सपनों का शहर - सेनफ्रांसिस्को- जयश्री पुरवार राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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सपनों का शहर - सेनफ्रांसिस्को- जयश्री पुरवार

अपने रोज़मर्रा के जीवन से जब भी कभी थकान..बेचैनी..उकताहट या फिर बोरियत उत्पन्न होने लगे तो हम सब आमतौर पर अपना मूड रिफ्रेश करने के लिए बोरिया बिस्तर संभाल.. कहीं ना कहीं..किसी ना किसी जगह घूमने निकल पड़ते हैं। हाँ.. ये ज़रूर है कि मौसम के हिसाब से हर बार हमारी मंज़िल..हमारा डेस्टिनेशन बदलता रहता है। कभी इसका बायस गर्म या चिपचिपे मौसम को सहन ना कर पाना होता है तो कभी हाड़ कंपाती सर्दी से बचाव की क्रिया ही हमारी इस प्रतिक्रिया का कारण बनती है।

वैसे तो हर शहर..हर इलाके में ऐसा कुछ ना कुछ निकल ही आता है जो बाहर से आने वाले सैलानियों के लिए खास कर के देखने..महसूस करने..अंतर्मन में संजोने लायक हो। ऐसे में अगर आपको अपने घर से दूर परदेस में बार-बार जाने का मौका मिले तो मन करता है कि हर वो चीज़..जो देखने लायक है..कहीं छूट ना जाए।

ऐसे में जब आपको अमेरिका जैसे बड़े देश के कैलिफोर्निया स्थित सपनों के शहर- सैनफ्रांसिस्को में बार बार जाने का मौका मिले तो मन करता है हर लम्हे..हर पल को खुल कर जी लिया जाए।दोस्तों..आज मैं आपसे अमेरिका के शहर सैनफ्रांसिस्को के रहन सहन और दर्शनीय स्थलों से जुड़ी एक ऐसी किताब के बारे में बात करने जा रहा हूँ जिसे "सपनों का शहर -सैनफ्रांसिस्को" के नाम से लिखा है जयश्री पुरवार ने।

इस किताब में कहीं कोलंबस द्वारा भारत के धोखे में अमेरिका को खोजे जाने का जिक्र मिलता है तो कहीं उसके ब्रिटिश उपनिवेश में तब्दील होने और सालों बाद उसके उपनिवेश से अलग हो आज़ाद हो अलग राष्ट्र बनने की बात नज़र आती है। कहीं इसमें
विश्वयुद्ध के समय हथियार बनाने से ले कर आपूर्ति करने की मुहिम द्वारा अमेरिका के कर्ज़दार राष्ट्र से दुनिया के सबसे अमीर देश में परिवर्तित होने की बात का पता चलता है। तो कहीं द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के विरुद्ध परमाणु बम के इस्तेमाल के बाद अमेरिका, दुनिया के सबसे ताकतवर देश के रूप में परिवर्तित होता दिखाई देता है।

इस किताब में कहीं लेखिका सैनफ्रांसिस्को में उपलब्ध बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की बात करती नज़र आती हैं तो कहीं वे इसके लिए स्वास्थ्य बीमा याने के हैल्थ इंश्योरेंस की अहमियत भी समझाती दिखाई देती हैं। कहीं इस किताब में घर-घर हथियार होने की बात पता चलती है तो कहीं इसी वजह से ज़रा ज़रा सी बात पर गोलाबारी की घटनाओं को बल मिलता दिखाई देता है।

कहीं इस किताब में वहाँ की साफ़ सुथरी सड़कों और गलियों की बात होती नज़र आती है तो कहीं वहाँ के शांति भरे हरे भरे माहौल और सुंदर व दर्शनीय पार्कों की बात होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं वहाँ पर कानून की अहमियत और लोगों के अनुशासनप्रिय होने की बात पता चलती है। तो कहीं इस किताब में वहाँ के बच्चों के प्रिय थीम पार्क'लेमोज़' जैसे उस अभिनव मनोरंजक पार्क की बात होती दिखाई देती है। जहाँ आप जन्मदिन मनाने से ले कर टट्टू की सवारी, बच्चों की राइड्स और पालतू चिड़ियाघर का भी आनंद ले सकते हैं।

इसी किताब में कहीं अमेरिका में बहुलता में उपलब्ध रोज़गारों की बात होती दिखाई देती है कि अगर आप मेहनती, कर्मठ और काम के प्रति ज़ुनूनीयत का भाव रखते हैं तो आपके पास वहाँ रोजगार की कोई कमी नहीं है। तो कहीं वहाँ की परंपरानुसार तीन दिवसीय लेबर डे का उत्सव मनाया जाता दिखाई देता है। इसी किताब से पता चलता है कि सप्ताह के पाँच दिन कड़ी मेहनत करने वाले वहाँ के लोग अगले दो दिनों तक मस्ती करने को बेताब और उल्लासित नज़र आते हैं।

इसी किताब में कहीं लेखिका वहाँ के दिन प्रतिदिन जटिल हो रहे वैवाहिक संबंधों की बात करती नज़र आती है कि वहाँ शादी और तलाक..दोनों ही फटाफट और धड़ाधड़ होते रहते हैं। जिनमें जोड़े में से कोई एक अपना पल्ला झाड़ आगे निकल जाता है तो दूसरा सिंगल पेरेंट की भूमिका निभाता नज़र आता है। इसी किताब से अमेरिका के उन अंतरप्रजातीय परिवारों के बारे में भी पता चलता है जिसमें हो सकता है कि पति मैक्सिकन और पत्नी अमेरिकन हो जबकि अलग अलग रिश्तों से जन्मर्ण उनके बच्चों में कोई गोरा, कोई गेहुआँ और कोई अश्वेत याने के नीग्रो भी हो सकता है।

इस किताब में जहाँ एक तरफ़ ललित कलाओं और सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र याने के सैनफ्रांसिस्को में लेखिका को ड्राइंग पेंटिंग से लेकर फोटोग्राफी, वीडियो, फिल्म- सिनेमा इत्यादि अनेक विधाओं में रुचि लेते लोग नजर आते हैं। जिनमें बच्चे, युवा और प्रौढ़ तक सब अपनी अपनी काबिलियत एवं रुचिनुसार भाग लेते नज़र आते हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ इसी किताब में कहीं वहाँ के व्यस्त बाज़ारों में या सड़कों के किनारे भीख मांगने वाले भी अपना कोई ना कोई हुनर पेश कर अपना गुजर बसर करते नज़र आते हैं।

संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में लेखिका जहाँ एक तरफ वहाँ के विभिन्न मौसमों की बात करती दिखाई देती है तो वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय समुदाय के बीच हर्षोल्लास से बनाए जाते भारतीय त्योहारों जैसे.. दुर्गा पूजा, सिंदूर खेला, होली, करवाचौथ और दिवाली की भी बात करती दिखाई देती है। त्योहारों से जुड़े इस संस्मरण में वे वहाँ के हैलोवीन और क्रिसमस क्रिसमस जैसे बड़े स्तर पर मनाए जाने वाले त्योहारों की भी बात करती नज़र आती हैं।

इसी किताब में कहीं भारतीय एवं पाकिस्तानी मूल के लोगों के साथ साथ विदेशी भी सिंगर कैलाश खेर के कॉन्सर्ट में मस्त हो खुशी से झूमते दिखाई देते हैं। तो कही ग़ज़ल गायक ग़ुलाम अली खान की मदभरी ग़ज़लों की मुरीद होती दुनिया नज़र आती है। कहीं म्यूज़िक बैण्ड इंडियन ओशन के द्वारा प्रस्तुत किए कार्यक्रम का लोग आनंद लेते नज़र आते हैं।

इसी किताब में कहीं लेखिका अपने परिवार के साथ भारतीय रेस्तराओं में हमारे यहाँ के प्रसिद्ध व्यंजनों का लुत्व उठाती दिखाई देती है तो कहीं पाश्चात्य शैली के भोजन का भी आनंद लेती नज़र आती है। विभिन्न संस्मरणों से जुड़ी इस किताब में कहीं लेखिका वहाँ के विभिन्न पुस्तकालयों के ज़रिए वहाँ की की पुस्तक संस्कृति की बात करती हुई दिखाई देती है। तो कहीं वे अपने लेखन के शौक और वहाँ आयोजित की जाने वाली काव्य गोष्ठिओ में अपनी भागीदारी की बात करती नज़र आती है।

इसी किताब में लेखिका कभी वहाँ भयानक त्रासदी के रूप में फैले स्पेनिश फ्लू की बात करती नज़र आती है तो कहीं कैलिफोर्निया के जंगलों में लगी भयानक आग और उससे पर्यावरण को हो रहे नुकसान की बात करती भी दिखाई देती है। इसी किताब में कहीं लेखिका रेसिज़म के मद्देनज़र अमेरिका में काले-गोरों के आपसी भेदभाव एवं उनमें होने वाली आपसी झड़पों की बात करती है। तो कहीं लेखिका के अनुभवानुसार वहाँ के मूल बाशिंदे याने के रेड इंडियन दरकिनार किए जाते दिखाई देते हैं।

इसी किताब में लेखिका कहीं बताती नज़र आती है कि दुनिया का सबसे अमीर..सबसे धनी देश होने के बावजूद भी भो गरीब..बेघर लोगों की अच्छी खासी तादाद दिखाई देती है।

इसी किताब में कहीं लेखिका अपने लेखन के जादू से वहाँ के गोल्डन गेट ब्रिज और विस्टा पॉएंट के दर्शन कराती नज़र आती है। तो कहीं वहाँ के गोल्डन गेट पार्क और जापानी शैली में बने जैपनीज़ टी गार्डन के दर्शन कराती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं पिकनिक का पर्याय बन चुके मदर्स मीडो और स्टो लेक की बात होती नज़र आती है। तो कहीं लेखिका अपनी लेखनी के ज़रिए पाठकों को कैलिफोर्निया अकादमी ऑफ साइंसेज़ के तो कहीं सैनफ्रांसिस्को के डाउन टाउन और उसके आसपास के इलाकों के दर्शन कराती नज़र आती है।

इसी किताब में कहीं लेखिका मछुआरों के घाट का विचरण करती नज़र आती है तो कहीं वहाँ के अपराधियों को नए जीवन की प्रेरणा देते एक ऐसे रेस्टोरेंट की बात करती दिखाई देती है जहाँ वेटर, बावर्ची, प्रबंधक से ले कर मालिक तक, सभी कभी ना कभी अपने जीवन में अपराधी रह चुके हैं और अब सब आम लोगों की तरह सामान्य जीवन जी रहे हैं।

इस किताब में लेखिका कहीं वहाँ के मनोरंजन स्थलों की बात करती नज़र आती ही तो कभी वहाँ की कला और संस्कृति के मद्देनज़र वहाँ के संग्रहालयों इत्यादि की बात करती दिखाई देती है।
इसी किताब में कहीं वहाँ बने मिनी चायना जैसे इलाकों की बात पता चलती है तो कहीं वहाँ के एलजीबीटी समुदाय की निकलती परेड के बारे में पता चलता है।

किताब में कुछ जगहों वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ कमियां दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 39 के आखिरी पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..

'भारत के पब्लिक स्कूलों में समृद्ध परिवार के लाडले बच्चे ही अच्छी शिक्षा प्राप्त करते हैं'

इसके बाद इसी वाक्य में आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'जबकि अमेरिका की सघन आबादी वाले शहरों में भी पब्लिक यानी सरकारी स्कूलों में अधिकतर साधारण वर्ग की संताने जाती हैं।'

यहाँ वाक्य के पहले हिस्से में 'पब्लिक स्कूल' से तात्पर्य उन निजी स्कूलों से है जिन्हें बड़े बड़े उद्योगपतियों ने अथवा अमीर लोगों ने अपने मुनाफ़े के लिए खोल रखा है। जबकि इसी वाक्य के अगले हिस्से में लेखिका 'पब्लिक स्कूल' से सरकारी स्कूल का तात्पर्य समझा रही हैं।

यहाँ लेखिका को इस बात को और अधिक स्पष्ट तरीके से समझाना चाहिए था कि भारत के उच्च स्टैंडर्ड वाले महँगे प्राइवेट स्कूलों के जैसे ही अमेरिका के सरकारी स्कूल होते हैं। जिनमें आम आदमी के बच्चे भी आसानी से मुफ़्त या फिर बिना ज़्यादा फीस दिए शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

** पेज नंबर 49 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'यह निशुल्क नहीं था और इसके लिए हमें फीस भरनी पड़ी। पर बेटी के घर के पास ही होने के कारण कोई दिक्कत नहीं थी।'

कायदे से अगर देखा जाए तो यहाँ इन दोनों वाक्यों के बीच कोई संबंध नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बेटी का घर पास होने की वजह से फीस भरने में कोई दिक्कत नहीं थी। जबकि असलियत में फ़ीस भरने का बेटी के घर के पास होने से कोई नाता नहीं है बल्कि बेटी का घर वहाँ से नज़दीक होने की वजह से लेखिका को वहाँ आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। इसलिए अगर पहले वाक्य को सही माना जाए तो अगला वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..

'बेटी का घर पास होने की वजह से वहाँ आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी।'

इसके आगे पेज नंबर 51 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'सूरजमामा अब देर से आते हैं और जल्दी लौटने भी लगते हैं। पर जितनी देर रहते हैं अपनी रुआब से'

यहाँ 'सूरज मामा(सूर्य)' शब्द सही नहीं है क्योंकि क्योंकि सूरज(सूर्य) को नहीं बल्कि चंदा(चंद्रमा) को चंदामामा कहा जाता है। साथ ही यहाँ 'अपनी रुआब से' नहीं बल्कि 'अपने रुआब से' आएगा। हाँ.. अगर 'रुआब' की जगह 'अकड़' शब्द का प्रयोग किया जाता तो अवश्य ही 'अपनी अकड़ से' आता।

आगे बढ़ने पर पेज नम्बर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'अमेरिकी धरती पर भारतीय राग- रंग से रंजित इस सुरीली साँझ की याद हम आज भी मन में संजोए हुए हैं।'

यहाँ 'रंजित' शब्द का प्रयोग सही नहीं है क्योंकि 'रंजित' शब्द से पहले 'रक्त' शब्द लग कर 'रक्तरंजित' शब्द बनता है। यहाँ 'रंजित' शब्द के बजाय अगर 'रंगी' शब्द का इस्तेमाल किया जाता तो वाक्य ज़्यादा बेहतर दिखाई देता जैसे कि..

'अमेरिकी धरती पर भारतीय राग-रंग से रंगी इस सुरीली साँझ की याद हम आज भी मन में संजोए हुए हैं।'


पेज नंबर 78 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'हवा के साथ जंगल से राख की धूल भी शहरों में बरसते रहे।'

यहाँ यह वाक्य सही नहीं बना क्योंकि राख भी स्वयं में धूल ही है। इस वाक्य को इस प्रकार होना चाहिए था कि..

'हवा के साथ जंगल की राख भी शहरों पर बरसती रही।'


इसके बाद पेज नंबर 79 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'कभी-कभी मानवीय असावधानी या बिजली लाइन की लीकेज भी आग लगने के कारण बन जाती है।'

यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि कोई भी चीज़ लीक तब होती है जब वह तरल अथवा गैसीय अवस्था में होती है और इलैक्ट्रिसिटी याने के बिजली इन दोनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आती। अतः यह वाक्य भी सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'कभी-कभी मानवीय असावधानी या बिजली का शॉर्ट सर्किट भी आग लगने का कारण बन जाता है।'


पेज नम्बर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जहाँ झरने, झील, हरे भरे चारागाह, छायादार मैदान के अलावा अनेक ऐतिहासिक और आधुनिक इमारतें और बाग बगीचे हैं'

कोई भी मैदान 'छायादार' कैसे हो सकता है जबकि छायादार वृक्ष हुआ करते हैं। छायादार से तात्पर्य छाया देने वाला होता है और कोई भी मैदान स्वयं में छाया देने वाला नहीं हो सकता। यहाँ 'छायादार मैदान' के बजाय हरा भरा मैदान होना चाहिए था।

पेज नंबर 90 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'छह पंखुड़ी वाले बड़े बाउल में इंद्रधनुषी भोजन- एक पंखुड़ी में लाल अनारदाने, दूसरी में सफेद पनीर के लच्छे............गुलाबी तरबूज़ के छोटे टुकड़े........बीच के गोलाकार भाग में पीला अनानास'

यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि पनीर तो स्वयं ही सफ़ेद होता है। इसलिए सिर्फ़ 'पनीर के लच्छे' लिखने से ही काम चल जाता। सफ़ेद शब्द की ज़रूरत ही नहीं थी। यही बात क्रमशः गुलाबी तरबूज़ और पीले अनानास के साथ भी लागू होती है। अतः: इस वाक्य में फ़लों के रंगों का जिक्र करना बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं था।

महात्मा गांधी से जुड़े चैप्टर को पढ़ने के दौरान पेज नंबर 99 की आखिरी पंक्ति में लिखा नज़र आया कि..
'ज़रूरी है कि हम उनके जीवन दर्शन को निकट से जाने, समझे, सीखे और उन्हें अंतरंग करें'

इस वाक्य में 'अंतरंग' की जगह 'आत्मसात' आएगा।

इसके बाद इसी संदर्भ से जुड़े पेज नम्बर 100 की पहली पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके जीवन दर्शन को ना उलझा कर उनसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन दर्शन को सुलझाएं।'

यहाँ 'उलझा कर' की जगह 'उलझ कर' आएगा।

पेज नंबर 106 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आगे बढ़ती हुई कहानी में बिली अपने परिवार में अपने देश और उसकी संस्कृति का नए सिरे से अविष्कार करती है।'

यहाँ ये बात गौर करने के लायक है कि अविष्कार हमेशा विज्ञानपरक चीजों का ही होता है जबकि यहाँ परिवार के बीच अपने देश की संस्कृति को फिर से ज़िंदा करने की बात हो रही है।

इसी तरह पेज नंबर 108 में लिखा दिखाई दिया कि..

'यहाँ पर पास एक और प्राकृतिक दर्शनीय स्थल है ट्वीन पीक यूरेका और नोए दो पहाड़ियों का बेजोड़ समागम है।'

यहाँ यह गौर करने वाली बात है समागम का अर्थ लोगों का किसी खास जगह एकत्र होना होता है जैसे कि किसी आश्रम में भक्तों का समागम। लेकिन उपरोक्त वाक्य में ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए यहाँ 'समागम' शब्द का प्रयोग सही नहीं है।

आमतौर पर देखा गया है कि बहुत से लेखक कुछ वस्तुओं इत्यादि में वाक्य के हिसाब से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के भेद को सही से व्यक्त नहीं कर पाते। ऐसे ही कुछ वाक्य इस किताब में भी नज़र आए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के आने वाले संस्करणों एवं आगामी किताबों में इस तरह की कमियों को दूर किया जाएगा।

यूं तो यह किताब मुझे लेखिका की तरफ से उपहार स्वरूप मिली मगर फिर भी अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 136 पृष्ठीय इस किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है बोधि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।