजा जाइए,बस बन गए आप कन्या,वीरप्रताप बोला।।
वीरप्रताप की बात सुनकर पुनः सभी हँस पड़े....
किन्तु! ये तो अत्यधिक कठिन प्रतीत होता है,ज्ञानश्रुति बोला।।
सरल ही सरल है आपको सोनमयी सब सिखा देगी,वीरप्रताप बोला।।
वें सिखाएगी मुझे,इनका क्रोध देखा है आप सबने,उनका क्रोध सदैव धरती से निकलता हुआ गगन को वेधता हुआ चला जाता है ,मुझे तो सदैव इनका भय बना रहता है ,ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार! इतना भय लगता है आपको सोनयमी से,परन्तु क्यों?वो तो ना कोई पिशाचिनी हैं एवं ना तो कोई चण्डालिका,वीरप्रताप बोला।।
अरे,वीर भ्राता! ये सभी भी इनके समक्ष कम पड़ जाएं,ज्ञानश्रुति बोला।
राजकुमार ज्ञानश्रुति! क्या कहा आपने? मैं पिशाचिनी हूँ,सोनमयी बोली।।
मैं ने नहीं वीर भ्राता ने कहा,ज्ञानश्रुति बोला।।
किन्तु आपने इनकी हाँ में हाँ मिलाई ना,सोनमयी बोली।।
मुझसे कोई दीर्घ अपराध हो गया है कदाचित,ज्ञानश्रुति बोला।।
दण्डनीय अपराध हुआ है आपसे,सोनमयी बोली।।
अरे,सखी! क्रोधित क्यों होती हो? ये सब परिहास चल रहा था,नीलमणी बोली।।
तो परिहास में पिशाचिनी कहा जाएगा,सोनमयी बोली।।
अच्छा! अब कोई भी सोनमयी पर परिहास नहीं करेगा,सभी योजना पर ध्यान देगें,नीलमणी बोली।।
जी!राजकुमारी नीलमणी ,वीरप्रताप बोला।।
नीलमणी ने कहा तो वीर भ्राता! शीघ्र ही हाँ बोले,सोनमयी बोली।।
ऐसी बात नहीं सोनमयी!मैं केवल ये कह रहा था कि राजकुमारी नीलमणी सत्य ही तो कह रही हैं,वीरप्रताप बोला।।
अच्छा! बहुत बात मानने लगें हैं आप नीलमणी की,सोनमयी बोली।।
वो तो माननी पड़ेगी,क्योंकि वो हमारी अतिथि जो ठहरीं,वीरप्रताप बोला।।
यदि आप सभी इस निर्रथक वार्तालाप का समापन कर दे तो मैं आगें की योजना पर प्रकाश डालूँ,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी!भ्राता ! अवश्य!आप ही कहें,ज्ञानश्रुति बोला।।
हाँ! तो आप सब अपनी अपनी स्थितियों के अनुसार अपनी वेषभूषा एवं भाषा का प्रयोग शीघ्र ही सीख लें क्योंकि सोनमयी के स्वस्थ होते ही हम सभी सूरजगढ़ की ओर प्रस्थान करेंगें,नीलमणी तुम हमें अपने राजभवन एवं राज्य के विषय में महत्वपूर्ण बातें बताओगी एवं सोनमयी ज्ञानश्रुति को एक कन्या में परिवर्तित करना तुम्हारा कार्य होगा अर्थात उसके हाव भाव एक कन्या की भाँति लगें ये कार्य तुम्हारा है,
मैं भी अपनी सुप्त हुई तन्त्र विद्याओं को जाग्रत करने का प्रयास करता हूँ क्योंकि वर्षों से मैने उनका उपयोग नही किया कदाचित वो मुझे बिसर ना गई हों,वीर तुम सभी बातों को स्मरण करना लेना ,कोई भी भूल हमारे लिए संकट खड़ा कर सकती हैं क्योंकि सुकेतुबाली कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं,वें तन्त्र विद्या एवं युद्ध विद्या दोनों से ही शक्तिशाली हैं उन्हें तन्त्र विद्या आती नहीं किन्तु उन्होंने कुछ ऐसे सहयोगी रखें हैं जो इस पर उनकी सहायता करते हैं,उन्हें पराजित करना सरल कार्य नहीं है एवं उनके रहस्यों को ज्ञात करने हेतु हम सभी को कठिन परिश्रम करना होगा,सहस्त्रबाहु बाहु बोला।।
कदाचित आप सत्य कहते हैं भ्राता सहस्त्रबाहु! मैं उनके संग इतने वर्षों से रह रही हूँ,परन्तु मैं भी आज तक उनके किसी भेद को नहीं जान सकी,नीलमणी बोली।।
वही तो मैं कह रहा हूँ कि जब नीलमणी उनके इतने निकट होकर उनके रहस्यों को ज्ञात नहीं कर सकी तो हम सभी के लिए कितना कठिन होगा उनके रहस्यों को ज्ञात करना,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,ये सत्य है एवं यदि उन्हें मेरे विषय में परिज्ञान हो गया तो मेरी मृत्यु को कोई नहीं रोक सकता,ज्ञानश्रुति बोला।।
ऐसा ना कहें राजकुमार ज्ञानश्रुति! हम सभी आपके संग हैं ,सोनमयी बोली।।
सान्त्वना देने हेतु इतने शब्द अत्यधिक हैं देवी सोनमयी,ज्ञानश्रुति बोला।।
ये सान्त्वना नहीं है राजकुमार! सोनमयी बोली।।
वो तो समय बताएगा कि मेरा क्या होगा?ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार ज्ञानश्रुति ! अभी तो हम वहाँ पहुँचे नहीं है और आप अभी से निराशा की ओर अग्रसित हो रहे हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
तो मैं क्या करूँ? मैं भयभीत हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
साहस और बुद्धि ही आपका सबसे बड़ा अस्त्र और शस्त्र है ,कृपया इसे मत खोइए,सोनमयी बोली।।
देवी सोनमयी! ऐसे ही ढ़ाढ़स बँधाते रहिए,ज्ञानश्रुति बोला।।
मैं तो सदैव आपका ढ़ाढ़स बँधाती रहूँगी,आपके मनोबल को कभी भी गिरने नहीं दूँगी,सोनमयी बोली।।
तो ये निश्चित रहा,हम कल प्रातः से ही अपनी योजना पर कार्य करना प्रारम्भ कर देगें,अभी अत्यधिक रात्रि हो चुकी है,विश्राम करने चलते हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,भ्राता! चलिए,वीरप्रताप बोला।।
तो आज रात्रि सोनमयी एवं नीलमणी को हमारी कुटिया में ही विश्राम करने दो क्योंकि सोनमयी धरती पर पग रखने में असमर्थ है,हम किसी और कुटिया में चले जाते हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
यही उचित रहेगा भ्राता! ज्ञानश्रुति बोला।।
एवं उस रात्रि सभी विश्राम करने चले गए.....
इधर नीलमणी और सोनमयी भी विश्राम करने लगीं,तभी नीलमणी ने सोनमयी से कहा....
सखी! एक बात पूछू...
हाँ,सखी! कहो,सोनमयी बोली।।
कहीं राजकुमार ज्ञानश्रुति तुम पर अपना हृदय तो नहीं हार बैठे,नीलमणी बोली।।
कह नहीं सकती सखी! सोनमयी बोली।
उसमे कहना क्या है? ऐसा ही प्रतीत हो रहा था,उनके विषय में तो मैं नहीं कहती परन्तु, आज तुम्हारी दृष्टि में उनके लिए प्रेम अवश्य झलक रहा था,नीलमणी बोली।।
मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा,जब उन्होंने मुझे अपे बाजुओं में उठाया तो एक पल को मैं अपनी पीड़ा भूलकर केवल उनके मुँख के भावों को बाँच रही थी,मैं आज उनके हृदय के अत्यधिक निकट थी तभी मुझे इसका बोध हुआ,मेरी दृष्टि केवल उन्हें ही देखें जा रही थी एवं वे मेरी चिन्ता में चिन्तित होकर केवल भाग रहे थे,घाव मुझे लगा था किन्तु पीड़ा उन्हें हो रही थी,ये एक अद्भुत अनुभव था,सोनमयी बोली।।
सखी! ये प्रेम है,नीलमणी बोली।
अब जो भी हो,किन्तु परम सुख का अनुभव था मेरे लिए ,सोनमयी बोली।।
तो सखी! अब निंद्रा को बुला लो और राजकुमार को अपने स्वप्नों में आने की अनुमति दो,नीलमणी बोली।।
अब इतनी भी अधीरता नहीं है मुझमें कि मैं उन्हें स्वप्न में बुलाने लगूँ,सोनमयी बोली।।
तुम नहीं भी बुलाओगी कि तो भी वो अवश्य आएगें तुम्हारे स्वप्नों में,नीलमणी बोली।।
आने दो,सोनमयी बोली।
तुम्हारा क्या है? तुम तो स्वप्न में भी उनसे झगड़ोगी ही,नीलमणी बोली।।
मेरे क्या सींग हैं जो मैं उनसे लड़ूगीं,सोनमयी बोली।।
तो ठीक है प्रेमपूर्वक उनके हृदय से लग जाना,नीलमणी बोली।।
सखी! अब तुम परिहास कर रही हो ,सोनमयी बोली।।
नहीं सखी ये सत्य है,प्रेम में ऐसे अनुभव ही होते हैं,नीलमणी बोली।।
दोनों के मध्य ऐसे ही वार्तालाप चलता रहा....
प्रातः कालीन ही वीरप्रताप वन में सोनमयी हेतु कुछ औषधियाँ खोजने गया,ये कार्य अति आवश्यक था क्योंकि सोनमयी का घाव जितनी शीघ्र भर जाएगा वें उतने ही शीघ्रता से सूरजगढ़ जा पाऐगें एवं तीन दिनों के पश्चात ही सोनमयी का घाव भी भर गया एवं पीड़ा भी समाप्त हो गई,परन्तु अभी वो तीव्र गति से नहीं चल पाती थी।।
परन्तु इधर सबने अपनी अपनी वेषभूषा एवं भाषा का उपयोग करना पूर्णतः सीख लिया था एवं इसी भाँति सोनमयी ने ज्ञानश्रुति का वेष बदलकर उसे कन्या का रूप दे दिया और उससे बोली.....
राजकुमार ज्ञानश्रुति! आप सहस्त्र भ्राता को इस रूप में लुभाने का प्रयास कीजिए,यदि वें आपको कन्या समझ बैठे तो आप उत्तीर्ण है....
देवी सोनमयी! अब आप इस रूपमयी कन्या का चमत्कार देखिए और ज्ञानश्रुति इतना कहकर हीरादेवी की कुटिया में पहुँचा ,उनके चरण पकड़कर बोला....
माताश्री! मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है...
परन्तु! पुत्री! तुम हो कौन? हीरादेवी ने पूछा...
मैं आपकी पुत्रवधु कादम्बरी हूँ ,आपके पुत्र ने मेरे संग छल किया है,ज्ञानश्रुति बोला।।
छल... कैसा छल? पुत्री!,हीरादेवी ने पूछा।।
उन्होने मेरे संग केवल प्रेम का अभिनय किया एवं अब मैं किसी को मुँख दिखाने के योग्य नहीं रही,ज्ञानश्रुति बोला।।
किन्तु,पुत्री! ऐसा क्या किया मेरे पुत्र ने? हीरादेवी ने पूछा।।
उन्होंने मुझसे प्रेम करके मेरे संग गंधर्व विवाह किया एवं अब कहते हैं कि वें मुझसे परिचित ही नहीं हैं,मैं अत्यधिक विवश हूँ,अब मैं क्या करूँ? अब तो मृत्यु के अलावा और कोई मार्ग नहीं बचा है मेरे लिए,ज्ञानश्रुति बोला।।
तभी वीरप्रताप भी आ पहुँचा और बोला....
बड़ी माँ! ये कन्या कौन है?
वीर ! मुझे तो कुछ नही सूझता,इस कन्या ने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है,हीरादेवी बोली।।
बड़ी माँ! कैसी दुविधा? वीर ने पूछा।।
पुत्र! ये स्वयं को सहस्त्र की भार्या कहती है ,इसने कहा कि सहस्त्र ने इसके संग गंधर्व विवाह किया है एवं अब ये गर्भवती भी है,हीरादेवी बोली।।
ऐसा कदापि नहीं हो सकता,ये कन्या असत्य कहती है,यदि ऐसा कुछ होता तो भ्राता मुझे अवश्य बताते,वीरप्रताप बोला।।
अब ज्ञानश्रुति ने दीर्घ स्वर में रोना प्रारम्भ कर दिया....
अब ये संसार मुझे,कुल्टा कुलच्छनी के नाम से पुकारेगा,हे !ईश्वर !मुझे अपनी शरण में ले लो,हे! धरती माँ! तू फट जाए और मैं तुझमे समा जाऊँ,जिससे सच्चा प्रेम किया उसी ने मेरे संग विश्वासघात किया....
उसका दीर्घ स्वर सुनकर सभी अपनी अपनी कुटिया से बाहर निकल आए और कारण पूछा....
हीरादेवी असहाय सी खड़ी थी,भला सबको क्या उत्तर दे कि उसका पुत्र ऐसा कुकर्म कर गया,तभी नीलमणी भी निकल आई और उस कन्या से बोली.....
सखी! मेरे भ्राता पर इस प्रकार का लांक्षन मत लगाओ...
सखी! ये सत्य है,ज्ञानश्रुति बोला।।
तभी सहस्त्रबाहु भी आ पहुँचा एवं उसको भी कुछ समझ नहीं आया कि ये कन्या कौन है ? तभी ज्ञानश्रुति ,सहस्त्र के चरणों पर लोट गया और बोला....
स्वामी! मेरे स्वामी! मेरे प्राणप्रिय! मेरी नैया के तुम ही खेवैया हो,मझधार में छोड़कर मत जाओ स्वामी! कैसे पालूँगी मै अकेले अपने इस मिलन के उपहार को जो आपने मुझे दिया है।।
उपहार...कैसा उपहार? किसका स्वामी? देवी!ऐसा प्रतीत होता है कि आपको कोई संदेह हुआ है,आप को कहीं और जाना था ,आप कहीं और आ गईं हैं,सहस्त्रबाहु बोला।।
ऐसा ना कहें स्वामी! मैं आपकी अर्धान्गनी ,आपकी दासी,एक अबला नारी और कहाँ जाऊँगी,अब तो आपके चरणों में ही मेरा स्वर्ग है,ज्ञानश्रुति बोला।।
सुनो! मुझे जब अवगत ही नहीं है कि तुम हो कौन तो मैं भला कैसे तुम्हारा स्वामी हो गया?सहस्त्रबाहु अब क्रोधित होकर बोला।।
नहीं...स्वामी....नहीं,मैं अभी इसी समय इस संसार को छोड़कर चली जाऊँगीं,ज्ञानश्रुति बोला।।
जाती हो तो शीघ्र ही जाओ,वीरप्रताप बोला।।
मैं सत्य कहती हूँ,ज्ञानश्रुति बोला।।
रोक ले पुत्र! कहीं ऐसा ना हो सच में अपने प्राण ले ले,हीरादेवी बोली।।
तभी सोनमयी उस ओर हँसते हुए आई....
इतना बड़ा संकट सहस्त्र भ्राता के समक्ष खड़ा है और तुम हँस रही हो,वीरप्रताप बोला।।
ये संकट राजकुमार ज्ञानश्रुति हैं,कन्या के वेष में,सोनमयी बोली।।
सच!कहती हो सोनमयी! सहस्त्र ने आश्चर्य से पूछा।।
हाँ! कैसा लगा इनका अभिनय? सोनमयी ने पूछा।।
अद्भुत....अकल्पनीय....अप्रितम,सहस्त्रबाहु बोला।।
राजकुमार आप उत्तीर्ण हो गए,सोनमयी बोली।।
ये सब आपकी कृपा का फल है,आपका प्रोत्साहन है,ज्ञानश्रुति बोला।।
मैने कुछ नहीं किया,आपने प्रयास किया इसलिए आप सफल हुए...
क्या अभिनय किया है? एक क्षण को लगा कि सच में भाभीश्री के दर्शन हो गए,वीरप्रताप बोला..
और ये सुनकर सब हँस पड़े....
क्रमशः...
सरोज वर्मा....