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समाज में लङकी होकर जीना बहुत मुश्किल है । यह बात जो जीव लङकी बन कर पैदा होता है , वही समझ सकता है । घर में अगर चूहा कुतर कुतर कर लङकी की बोटियाँ खाता रहता है तो बाहर आवारा कुत्ते और खूंखार भेङिये अपना मुँह खोले पंजे तेज किये उसे कच्चा चबा जाने को तैयार बैठे रहते हैं । कब कोई लङकी अकेली दुकेली हाथ आय़े तो उसे अपना निवाला बना लें । और मजा यह है कि इनके ऊपर कोई सामाजिक बंधन नहीं है । कोई परदा कोई घूंघट इनके लिए नहीं बना । बल्कि जो शोषित है , जो पीङित है , सारे परदे , सारे घूंघट उसी के लिए बने हैं । मर्द की सारी मर्दानगी औरत को दबाकर कुचल कर ऱखने के लिए है । वह अपने घर की बहु बेटियों को दस आङ में छिपाकर दूसरों की बेटियों के आखेट के लिए निकलता है बेखौफ , बेरोकटोक ।
समाज ने इस समस्या का सबसे आसान समाधान खोज रखा है कि लङकियों को घर में कैद कर लो । बाहर जाने मत दो । न बाहर जाएंगी , न किसी की नजरों में आएंगी । घर का काम काज सिखाओ और चौदह पंद्रह साल की होते होते अपने घर , अपनी ससुराल भेज दो । उसके बाद उसके साथ अच्छा बीते या बुरा , ये उसकी किस्मत । सौभाग्य से सास ससुर अच्छे मिल गये तो जिन्दगी आराम से कट जाती है । और कहीं सास मिली ललिता पवार या ससुरजी अमरीषपुरी तो फिर राम जी भली करें , सारी जिंदगी रोते रोते कट जाती है । ऊपर से खासियत यह कि मायके में यही संदेशा भिजवाया जाता है कि यहाँ उनकी बेटी राज कर रही है । उनका दामाद तो निरा गऊ है गऊ । इब गऊ पालने में कभी कभार सींग भी लग जाता है और पैर पर खुर भी आ जाता है तो उसमें घबराने की कोई बात कैसे है । यह तो हर घर में होता है । जहाँ चार बरतन होंगे , कभी खङक भी सकते हैं ।
तो इसी सामाजिक न्याय के अनुसार , इस गाँव की बहु बेटियों , दोनों की ,किस्मत एक जैसी थी । पंद्रह सोलह या हद से हद सत्रह साल की उम्र में ब्याह , फिर घर में दिन भर खटना , हर साल - दो साल में एक बच्चा पैदा करना और बात बेबात पर ताने सुनना और मार पिटाई बर्दाशत करना यही उनकी नियति थी ।
बीरा , किरऩ , अपनी लाडली बहन को इस सबसे बाहर निकालना चाहता था इसलिए उसकी पढने लिखने की इच्छा में किसी तरह की बाधा आने नहीं देना चाहता था । तो जब समस्या आई कि किरऩ को अकेले शहर कैसे भेजा जाय तो आगे बढकर उसने ही समाधान दिया । वह हर रोज बस से किरण को शहर छोङने जाएगा और जहाँ चार लङकियाँ दीखी , वह उनका साथ करवाकर वापिस गाँव आ जाएगा । भानी को बात जँच गयी । इस तरह किरण का पढने के लिए शहर जाना शुरु हो गया ।
बीरा हर रोज किरण को साथ लेकर गाँव से शहर जाने वाली बस पर चढता । बस तीनकोनी के स्टाप पर रुकती तो किरण आगे बढकर पैदल जा रही लङकियों के गोल में शामिल हो जाती और बीरा गाँव वापिस जाने की बस पकङ लेता । गाँव पहुँचकर सीधा अपने ठीहे पर जाता । वहाँ दो बजे तक जूते सुधारता । फिर शहर जाने वाली बस पकङकर तीनकोनी पहुँचता जहाँ किरण उसका इंतजार कर रही होती । बस पकङकर वे गाँव अपने घर आ जाते । खाना खाकर बीरा थोङी देर आराम करता और परछाई थोङा ढलते ही वापिस काम पर लौट जाता । वहाँ से देर अँधेरा ढले लौटता । पूरा एक साल इसी तरह तपस्या की थी बीरे ने उसे पढाने के लिए । इधर किरण ने भी घर वालों को निराश नहीं किया था । ग्यारहवीं में नब्बे प्रतिशत अंक लेकर पास हुई थी वह । अब एक साल और फिर उसकी बारहवीं हो जानी थी ।
अगले साल दाखिले के समय किऱण अङ गयी थी । बस भाई , अब और भाग दौङ नहीं । मुझे रास्ता पता चल गया है । ड्राइवर , कडक्टर सब जानते हैं और कुल मिलाकर पंद्रह बीस मिनट का तो रास्ता है बस से । मैं अकेली चली जाया करूँगी । तू चिंता मत कर ।
भानी ने तो बहुत नानुकर की थी पर बीरा मान गया था , वह भी इस शर्त पर कि कोई भी कठिनाई आने पर वह बिना किसी हिचकिचाहट के भाई को बताएगी ।
और किरण की अच्छी किस्मत कि कोठे ईसे खाँ से दो लङकियाँ भी उसी बस में पढने के लिए जाने लगी थी । किरण की उनसे दोस्ती हो गयी । घर आकर जब उसने बीरे को उन लङकियों के बारे में बताया तो बीरे ने सुख का साँस लिया था । हाथ जोङ कर वाहेगुरु को धन्यवाद बोला था उसने कि बहन का साथ बना दिया था वाहेगुरु ने । माँ भी काफी हद तक निश्चिंत हो गयी थी । अब बीरा उसे बस में बैठा जाता और वह अकेली स्कूल के लिए चल पङती । अगले पाँच मिनट बाद प्रीति और रम्मी बस में सवार होती और वे तीनों तीनकोनी पर साथ साथ उतरती । वहाँ से पैदल इकट्ठे स्कूल जातीं । छुट्टी होने पर तीनों पैदल तीनकोनी आती । बस पकङती और कोठे पहुँचकर वे दोनों बस से उतरकर अपने घर चली जाती । पाँच मिनट बाद बस बीङ पहुँचती । वहाँ बीरा खङा इंतजार कर रहा होता । स्कूल की बातें करते हुए दोनों घर पहुँच जाते ।
दिन आराम से गुजर रहे थे । देखते देखते किरण की बारहवीं पूरी हो गयी । उसने मैरिट में नौवां स्थान हासिल किया था । परिवार बहुत खुश था । हर तरफ से उसे तारीफ मिल रही थी । समाचारपत्र में किरण का फोटो छपा था । पूरा गाँव उनके घर बधाई देने आया था । अब उसे बी . ए . करने के लिए कालेज में दाखिला लेना था । मंगर ने इन दो सालों में जो पैसा जोङा था , उनसे किरण का दाखिला शहर के राजिंद्रा कालेज में करवा दिया गया । किरण की दोनों सहेलियाँ तो अभी बारहवीं में हुई थी इसलिए वे तीनकोनी पर उतर जाती । किरण को अब बसस्टैंड उतरना होता । वहाँ से वह पैदल डेढ किलोमीटर दूर कालेज पैदल जाया करती ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...