राज-सिंहासन--भाग(५) Saroj Verma द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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राज-सिंहासन--भाग(५)

राजकुमार सहस्त्रबाहु अनादिकलेश्वर ऋषि के आश्रम में बिल्कुल सुरक्षित थे,कोई भी वशीकरण शक्तियांँ उन्हें कोई भी हानि नहीं पहुँचा सकतीं थीं,उनकी रक्षा के लिए महामंत्री भानसिंह सदैव तत्पर थे और माँ हीरादेवी तथा पिता घगअनंग उन्हें पुत्र सा ही दुलार दे रहे थे,
इधर वीरभद्र को एक ऋषिकन्या से प्रेम हो गया,उसने ये बात भानसिंह से कही एवं भानसिंह ने उस ऋषिकन्या केतकी का विवाह वीरभद्र से करवा दिया एवं शम्भूनाथ को राजा वनराज के सेवकों में से एक सेविका भा गई थी जिसका नाम मधुमती था,इसलिए भानसिंह ने वनराज को ये संदेशा भेजा कि यदि आप मधुमती और शम्भूनाथ के सम्बन्ध हेतु इच्छुक हो तो शीघ्र ही मुझे सूचित करें, वनराज को ये प्रस्ताव उचित लगा एवं उन्होंने शीघ्रता से इस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें भी लगा कि ये सम्बन्ध होने से भानसिंह से उनका व्यवहार अत्यधिक गहरा होता जाएगा....
इस प्रकार वीरभद्र की वधू केतकी एवं शम्भूनाथ की वधू मधुमती बन गई,अब सब प्रसन्नतापूर्वक रहने लगें,दो वर्षों के भीतर केतकी ने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने सोनमयी रखा एवं मधुमती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने वीरप्रताप रखा,अब तीनों बालक शनैः शनैः बड़े हो रहे थे,तीनों आपस में लड़ते झगड़ते रहते किन्तु तीनों में प्रेम भी अत्यधिक था,इधर भानसिंह महाराज सोनभद्र और महारानी विजयलक्ष्मी को खोजने के प्रयास में निरन्तर प्रयासरत रहे किन्तु कोई सफलता ना मिली,जो भी जहाँ का ठिकाना बता देता तो भानसिंह महाराज और महारानी को खोजते वहीं पहुँच जाते ,उन्होंने स्वयं से राजकुमार सहस्त्रबाहु की रक्षा का वचन लिया था एवं इस वचन के कारण उन्होंने विवाह ना करने का प्रण लिया।।
इसी प्रकार तीनों बालक बाल्यकाल को त्याग कर युवावस्था में पहुँच गए,सहस्त्रबाहु एवं वीरप्रताप में गहरी मित्रता थी,किसी भी संकट में वें सदैव एक संग ही रहते,भानसिंह ने दोनों को युद्ध विद्या में निपुण बना दिया था,वैसे सोनमयी भी युद्ध कला में निपुण थी परन्तु उतनी नहीं जितना कि सहस्त्रबाहु एवं वीरप्रताप.....
सोनमयी तो बस वीरप्रताप एवं सहस्त्रबाहु से झगड़ती रहती ,वें दोनों भी उसकी सभी इच्छाओं की पूर्ति करते रहते क्योंकि वो उसे अपनी बहन की भाँति ही मानते थे,सोनमयी भी उनके लिए भी भाँति भाँति के ब्यंजन तैयार करती रहती क्योंकि उसे नाना प्रकार के ब्यंजन पकाने में अत्यधिक रूचि थी,इसलिए सदैव अपने दोनों भाइयों को भोजन पकाकर खिलाती रहती।।
सहस्त्रबाहु आयु में बड़ा था इसलिए सोनमयी एवं वीरप्रताप को दोनों की बात माननी पड़ती,तीनों बच्चें सुभाषी,सुशील एवं व्यवहारकुशल थे,तीनों का आपस मे भी अत्यधिक प्रेम था,तीनों भाई-बहन एक दूसरे के बिन कभी भोजन ना करते थे।।
एक रोज सहस्त्रबाहु एवं वीरप्रताप वन में आश्रम के लिए कुछ फल लाने गए तभी सहस्त्रबाहु ने किसी नवयुवती को चिल्लाते हुए सुना,नवयुवती का दीर्घ स्वर सुनकर उसने वीरप्रताप से कहा....
वीर...वीर...तुझे कुछ सुनाई दिया।।
ना भ्राता !मैने तो कुछ नहीं सुना,वीरप्रताप बोला।।
अरे...मूर्ख! ध्यान से सुन,सहस्त्रबाहु बोला।।
होगा कोई वन्यजीव,हमे क्या लेना देना? ,वीरप्रताप बोला।।
कैसी बातें कर रहा है रे तू! तुझे क्या मधु काकी ने यही सिखाया है,सहस्त्रबाहु बोला।।
क्या कहते हो भ्राता? भला अब ये बात कहाँ से आ गई? वीरप्रताप ने पूछा।।
तू बात ही ऐसी कर रहा है,चल उस दिशा में जाकर देखते हैं कि क्या बात है?कौन चिल्ला रहा है? ,सहस्त्रबाहु बोला।।
हाँ,भ्राता! चलिए,वीरप्रताप बोला।।
दोनों जन उस दिशा की ओर गए जहाँ से उस युवती का दीर्घ स्वर सुनाई दे रहा था,दोनों ने वहाँ जाकर देखा तो एक युवती को कोई घोड़े पर अपहरण करके ले जा रहा था एवं वो युवती सहायता हेतु बचाओं...बचाओं...चिल्ला रही थी।।
दोनों ने उस युवती को बचाने का सोचा एवं अपनी अपनी तलवारें निकाल कर उस युवती की सहायता हेतु उस अपहरणकर्ता पर प्रहार किया,ये देखकर वो अपहरणकर्ता क्रोधित हो उठा उसने अपने घोड़े को खीचकर अंकुश लगाया,घोड़ा अपने स्थान पर खड़ा हो गया और अपनी तलवार निकाल उसने भी प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया,कुछ देर के प्रयास के उपरांत उसे सहस्त्र और वीर ने पराजित कर दिया,अपनी हार देखकर वो अपहरणकर्ता घोड़े पर सवार होकर भाग निकला।।
वो नवयुवती एक ओर खड़े होकर ये सब देख रही थी,जब अपहरणकर्ता भाग गया तो वीर एवं सहस्त्रबाहु उस युवती के निकट आकर बोले...
आप ठीक हैं,देवी जी! वीर ने पूछा।।
जी,मैं ठीक हूँ,उस युवती ने उत्तर दिया।।
ये कौन था एवं आपको लेकर कहाँ जा रहा है? सहस्त्रबाहु ने पूछा।।
जी मैं सूरजगढ़ के राजा सुकेतुबाली की पुत्री नीलमणी हूँ, मैं अपने राजउपवन में विहार कर रही थी,मैने ध्यान नहीं दिया कि पिता महाराज का कोई शत्रु उपवन में छिपकर बैठा है,उसने सबकी दृष्टि बचाकर मेरे मुँख पर हाथ रखा एवं मेरा अपहरण करके ले आया,सभी सैनिकों को जब तक सूचना मिली होगी तब तक वो मुझे यहाँ इतनी दूर ले आया,मैं सहायता हेतु उच्च स्वर में चिल्लाती रही किन्तु कोई भी मेरी सहायता हेतु न आया,आप लोगों का मैं इस सहायता हेतु कैसे आभार प्रकट करूँ? कुछ समझ नहीं आता,नीलमणी बोली।।
इसमें आभार की क्या बात है ? राजकुमारी नीलमणी! ये तो हमारा कर्तव्य था,वीरप्रताप बोला।।
जी,आप दोनों ने मेरे प्राणों की रक्षा की पुनः एक बार धन्यवाद,राजकुमारी नीलमणी ने दोनों का हाथ जोड़कर आभार प्रकट किया।।
अब आप अपने राजमहल कैसें जाएंगी? क्योंकि अभी तो रात्रि होने वाली है,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,ये तो मैं नहीं जानती कि अब क्या करूँगी?नीलमणी बोली।।
तो क्यों ना आज रात्रि आप हमारे आश्रम में विश्राम करें,वीरप्रताप बोला।।
जी! किन्तु आपके आश्रमवासी तो कोई विरोध नहीं करेंगें,नीलमणी ने पूछा।।
जी,हमारे आश्रमवासी तो अत्यधिक दयालु हैं,वें कोई भी विरोध नहीं करेंगें,वीरप्रताप बोला।।
जी,राजकुमारी नीलमणी! आप हमारे संग चलिए क्योंकि केवल यही मार्ग शेष है,सहस्त्रबाहु बोला।।
जी,धन्यवाद! चलिए मैं आपके आश्रम ही चलती हूँ और इतना कहकर राजकुमारी नीलमणी दोनों के संग आश्रम की ओर चल पड़ी।।
मार्ग में वीर ,राजकुमारी नीलमणी को स्नेहमयी दृष्टि से देखता जा रहा था,अत्यधिक ध्यानपूर्वक वो उसके रूप के दर्शन कर रहा था,नीलमणी के कमर तक के लम्बे केश,उभरा मस्तक,धनुषाकार भौंहें,सुन्दर से बड़े बड़े भूरे नयन,कमल समान होंठ,सुराही दार ग्रीवा एवं पतली कमर,नील वर्ण के वस्त्रों में सच में वो नीलमणी लग रही थी,नीलमणी के रूप ने वीर को मंत्रमुग्ध कर दिया था।।
सहस्त्रबाहु ने वीरप्रताप को आतुर दृष्टि से नीलमणी को देखते देखा तो उसने मन में सोचा.....
ऐसा प्रतीत होता है कि वीर को ये कन्या भा गई,कदाचित प्रथम दृष्टि का प्रेम इसे ही कहते हैं,प्रसन्नता हुई ये देखकर कि मेरे भाई को उचित कन्या के दर्शन हो गए किन्तु ये तो राजकुमारी है, क्या ये आश्रम में रहने वाले युवक का प्रेम स्वीकार करेंगी?ऐसा तो नहीं वीर गलत मार्ग पर जा रहा है॥
सहस्त्रबाहु ये सब सोच ही रहा था कि आश्रम आ गया,तभी वीर बोला....
लीजिए,राजकुमारी जी! हमारा आश्रम आ गया।।
तभी सहस्त्रबाहु ने अपनी माँ को पुकारा.....
माँ! देखो तो कौन आया है?
क्या हुआ रे! हीरादेवी ने अपनी कुटिया से बाहर आकर पूछा।।
इन्हें देखो?सहस्त्रबाहु ने कहा।।
हीरादेवी ने नीलमणी की ओर एक आश्चर्य भरी दृष्टि डाली और सहस्त्रबाहु से पूछा.....
कौन हैं रे ये ? किसे ले आया?
माँ! ये सूरजगढ़ की राजकुमारी नीलमणी हैं,इनके पिता सुकेतुबाली वहाँ के राजा हैं,सहस्त्रबाहु ने उत्तर दिया।।
ये सुनकर हीरादेवी के हृदय को एक क्षीण सा आघात लगा,उसने सोचा इतने वर्षों से सहस्त्र को जिन लोगों से दूर रखा,वो पुनः घूमकर उसके निकट आ पहुँचे,किन्तु अब मैं क्या करूँ?हीरादेवी ये सोच ही रही थी कि तभी वीर ने कहा.....
कहाँ खो गई काकी! मानता हूँ कि राजकुमारी सुन्दर है किन्तु आप तो उनके रूप में ही खो गईं.....
वीर की बात सुनकर राजकुमारी शरमा गई.....
अरे कुछ नहीं,बस ऐसे ही सोच रही थी कि राजकुमारी जी इस कुटिया में कैसे रहेगीं? हीरादेवी बोली।।
तो और कोई मार्ग भी नहीं है,वो कहाँ रहेंगीं?आज रात्रि वो इसी आश्रम में ही ठहरेगीं,मैं सोनमयी को बुलाकर उससे कह देता हूँ कि वो इन्हें अपने संग ले जाए और इन्हें जो भी वास्तुओं की आवश्यकता हो,ये उनसे कहें,आज रात्रि राजकुमारी,सोनमयी के संग ही रहेंगी,प्रातः सोचेगें की क्या करना है?सहस्त्रबाहु बोला।।
हाँ!यही उचित रहेगा,वीर ने शीघ्रता से उत्तर दिया।।
हाँ,मैं जानता हूँ,मेरे अनुज,सहस्त्रबाहु ने कुटिल मुस्कान के संग कहा....
तभी वीर ने अपने मन की बात छुपाते हुए,सोनमयी को पुकारा....
सोनमयी.....ओ सोनमयी...तनिक सुन तो बहना....!
क्या है?क्षण..क्षण...मे सोनमयी...सोनमयी ...पुकारते रहते हो,क्या मैं तुम्हारी कोई दासी हूँ....
सोनमयी ने अपनी कुटिया के बाहर आते हुए कहा....
किन्तु एक ही क्षण में वो भी नीलमणी को देखकर आश्चर्य मेः पड़ गई...

क्रमशः...
सरोज वर्मा.....