टेढी पगडंडियाँ - 5 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टेढी पगडंडियाँ - 5

टेढी पगडंडियाँ - 5

बसंत खेत में मुङ गया तो वह मुँह धोने नल पर चली गयी । हाथ मुँह धोकर वह रसोई में गयी । कैन का दूध पतीले में उलटाकर उसने गैस पर चढा दिया । और परात खींच कर आटा छानने लगी । आटा छानते हुए वह फिर से सोचने लगी – अगर वह इस समय अपने घर पर होती तो माँ इस समय नमक डली बेसनी रोटियाँ बना रही होती और वह लस्सी के साथ गरम गरम रोटी खा रही होती । माँ मनुहार कर करके रोटियाँ खिलाती । उसका पेट भर जाता पर मन कभी नहीं भरता था । बीरा अक्सर उसका मजाक उङाता – बस कर अब वरना तुझे उठाने के लिए क्रेन मंगवानी पङेगी । और वह हँस कर कहती – हाँ हाँ मँगवा ही ले तू । ये तवे पर पङी रोटी तो मैं खाके ही उठूँगी । माँ उसे लाड से देखती और बीरे को डाँट देती – क्यों परेशान कर रहा है बेचारी को । दो कौर तैन से खा लेने दे न । कुछ महीनों में ससुराल चली जाएगी तो अकेले पूरे घर में टापते फिरना । फिर सारी रोटियाँ तेरी । चाहे खाना , चाहे बाँध लेना ।
बीरा मुँह बिसुरता हुआ बाहर निकल जाता और वह आराम से बैठी रोटी टूँगती रहती ।

बीरे की याद आते ही किरण की आँखें नम हो गयी । बीरा जैसा भी था उसका भाई था । उसका बङा भाई । बेशक उनका फर्क ढाई साल का ही था पर था वह बङा भाई और व्यवहार भी वह बङे भाई की तरह ही करता । पेङ की सबसे ऊँची टहनियों पर चढकर उसके लिए ताजा ताजा पक्के फल तोङ कर लाता और लाकर उसके कमीज के पल्ले में ढेर कर देता । दूर कहीं खेल रहा होता पर उसकी एक आँख घर में बैठी किरण पर होती । दिन में बीस बार वे लङते फिर दो मिनट बाद इकट्ठे बैठे खीं खीं कर रहे होते ।
बीरा उसका कितना ख्याल रखता था । उसकी छोटी छोटी खुशियों को पूरा करने के लिए पागल हुआ रहता । रात को ठीहे से लौटता तो उसके लिए परमेसुर पंडित से रबङी का दोना खरीद कर लाना नहीं भूलता । वह लाख कहे – भाई वहाँ कोने में रख दो , थोङी देर में खा लूँगी । पर नहीं । जब तक अपने सामने बैठाकर खिला न लेता, उसे चैन न पङती । उनके ठीहे के सामने एक दरजी की दुकान थी ,शाम चाचा की । उससे रंग बिरंगी कतरनें माँग लाता कि वह अपनी गुङिया के लिए सजीली सुंदर सुंदर पोशाकें बना सके । खुद स्कूल छोङ चुका था पर जब वह स्कूल से लौटती तो घंटी बजने से पहले ही उसे लेने स्कूल पहुँच जाता । वह स्कूल के गेट से बाहर निकलती तो आगे बढकर उसका बस्ता और पटिया खुद उठा लेता और वह किसी राजकुमारी की तरह धीरे धीरे उसके पीछे चलती रहती ।
एक बार गेट से बाहर आई तो बीरा कहीं दिखाई नहीं दिया । उसने इधर उधर हर दिशा में देखा । बीरा कहीं नहीं मिला । साथ की लङकियों ने बथेरा कहा कि चल हम तुझे घर छोङ देंगे पर वह किसी कीमत पर वहाँ से हिलने को तैयार नहीं हुई । बुरी तरह से घबरा गयी थी वह । आँखें आँसुओं से भर गयी थी । ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि भाई लेने न पहुँचा हो । हमेशा वक्त से पहले पहुँचता था तो आज क्या हुआ । उसने मन को तसल्ली देने की कोशिश की – अभी तो स्कूल से बच्चे निकल ही रहे हैं । और जब बीरा आता दिखाई दिया तो वह भाग कर उसके गले लग गयी थी । भागते हुए आने से बीरे की साँस फूली हुई थी ।
कहाँ रह गया था तू । पता है मेरा बुरा हाल हो गया था घबराहट के मारे ।
जानता हूँ , तभी तो भागता हुआ आया हूँ । आज एक बाबू अपने जूते ठीक करवाने ठीहे पर आया हुआ था । हाथ में पकङा हुआ जूता बनाए बिना कैसे आता । तू ही बता ।
और वह उसका बस्ता उठाकर आगे आगे चल दिया था । वह भी सारे शिकवे शिकायतें भुलाकर अपने आँसू पौंछती हुई उसके पीछे पीछे चल पङी थी । धीरे धीरे उसने कब कक्षा में हुई छोटी से छोटी बात भाई को बतानी शुरु कर दी , उसे खुद पता नहीं चला । बस वे दोनों हर बात पर खिलखिलाकर हँसते हुए चलते रहे ।
जब वह छोटी थी , खेलने के लिए जाती और हाथ पैर में धूलमिट्टी लगते ही रोने लगती । तो बीरा कहीं भी खेल रहा होता , उसकी रोने की आवाज सुनते ही दौङा चला आता । उसे गोद में उठा लेता । कंधे से लगाकर चुप कराता । सङक के मोङ पर लगे सरकारी नल पर ले जाकर हाथ मुँह वही धुलाता । किसी ने उसे कुछ कहा नहीं कि लङने पर आमादा हो जाता । खुद उसे कोई चार बात सुना जाए तो चुप रह जाता पर बहन के लिए आधी बात भी उसकी बर्दाशत से बाहर थी ।
इसके साथ ही उसे याद आया गुगाल का मेला । यह मेला भादों के महीने में माङी पर भरा करता । एक बार वह रात में बिस्तर पर लेटे लेटे सीरीं से बातें कर रही थी । बातों बातों में उसने मेला देखने की इच्छा जताई थी । बीरा वहीं पास ही चारपाई पर मुँह सिर ढके सो रहा था । अगले दिन शाम को पाँच बजे वह ठीहे से लौट आया । घर भर को उसके इस तरह असमय लौटने से हैरानी हुई थी । उसने आगे हो पूछ लिया था – भाई तेरी तबीयत ठीक है न ।
क्यों मेरी तबीयत को क्या हुआ है अच्छा भला तो हूँ ।
नहीं तू रात को आठ बजे से पहले नहीं आता न, इसलिए पूछ रही थी ।
चलो जल्दी से तैयार हो जाओ दोनों , मेला देखना है कि नहीं । तुम लोगों के लिए सारा काम छोङ कर आया हूँ और ये रानी साहिबा वकील की तरह सवाल पे सवाल किये जा रही है ।
भाई इसका मतलब , तू कल जाग रहा था और हमारी बातें सुन रहा था । - किरण बीरे के गले से लटक ही गयी थी ।
अच्छा अच्छा , अब बाकी कचहरी लौट कर लगा लेना । जल्दी चलो वरना सारा मेला नहीं देख सकोगी ।
और वे दोनों बहनें बीरे के साथ मेला देखने गयी । तीनों ने माङी पर प्रशाद चढाया । झूले लिए । दोनों हाथ भर चूङियाँ खरीदी । चाट और गोलगप्पे खाये ।
उसी मेले में दो लङके घूम रहे थे । अपनी मस्ती में ठहाके लगाते बातें करते वे बार बार कभी उनसे आगे हो जाते , कभी पीछे । कभी बिल्कुल साथ लग कर सटकर चलने लगते । कुछ देर तो यह सब चलता रहा फिर अचानक बीरे ने सटने की कोशिश करते उनमें से एक लङके का कालर पकङ लिया । जब तक वह कुछ समझ पाता , बीरे ने उसे चार पाँच झांपङ लगा दिये थे । वह तो सीरीं बीरे को हाथ पकङ कर वहाँ से दूर ले गयी , वरना लोगों की भीङ लग जाती तो हमारा निकलना मुश्किल हो जाता । और अगर कहीं पुलिस आ जाती तो अलग लफङा हो जाता । हम दोनों बहनों को घबराहट हो रही थी पर बीरा बिल्कुल सामान्य दिख रहा था ।
और क्या खाओगी ।
कुछ नहीं । अब घर जाना है ।
तुम क्यों घबरा रही हो । मैं हूँ न । तुम लोग मेले का मजा लो ।
पर हम दोनों बहने वहाँ अब एक पल भी रुकना नहीं चाहती थी । बीरा हमारी हालत समझ गया और हम घर लौट आये ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...