टेढी पगडंडियाँ - 48 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टेढी पगडंडियाँ - 48

 

टेढी पगडंडियाँ 

 

48

 

सपने सपने होते हैं । न सपनों का न कोई धर्म होता है , न वर्ण , न स्थान । ये कब किसी के दिल में बस जांयें , कहना कठिन है । दिल में बसे तो फिर भी ठीक पर दिल से होते हुए दिमाग पर चढ बैठें तो दुनिया में कुछ भी हो सकता है और कहीं भी हो सकता है । सिर पर सवार ये सपने जब किसी की आँखों में बस जाते हैं तो दिन का चैन और रात की नींद उङा ले जाते हैं । बावरा हुआ मन दिन रात उन उङते सपनों के संग कुलाचें लगाता यहाँ से वहाँ भटका करता है । किरण ने बचपन में एक सपना सोते जागते देखा था कि वह पढ लिख गयी है और खुद पढने के बाद अपने गाँव की लङकियों को पढाने की जुगत में लगी है । इतना उसे समझ आ चुका था कि गाँव के अधिकांश लोगों की दीन हीन अवस्था का कारण उनका अशिक्षित होना ही है । अगर ये लोग किसी तरह शिक्षा का उजाला पा जायं तो उन्नति और विकास की राह सुझाई देने लगेगी ।
अब ये सपना साकार होने जा रहा था । खेत के सिरे पर कालेज के निर्माण का काम युद्ध स्तर पर चलने लगा था । गुरनैब स्वयं सिर पर खङा होकर मिस्त्रियों को हिदायतें देता । अपनी निगरानी में एक एक ईंट लगवा रहा था । कभी कभी अवतार सिंह भी उधर आ जाते और अपने सुझाव दे जाते । दूसरे तीसरे दिन किरण भी जा आती । ज्यादातर मजदूर इसी गाँव के थे तो वे किरण को अदब से चाची ही कहते । किरण ने टाइलें , स्विच , प्लाई सनमाइका सब अपनी पसंद से खरीदे । जुलाई आते आते कालेज में कक्षाओं का छात्रों के बैठने का बंदोबस्त हो गया ।
अब विज्ञापनों का दौर शुरु हुआ । सभी राष्ट्रीय और स्थानीय समचारपत्रों में दाखिले के इश्तेहार दिये गये । आसपास के गाँवों में बैनर टांग दिये गए और हर गाँव की दीवारों पर सूचनाएँ लिख दी गयी । दसवीं का परिणाम आने के बाद पंद्रह दिन फार्म भरने के लिए दिये गये थे । जिस दिन दसवीं का परिणाम आया उसी दिन कार्यालय में दाखिला लेने के लिए लंबी लाइनें लग गयी । दो क्लर्क फार्म देने केलिए बैठाए गये थे पर उन दोनों से भीङ काबू में नहीं आ रही थी तो तीन आदमी और बुलाने पङे थे । लगातार पाँच लाइनों में लग कर लोग फार्म ले रहे थे । किसी मुफ्त के लंगर में भी शायद इतनी भीङ न होती हो जितनी आज यहाँ थी । पहला फार्म चाची ने लिया बी ए के पहले साल में दाखिले के लिए । मिनटों में पचास गाँवों में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गयी । जो भी सुनता , मुँह में ऊँगली दबा लेता । पूरे गाँव में लोग मुँह जोङ जोङ कर चर्चा करने लगे –
वाह जी बूढे तोते भी पढने जाएंगे । चाची पढेगी अब कालेज में ।
दूसरा कहता – क्यों , चाची क्यों नहीं पढ सकती । अभी उसकी उम्र ही क्या है । मुश्किल से बाईस के आसपास की ही तो होगी । जब चाचा इसे लेके आया था तो सोलह सत्रह साल की ही तो थी । इस उम्र की ज्यादातर लङकियाँ गाँव में भी कुंआरी घूम रही है । शहर में तो तीस साल तक भी लङकियाँ कालेज जाती रहती हैं ।
उम्र की तूने भली चलाई । एक दिन मैंने अखबार में पढा था कि एक पैंसठ साल की दादी ने अपनी पोती के साथ दसवीं का इम्तिहान दिया और फस्ट आकर पास भी हो गयी । माँ कसम झूठ नहीं कह रहा मैं । सच्ची में खबर छपी थी अखबार में फोटू समेत । मैंने पढी थी खबर अपने जगन की सोडे वाली दुकान पे ।
और वो तूने फिल्म नी सुनी सांड की आँख जिसमें पोती के साथ निशाना सिखाने के लिए लेके जाती जाती उसकी दादी पक्की निशानेबाज बन गी थी । किसी हरयाणे की बूढी औरत की असल जिंदगी की कहानी पे बनी है यो फिलम ।
पर सच में सौ बातों की एक बात । बङे जीवट वाली है ये चाची । वरना कोई और होती तो उसका पता नहीं क्या हाल होता । - वह ठंडी सांस लेकर चुप हो जाता ।
बाकी गाँव वाले उसकी हाँ में हाँ मिलाते रहते ।
लङकियाँ अलग चाची को अपने साथ पढती हुई देखने को उत्सुक थी । चाची की लव स्टोरी तो पिछले चार पाँच साल से पूरे गाँव में लोग चटकारे लेकर बयान करते रहते थे पर आज तक किसी ने उसे देखा न था । घर से वह निकलती न थी और अवतार सिंह के डर से उसकी कोठी में जाने की हिम्मत किसी में न थी । अब जब फार्म भरा गया तो यह तो निश्चित ही था कि वह कक्षाओं में हाजरी लगाने भी अवश्य आएगी । तो सब लङकियाँ दिन गिन रही थी कब वह दिन आएगा जब वे अपने गाँव में अपने कालेज में पढने जाएंगी । वहाँ एक किरण नाम की लङकी या कहें औरत तो वह भी पढने वाली लङकियों में शामिल होगी । वे सब उसे नजदीक से देख सकेंगी । उसके साथ बातें कर सकेंगी । हो सके तो किसी दिन उसके साथ बैंच पर भी बैठ कर देखेंगी । लङकियाँ आपस में बातें करती और खुद ही खिल खिल जाती ।
किसी किसी को उससे ईर्ष्या भी होती – अरे यह तो भापे ने सिर पर चढा रखी है । वरना उस चमारी की क्या औकात थी कालेज जाने की । एक दो बच्चे हो जाने के बाद ये चोंचले किसे पुगते हैं ।
कोई एक बात पलट देती – सुना है , इंतहा की खूबसूरत है ।
सो तो है , तभी तो चाचा एक नजर देखते ही बस अड्डे से उठाकर कार में धर लाया था ।
बेचारा चाचा , वह तो फालतू में ही मरवा दिया किसी ने । कैसा तो छैला जवान था । एकदम कसा हुआ बदन । सुदर्शन व्यक्तित्व । आँख उसके बदन पर टिकती ही न थी ।
और चर्चा किरण से मुङ कर निरंजन की ओर चल पङती । उसके मजबूत शरीर की । उसके कद काठ की , उसकी दिलेरी की , उसके साहस और हिम्मत की । फिर वे गुरनैब की बातें छेङ बैठते । उसके मिलनसार स्वभाव की , उसकी गुरुघर में आस्था की , उसके रुतबे और विनम्रता की । गाँव के लोगों की यादों में निरंजन और उसकी यादों से जुङे सैंकङों किस्से थे जिन्हें वह अक्सर दोहराते रहते ।

 

बाकी कहानी अगली कङी में ...