TEDHI PAGDANDIYAN - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

टेढी पगडंडियाँ - 2

टेढी पगडंडियाँ

2

मंगर ने सुना तो मसखरी से पूछ बैठा , ये मेरी ही है न । किसी और की तो नहीं । कहने को तो यह मजाक था पर उसकी शक्ल बता रही थी कि उसके मन में शक का कीङा कुलबुला रहा है । अगले दिन सुबह दिन निकलते ही वह कुलीनों की बस्ती के दो चक्कर काट आया कि कहीं बच्ची से मिलती जुलती शक्ल वाला कोई आदमी दीख जाये तो उसके सीने में अपना चाकू उतार दे पर उसके दोनों चक्कर बेकार गये । कहीं ऐसा कोई आदमी था ही नहीं तो दीखता कहाँ से । उस पर खुदा की मार कि जिन घरों में भानी काम करती थी , उन घरों के मरद तो क्या , उन घरों की औरतों पर भी यह लङकी और उसके नैन नक्श न गये थे । घर में माँ बाप , सीरीं , बीरा कोई भी इतना गोरा चिट्टा , इतने तीखे नैननक्श वाला न था । सबका रंग था गहरा तांबिया और मोटे मोटे नैन नक्श । यह बच्ची थी निरा बरफ का टुकङा । एकदम गुलगुली सी । यह तो कोई सरापी हुई अप्सरा लग रही थी जो कहीं से राह भटककर इस गरीब दंपति की गोद में आ गयी थी ।
चंद मिनटों में पूरी बस्ती में इस बच्ची के रूप रंग की चर्चा होने लगी । जो देखता सुनता , दाँतों तले ऊँगली दबा लेता । ईर्ष्या से दबी मुस्कुराहट के साथ मंगर को बधाई देता । मंगर की समझ में ही न आता कि सामने वाले की बात को सराहना के तौर पर ले , जलन के रूप में या मजाक के तौर पर । उसकी बात की क्या प्रतिक्रिया दे इसलिए चुपचाप हाथ जोङ लेता । अङोस पङोस के लोग बच्ची को देखने आते । रुपया सगुण का पकङाते । थोङी देर बैठकर बातें करते । चाय पीते । फिर अपने घर चले जाते । घर जाकर भी काफी देर तक इस बच्ची के रूप सौंदर्य की बातें चलती रहती । भानी चारपायी पर बैठी हुई इस बच्ची को देख देख मगन हुई रहती । अंधेरे घर में उजाले की तरह आई थी यह बच्ची । इसलिए इसका नाम भानी ने किरण रख दिया । मंगर जैसे जैसे बच्ची को देख रहा था , उसे उससे मोह होता जा रहा था ।
दस दिन बीते । भानी को फिर से काम पर जाना शुरु करना था । उसका मन बच्ची को घर पर छोङने का न करता पर तीन चार जीवों की रोटी का सवाल था इसलिए काम पर तो जाना ही था । तो काम पर निकलने से पहले पाँच साल की सीरीं को सैंकङों हिदायतें देकर तब वह काम के लिए जाती कि इस किरणा का अच्छे से ध्यान रखना । अकेले छोङ कर कहीं खेलने न चली जाना । थोङी थोङी देर में दूध मुँह में टपकाती रहना आदि आदि । भागती दौङती हुई वह काम करने जाती । जितनी जल्दी निपटा सकती , उतनी जल्दी काम निपटा कर घर की ओर दौङती ।
किरणा के लिए नन्हीं सीरीं माँ बन गयी थी । वह अपने छोटे छोटे हाथों से अंगारों पर रखी दूध की पतीली उठाती और कटोरी में डालकर चम्मच से बूँद बूँद दूध पिलाती रहती । उसके रोने पर थाली कटोरी बजाकर चुप कराने की कोशिश करती । किरणा ने भी हालात से समझौता करके बङी बहन के पास रहना सीख लिया था । वह चुपचाप बिछौने पर लेटी अपने हाथ पैर चला चलाकर खेलती रहती ।
समय अपनी रफ्तार से चलता गया । किरण ने घुटनों के बल रुमकना सीखा । फिर बहन की ऊंगली पकङ पैरों चलने का पङाव पार कर गयी । अब वह अपने बङे बहन भाइयों की उँगली पकङकर उनके साथ सङक पर आ जाती । सब बच्चे धूल मिट्टी में लोटपोट हो कर खेलने में मगन रहते । वह किसी गाछ की छाया में बैठी टुकुर टुकुर उन्हें देखती रहती । अगर कोई जबरदस्ती उसे उठा कर खेलने ले भी जाता तो दो मिनट बाद वहीं पेङ के नीचे बैठी हुई मिलती । कभी बिरखों के पत्ते बटोर रही होती । कभी जमीन पर पत्ते बिछा रही होती । कभी नीम की निंबोलियाँ जमाकर रही होती । पाँव या हाथ पर थोङी मिट्टी भी उसे बरदाशत न होती । जरा सी धूल किसी अंग में लगी नहीं कि उसका रोना शुरु हो जाता और तब तक जारी रहता , जब तक उसके हाथ पैर धुलवा नहीं दिये जाते । आस पङोस के लोग देखते तो भानी का मजाक उङाते – “ तेरी ये बेटी तो निरी बाहमणी है भानी । उन बङी बस्ती वाले बाहमणों पर जैसे ही हमारी छाया पङ जाती है , नहाने के लिए दौङते हैं । बिल्कुल वैसे ही तेरी बेटी को मिट्टी छू भर जाए तो इसे नहाना है “ । भानी ये सब बातें सुनती तो सोच में पङ जाती । कैसे गुजर बसर करेगी ये लङकी इस दुनिया में । अभी दो साल की नहीं हुई है , नासमझ है तो ये हाल है । कुछ साल बाद बङी हो जाएगी तो न जाने क्या करेगी ।
वह मन ही मन दीवार में कील के सहारे टंगे बाबा रामदेवसा जाहरपीर के फोटू के सामने ढोक देती – “ हे बाबा रामदेव सा , सब ठीक रखना । इस लङकी की हाथ देके रच्छा करना “ ।
मंगर उसे बेचैन देखकर हौंसला देता –
“ तू बेकार की चिंता करे है सीरीं की माँ । किरण अभी छोटी बच्ची है । इसीलिए बचपना दिखाती है । यहाँ टोले के लोगों के बीच पलेगी । इन लोगों के रंगढंग देखती हुई बङी होगी तो इन्हीं के जैसी ही बनेगी न । अलग कैसे हो जा गी । तू चिंता मति करे । मिट्टी तो भगवान के घर से ही हम लोगों के नसीब में लिखाकर लाते हैं हम लोग । जब से होश सम्हालते हैं , मिट्टी से मिट्टी हुए रहते हैं । सुबह से लेकर शाम तक धूल मिट्टी फांकते हैं तब जाकर एक वक्त रोटी मिल पाती है । कमीन के घर जन्म लिया है तो बङे लोगों का कूङा तो ढोना ही पङेगा । इसे भी करना होगा यह सब वरना मेरे जैसे गरीब के घर में जन्म क्यों लेती । किसी बङे घर में न पैदा हो जाती “ ।
कहने को तो कह देता मंगर पर जबान और आँखें एक दूसरे का साथ न देती । जानता है , झूठ बोल रहा है । घर में दो बच्चे और भी हैं जो पूरा दिन धूल मिट्टी में सने रहते हैं । खूब खेलते कूदते हैं । रूखा सूखा खाकर मगन रहते हैं पर ये लङकी किसी अलग ही जगत से आयी है । इस लङकी को देखकर वह मन ही मन परेशान हो जाता । सच ही तो कहती है भानी । यह लङकी तो सबसे अलग है । जैसे इस टोले की तो है ही नहीं और भानी तो पहले से ही किरण के भविष्य को लेकर परेशान रहती थी ।
किरणा जिस साल चार साल की हुई , उसी साल सरकार ने बाल विकास कार्यक्रम के अंतर्गत आँगनवाङी केन्द्र और प्राइमरी स्कूल गाँव में खोले । मास्टर और आशा वर्कर घर घर घूम कर तीन से दस साल के बच्चों के नाम अपनी बही में लिख रहे थे । भानी के तीनों बच्चों के नाम भी लिख लिये गये । अब गली के दूसरे बच्चों के साथ ये बच्चे पढने के लिए स्कूल जाने लगे । स्कूल से वर्दी , किताबें - कापियाँ मिली और साथ ही हर रोज दोपहर का खाना भी मिलने लगा तो बच्चे नियमित स्कूल जाने लगे । सबसे बङी बात यह हुई , अब भानी निश्चिंत होकर अपने काम पर जा सकती थी क्योंकि तीनों बच्चे दो बजे तक स्कूल में संभले रहते । जब तक बच्चे स्कूल से घर आते , भानी भी काम निपटाकर घर आ चुकी होती ।

शेष कहानी अगली कङी में

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