टेढी पगडंडियाँ - 4 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

टेढी पगडंडियाँ - 4

4

सारी सोच को वहीं छोङ वह चौंके में गयी और गुरजप के लिए एक थाली में दही , मेथी और रोटी डाली , साथ ही अपनी थाली में भी एक रोटी रख लाई । रोटी खाते खाते गुरजप को याद आया - मम्मी भुट्टे । मैंने भुट्टे खाने हैं । तूने कहा था न , खेत से आती हुई मेरे लिए भुट्टे लाएगी । भुट्टे कहाँ रख दिये ।
उफ ये बाईक पर आने के चक्कर में भुट्टे तोङना तो भूल ही गयी । ये गुरनैब भी न कुछ कहाँ याद रहने देता है । सामने होता है तो उसी की सुननी होती है ।
पुतर भुट्टे अभी कच्चे और छोटे थे । कल थोङे बङे हो जाएंगे तो बसंत से कह कर तुङवा दूँगी ।
बसंत का नाम सुनते ही गुरजप चहक उठा – कल बसंत भइया के साथ मैं भी खेत जाऊँगा । बसंत गोड्डी करेगा । मैं क्यारियों में पानी लगा दूँगा । फिर हम अमरूद और जामुन तोङेंगे । वहीं छल्लियाँ भून कर खाएंगे । ठीक है न मम्मी ।
ठीक है , चले जाना ।
खाना खाकर उसने दोनों थालियाँ नलके के पास रखी । अभी माँजने का उसका मन नहीं हुआ । थालियाँ वहीं छोङकर वह कमरे में आ गयी । गुरजप बाहर बच्चों के साथ खेलने भाग गया था । वह पलंग पर लेट गयी । आँखें नींद से बोझिल हो रही थी । उसने आँखें बंद करली और सोने की कोशिश करने लगी । पर आँखें बंद करते ही बीङतालाब में बिताये दिन फिर से दिमाग का दरवाजा खटखटाने लगे । माँ , बापू , भाई बहन की आवाजें उसे बुलाने लगी । उसने इन आवाजों को अनसुना करने की बहुत कोशिश की पर ये आवाजें उसके अवचेतन पर हावी होती चली गयी ।
एक सुनसान सा इलाका है । जहाँ नदी बह रही है । किरण नदी के किनारे किनारे चली जा रही है । अकेली । अपनेआप में गुम । नदी शायद कोई बरसाती पहाङी नदी है । लहरें बार बार किनारे की ओर आती हैं और लौट जाती हैं । जब लौटती हैं तो किनारे की रेत और मिट्टी को भी अपने साथ बहाकर ले जाती है । किरण अब चलते चलते थक कर रुक गयी है औऱ नदी के तट पर खङी नदी के पानी की लीला देखने में मस्त है । पानी की कोई कोई लहरउछलती हुई आती है और किरण को घुटनों तक भिगो जाती है । किरण इस सब से बिल्कुल बेपरवाह चुपचाप खङी है । बस पानी के स्पर्श से एक सिहरण तन मन पर फैल रही है कि एक बङी सी लहर अचानक पीछे से आती है और इस बार रेत के साथ किरण को भी अपने साथ बहाकर ले जाती है । किरण लहरों के खिलाफ हाथ पैर मार रही है पैर टिकाने की कोशिश कर रही है पर पानी बेकाबू हो गया है । किनारे से थोङी दूर कुछ बच्चे पेङ की टहनियों का बैट बनाकर उससे क्रिकेट खेल रहे है । बच्चे उसकी पुकार सुन रहे हैं । वे टहनियाँ वही पटक कर दौङते हुए नदी के पास आ गये हैं । किनारे खङे होकर असहाय उसे पानी में बहे जाते देख रहे हैं । वे चिल्ला रहे हैं पर उनका चिल्लाना उस वीरान सुनसान जगह में कोई नहीं सुन रहा । किरण का दम फूलने लगा है । हाथ पैर शिथिल हो गये है । उसके गले से घुटी सी चीख निकलती है जिसकी आवाज सिर्फ वही सुन पा रही है । उसका डूब जाना तय है । मरना तय जानकर जैसे ही वह पूरी जान लगाकर पुकारना चाहती है कि उसकी नींद खुल गयी । वह घबराकर उठ बैठी । न जाने कितनी देर तक बिस्तर पर बैठी अपनी साँस का आना जाना महसूस करती रही । साँसे जब थोङी सामान्य हुई तो उसने चारों ओर नजर घुमाकर देखा ,आसपास कहीं पानी नहीं था । वह अपनी कोठी में सुरक्षित लेटी थी । सब कुछ सामान्य और पहले जैसा था । छत से लटका पंखा अपनी रफ्तार से घूम रहा था । सामने बङा सा टी वी रखा था । साथ वाले पलंग पर नन्हा गुरजप निश्चिंत होकर आधा मुँह खोले सो रहा था । सोते में उसके गुलाबी होठ आधे खुल गये थे । खेस से आधा अंदर आधा बाहर निकला हुआ वह इस समय बङा मासूम लग रहा था । उसने खेस ठीक करके गुरजप को सीधा किया और सपने के बारे में सोचने लगी । क्या अर्थ हुआ इस सपने का । कहाँ गयी थी वह नदी किनारे घूमने । कौन थे वे बच्चे । मजे की बात यह है कि यहाँ स गाँव से कोसों दूर तक कोई नदी नहीं है फिर ये सपना उसे क्यों आया । माथे पर बह आए पसीने को अपने दुपट्टे से पोंछकर वह उठी और रसोई से गिलास उठा लाई । फ्रिज से बोतल निकालकर दो गिलास पानी पिया तो मन को शांति मिली ।. वह धीरे धीरे चलती पलंग पर आ गयी । उसने दोबारा सोने की कोशिश में आँखें बंद कर ली ।
उसे याद आया , जब वह मुश्किल से आठ साल की रही होगी तो एक दिन वह माँ के साथ उसके मालिक के घर गयी थी । माँ तो गाय का गोठ साफ करने में जुट गयी और वह घर की दहलीज पर बैठी घर के सामने वाली खाली जमीन में खेल रहे बच्चों के खेल देखने लगी । बच्चे पुराने कपङों की खिद्दो (कपङे की बनी गेंद जिससे ग्रामीण बच्चे देसी क्रिकेट खेलते हैं ) और शहतूत की छट्टियाँ लेकर क्रिकेट खेल रहे थे । थोङी देर मैच देखकर वह ऊब गयी तो पास ही उगे अमरूद के पेङ पर चढ गयी । पेङ की एक कोमल सी शाखा पर एक पका हुआ अमरुद दिखा तो वह मोटे तने से चलते हुए उस पतली टहनी पर पहुँच गयी । अभी हाथ आगे बढाया ही था कि टहनी बुरी तरह हिल गयी और झुक गयी । डर के मारे किरण घबरा गयी कि टहनी पर उसकी पकङ ढीली पङ गयी । अचानक मंगर किसी काम से उधर आ निकला । बेटी को यूँ गिरते देखकर उसने दौङकर किरण को अपनी गोद में उठा लिया । साथ ही वह अमरूद भी तोङ कर ला दिया । अंदर से एकदम लाल और बङा मीठा था वह अमरूद । वह देर तक स्वाद ले लेकर आराम से उस अमरूद को खाती रही थी । उस जैसा अमरूद उसने उस दिन के बाद कभी नहीं चखा । उसमें शायद उसके बाप की चिंता , प्यार और परवाह शामिल थी । इसलिए वह दुनिया का सबसे मीठा फल था । जैसे जीभ पर अब भी उसका स्वाद घुला हुआ है । उसी अमरूद के स्वाद को अपने मन में महसूस करती हुई वह नींद में डूब गयी तो सुबह ही उसकी आँख खुली । वह भी तब जब बसंत सुबह दूध देने आया और दरवाजा बंद देखकर उसे पुकार रहा था । आँखें मलते हुए उसने कुंडा खोला और दूध की कैन पकङ ली ।
भाई आज दो चार मक्की की छल्लियाँ तोङ कर दे जाना । गुरजप पीछे पङा है । उसे भुट्टे खाने हैं ।
जी बीबी जी ।

बाकी कहानी अगली कङी में