"नदी के किनारे उद्गम से सागर में समापन तक लगभग समानांतर रहते हैं, जब वक्री होकर अति विस्तृत होते हैं तो सरितप्रवाह अत्यधिक मद्धम हो जाता है और अति सन्निकट होने पर धारा तीव्र वेगवान होकर तटबंधों को तोड़कर विनाशकारी हो जाती है।पति-पत्नी भिन्न परवरिश, परिवेश एवं विचार के दो स्वतंत्र व्यक्ति होते हैं, इसलिए गृहस्थी को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए समानांतर चलना एवं एक-दूसरे के अस्तित्व का मान रखना उचित होता है।"विवाह की त्रितीय रात्रि अर्थात सुहागरात को पति प्रगल्भ द्वारा ऐसी बातों को सुनकर मैं घबरा रही थी कि कहीं उन्होंने विवाह किसी दबाव में तो नहीं किया है।मैं नववधु ख़ामोशी से उनकी बातों को सुन रही थी।
थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा,"अरे भई, कुछ तो बोलो,तबसे मैं ही बोले जा रहा हूँ।"
मैंने हिचकते हुए पूछा कि आप इस विवाह से प्रसन्न तो हैं न।
प्रगल्भ ने ठहाका लगाते हुए कहा,"अरे,तुम शायद मेरी बातों से डर गईं।मैं बस तुमसे कहना चाहता हूँ कि यह हमारी जिंदगी हमारे हाथों में है,अब हम हर बात पर सहमत तो हो नहीं सकते,इसलिए न तो गलतफहमी पालने की आवश्यकता है, न दुःखी होने की,न एक-दूसरे पर अपनी बात थोपने की,न ही बदलने की।हम मैच्योर हैं, सही-ग़लत का फ़ैसला करने में सक्षम हैं, फ़िर भी सामने वाला भी उसे सही माने, ज़रूरी तो नहीं औऱ अगर जान-बूझकर गलती करता है तो उसे जबरन रोका भी नहीं जा सकता।"
प्रगल्भ की बातों को समझकर प्रकृतस्थ होते हुए मैंने किंचित मुस्कुराकर कहा,"मैंने तो सुना था कि पति-पत्नी गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं।"
प्रगल्भ ने हँसते हुए कहा,"तब भी दोनों पहियों को बराबर होना होगा और वे भी समानांतर ही गतिमान होते हैं, तभी गाड़ी सही ढंग से चलती है।"
खैर, गृहस्थी की नदी अपने भिन्न-भिन्न पड़ावों से गुजरती रही,कभी मनःस्थितिवश किनारे संकरे हो गए तो कभी परिस्थितियोंवश विस्तृत।एक बेटी एवं एक बेटा हमारे मध्य सेतु थे।सास-ससुर,नन्द-देवर,भाई-बहन एवं उनके परिवार हमें साधने वाले वृक्ष थे।प्रगल्भ बहिर्मुखी व्यक्तित्व के अत्यंत मिलनसार पुरुष थे,व्यापार के सिलसिले में अक्सर दौरे पर जाते रहते थे, उनका विस्तृत परिचय क्षेत्र था,पार्टियों में सक्रिय रूप से सम्मिलित होते थे, वहीं मैं अपने दायरे में सिमटी एक थोड़ी गम्भीर किस्म की महिला थी,ऐसी पार्टियों में सहज नहीं महसूस करती थी।झूठ नहीं कहूँगी, शुरुआती दिनों में प्रगल्भ के ऐसे खुले व्यवहार से मैं अक्सर असुरक्षित महसूस करती थी क्योंकि मुझे लगता था कि वे कहीं मुझसे विमुख न हो जाएं।लेकिन बाद में मैं समझ गई थी कि वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने वालों में से नहीं हैं।
ईश्वर अक्सर दो भिन्न लोगों की ही जोड़ियाँ बनाता है, शायद इसीलिए कि वे एक-दूसरे को पज़ल की तरह परिपूर्ण कर सकें,लेकिन अपना प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयास में मतभेद होने लगते हैं।एक सामान्य पति-पत्नी की भांति हमारे भी विचार अक्सर ही नहीं मिलते थे लेकिन वे कभी विवाद का स्वरूप नहीं धारण करते थे।
एक बार एक पार्टी में प्रगल्भ के कॉलेज की एक मित्र से मुलाकात हुई,वह बेहद बिंदास,खूबसूरत एवं आधुनिक महिला थी,वह अविवाहित थी, उसने प्रगल्भ के साथ कॉलेज के अपने अफ़ेयर के बारे में बताया।मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया कि विवाह क्यों नहीं किया।उसने हँसते हुए बताया कि मैं लिवइन में रहना चाहती थी,जिससे मतभेद होने पर हम आसानी से अलग हो सकें लेकिन वह एक स्थाई रिश्ता चाहता था।मैंने प्रगल्भ से बाद में इस बारे में पूछा कि अपने इस वाकये के बारे में नहीं बताया तो उनका सीधा सा जबाब था कि विवाह पूर्व हम दोनों के अतीत का हमारे वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिये, जबसे हम जुड़े हैं तबसे एक-दूसरे के लिए प्रति हमारी जवाबदेही एवं विश्वसनीयता बनती है।
जीवन सरिता में अवरोध तो आते ही रहते हैं।एक खुशहाल जिंदगी हम व्यतीत कर रहे थे,मेधावी बच्चों के उज्वल भविष्य के प्रति हम निःशंक थे लेकिन किस्मत झंझावात न लाए ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है।मात्र पाँच दिनों के डेंगू ज्वर में लाख प्रयासों के बाद भी हमनें 16 वर्षीय बेटी को खो दिया।यह सदमा हम सभी के लिए असहनीय था,लेकिन मैं गहन अवसाद में डूब गई।व्यवसाय एवं स्वयं के साथ -साथ मुझे एवं बेटे को सम्हालना प्रगल्भ के लिए अत्यंत दुरूह था,किन्तु उन्होंने जिस साहस,धैर्य एवं समझदारी से उस कठिन समय को पूर्ण सफलता से व्यतीत किया, वह वाकई काबिलेतारीफ था।परिवार ने भी यथासंभव सहयोग दिया।
खैर, जीवन में तमाम पड़ाव आए,उन्हें सकुशल पार करते हुए हमनें 35 वर्ष साथ गुजार लिए।जब किसी के बिखरते परिवार को देखती हूँ तो अवश्य सोचती हूँ कि क्यों लोग समानांतर के सिद्धांत का थोड़ा भी पालन नहीं कर पाते।शायद मानव स्वभाव हमेशा प्रभुत्व संपन्न रहना चाहता है, रिश्ते चाहे जो भी हो औऱ यही प्रवृत्ति विखंडन का कारण बनती है।
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