टेढी पगडंडियाँ - 11 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टेढी पगडंडियाँ - 11

टेढी पगडंडियाँ

11

बठिंडा से दस किलोमीटर की दूरी पर छोटा सा गाँव है सुखानंद । सरहंद नहर के साथ लगता गाँव । नहर का पानी लगने से धरती बेहद उपजाऊ हो गयी थी । चारो तरफ हरियाली ही हरियाली । दूर दूर तक फैले खेत । खेतों में भरपूर फसल होती । गाँव में करीब सौ घर होंगे । कुछ कच्चे कुछ पक्के । उन्हीं घरों में एक घर था बङे सरदारों का । बङे सरदार यानी अवतार सिंह का घर । आधे से ज्यादा गाँव की जमीन उनकी जायदाद थी । दस हलों की जोत । गाँव में सबसे बङी और शानदार उनकी हवेली थी । पूरे गाँव में क्या , शहर में भी ऐसी हवेली किसी की न थी । हवेली में कितने कमरे थे , इसके बारे में तरह तरह की बातें गाँव भर में चर्चा में थी क्योंकि किसी ने भीतर जाकर देखा ही न था । अवतार सिंह की बीबी यानी बङी सरदारनी चन्न कौर कानों में चूङी जितनी बङी बङी बालियाँ , गले में मोटी सी चेन , उस चेन में लटकता सुंदर सा पैंडल , दोनों हाथों में बारह बारह चूङियाँ पहने सारा दिन नौकरों चाकरों को काम करने की हिदायत देती पंखी हाथ में लिए चारपायी पर बैठी रहती । काम करने के लिए ढेरों नौकर थे और बेगार काटने के लिए सारा गाँव । जिसे सरदारनी काम बता देती , अपने आप को खुशनसीब समझता । कितने लोग दोनों टाईम हवेली में खाना खाते हैं , कोई नहीं जानता , न कोई गिनने की सोचता । रोटी के टाईम रोटी और चाय के टाईम चाय हर आने जाने वाले को मिलनी ही हुई । लोग रोटी खाकर सरदारनी और उसके बच्चों को सौ सौ आसीसें देते । सरदार साहब के मुँह से निकली हर बात गाँव के लोगों के लिए पत्थर की लकीर होती ।
हवेली से कोई आधा एक किलोमीटर दूर एक बङा सा घेर था जिसमें गाय भैंसें बाँधी जाती । छोटी बङी कुल मिलाकर चार गाय और पाँच भैंसे बंधी थी । दो कमरों में तूङी , भूसा रखा जाता । फसल कटने पर अनाज भी इसी घेर में बने कमरों में सहेजा जाता था । इसी घेर में एक कोठरी में रहते थे बसंत और देसराज जो इन पशुओं की देखभाल करते । दूध निकालकर सुबह शाम हवेली में पहुँचाते । हवेली में दूध , दही , लस्सी , मक्खन कभी खत्म ही न होता था ।
और इन्हीं अवतार सिंह का छोटा भाई था निरंजन । बेहद लाडला और कुछ हद तक बिगङा हुआ । लंबा ऊँचा कद , भरवां कसरती शरीर , गोरा रंग , बंधी दाङी , सफेद कुरता पजामा , सजीली पगङी , और तफरीह करने के लिए तरह तरह की कई गाङियाँ । निरंजन से दो साल बङा था गुरनैब , अवतार सिंह का इकलौता बेटा , निरंजन का लाडला भतीजा । दूर से देखें तो दोनों चाचा भतीजे में अंतर कर पाना नामुमकिन था । दोनों एक दूसरे की कार्बनकापी लगते । एक जैसा रूप , एक जैसा कदकाठ । एक जैसा रंग । एक जैसे शौक । एक जैसी चाल । फर्क सिर्फ इतना कि निरंजन के सामने वाले दो दाँत चौङे थे जबकि गुरनैब के मोतियों की लङी ।
ये चाचा भतीजा थे खाने पीने के बेहद शौकीन । शहर के मशहूर होटल और ढाबों में उनकी मेज रिजर्व रहती । सुबह सुबह लांगड्राइव पर निकले दोनों कपूर के यहाँ से आमलेट का नाश्ता करके गाँव वापिस जा ही रहे थे कि अचानक गाङी बसस्टैंड की ओर मोङ ली । कार को भीतर आते देखते ही बसस्टैंड के रैस्टोरैंट का मालिक सारा काम और गाहक वहीं छोङ दौङकर उनके पास आया – हुक्म करो मालको , क्या खाना है । अभी बनवा देता हूँ ।
निरंजन ने हाथ के संकेत से उसे चुप कराया - तू ठीक कहता है छोटे । रब ने फुरसत में बैठके एक एक अंग घङा है । मन करता है , छूकर देख ही लिया जाय । तेरा क्या ख्याल है ।
हमेशा नींवीं डाल कर चलनेवाली और हमेशा चुप रहनेवाली किरण को उस दिन न जाने क्या सूझी , झट से बोल पङी – हाथ तो लगाकर देख ।
गुरनैब ने फीएट बसस्टैंड से बाहर की ओर मोङ ली थी कि निरंजन ने अचानक दरवाजा खोला । हाथ बढाकर किरण को चलती कार में खींच लिया । कार हवा से बातें करती हुई भागी । हनुमान चौक , तिनकोनी चौक से होती हुई अब नहर के साथ साथ जा रही थी । यह सब एक सैकेंड में हो गया । बस का इंतजार करते लोग अचरज से देखते रह गये और किरण को लेकर कार नौ दो ग्यारह हो गयी ।
किरण ने छूटने या चिल्लाने की भरपूर कोशिश की पर निरंजन के बलिष्ठ हाथों में उसकी एक न चली । कार मिलन मैरेज पैलेस पार कर जब सुखानंद के राह पङ गयी तो जैसे गुरनैब को होश आई । उसने कार में जोरदार ब्रेक लगाई । कार हल्की सी आवाज के साथ रुक गयी ।
निरंजन को झटका सा लगा – ओए भतीज , कार यहाँ कहाँ रोक दी ।
चाचे , शहर तो पीछे रह गया । गाँव दिखने लगा है । इस चाची को कहाँ ले के जाना है ।
ओह , ये तो सोचा ही नहीं । सब कुछ अनप्लैन्ड , इतना अचानक हुआ कि कुछ सोचने समझने का समय ही नहीं मिला । और अब तो थोङे से कदमों पर घर रह गया । घर जहाँ दोनों की माँ चन्न कौर है , बाप अवतार सिंह है । और हैं दोनों की बीबीयाँ । डेढ साल पहले ही निरंजन की शादी हुई है और उससे भी एक साल पहले यानी ढाई साल हुए गुरनैब की शादी हुई । गुरनैब की तो एक बेटी भी है । ननी । बेहद प्यारी है ननी । बैठना सीख रही है । एकदम जापानी गुडिया जैसी । अपना इकलौता दाँत चमकाती जब हँसती है तो चारों ओर उजास फैला देती है । पर अब वापिस शहर जाना मुश्किल है ।
ऐसा कर , घेर की तरफ ले चल । एक बार वहीं चलते हैं , फिर आगे सोचेंगे ।
गुरनैब ने कार घेर की तरफ मोङ दी । एक बङे से फाटक पर निरंजन ने आवाज दी – बसंत ओए बसंत । देसराज । दोनों लङके भागे भागे आये । आज क्या हो गया । ऐसे तो छोटा सरदार पुकार नहीं लगाता । फाटक पर आकर हार्न मारता है और वे गेट खोल देते है । गेट खोला । फाटक खुलते ही कार सीधी अंदर आ लगी । निरंजन ने किरण को उतरने के लिए कहा । किरण बेहद घबराई पङी थी । अचानक उठाए जाने से पहले ही उसका बुरा हाल था । इस घर को देख वह बुरी तरह से डर गयी । अब तक सुने गैंगरेप , मर्डरों के सुनेसुनाए किस्से मिनटों में ही उसकी आँखों के सामने से गुजर गये । ये कहाँ आ गयी वह । कौन हैं ये लोग । उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । बसंत ने आगे होकर निरंजन का कमरा खोल दिया था । निरंजन ने दोनों को कई बातें समझाई । उसके बाद किरण को दरवाजा बंद करने के लिए कहकर वह कार में बैठ गया और कार जैसे धूल उङाती आई थी वैसे ही धूल उङाती चली गयी ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...