लीला - (भाग 25) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 25)

लेकिन मनोज नहीं आ रहा था। दिन तेजी से लुढ़कते चले जा रहे थे। केस बग़ैर राजीनामा के काफ़ी हद तक आगे जा चुका था। नंगे ने पूरा साथ दिया था। उनकी जगह कोई और होता तो जान जोख़िम में डालने के बजाय बयान बदल देता! अब उसकी ख़ुद की गवाही शेष थी, जिसमें ख़ुद रज्जू की शिनाख़्त कर आरोप सिद्ध करना था उसे!
भारी घबराहट हो रही थी...।
जैसे-तैसे नींद आती तो सपने में कभी छुन्ना तो कभी रज्जू गोली खाकर गिर पड़ता। और कभी तमाम अपरिचित लोग एक साथ इन दोनों की गोलियों के शिकार हो जाते।
लेकिन पौ फटे पे कभी-कभी जो सपना दिखता और जिसके साथ नींद टूट जाती...उसमें मोहल्ले की भीड़ रज्जू, छुन्ना, कल्लन और उनकी सारी फ़ौज को घेर कर मार डालती। पत्थर मारने वाली भीड़ की इस रैली की अगुवाई बरैया जी और उनके साथी कर रहे होते। और नंगे मास्साब चीख़-चीख़ कर कह रहे होते, ‘भीड़ को भीड़ बनाए रख कर उसका उपयोग! यह शार्टकट है, लीला! यह तात्कालिक संतोष ठीक नहीं। ये लोग इसी भीड़ से पैदा होते हैं। तुमने सिर्फ दर्द को दबाने वाली दवा के इस्तेमाल को उपचार समझ लिया है...’
ताज्जुब कि सुबह वहाँ कोई लाश नहीं होती!

उलझन में रात में ठीक से नींद नहीं आई। ...और सुबह आसमान साफ़ होने के बावजूद अचानक बिजली गिर पड़ी!
अख़बार में कलेक्टर साब के तबादले की ख़बर छपी थी!
उसका ऊपर का श्वास ऊपर और नीचे का नीचे रह गया। सुनने में आ रहा था कि जज पट गया है और रज्जू को जमानत मिलने वाली है!
वह उसी वक़्त उनसे मिलने के लिये घबरा उठी! अभी तो यहीं होंगे...शायद, कोई रास्ता निकाल लें! और किसके पास जाए वह? कौन धरा है!
लेकिन जब वह कलेक्ट्रेट पहुँची तो पता चला कि वे तो राजधानी में पड़े हैं, तबादला रुकवाने! अब क्या करे? ...घर आते-आते उसका माथा घूमने लगा। लोग कह रहे थे, ‘अब तो लीला महान की खैर नहीं है!’
उन्हें बेताल की बहू के कुचला याद थे। ...उसने भी रिपोर्ट की थी! तब रज्जू और उसके दाएँ हाथ कल्लन ने पहले तो उसके साथ रेप किया...फिर ईंटों से चेहरा ही साँप के फन की तरह कुचल डाला! उस काण्ड के बाद तो औरतों के रोमरोम में दहशत व्याप गई थी। उन्हें सपने में भी रज्जू और कल्लन दिखाई दे जाते तो उनकी घिग्घी बँध जाती।
सो, वह इस कदर भयभीत थी, जैसे, कोई निहत्था बंद कमरे में साँप की गंुंजुलक में फँस जाय! और...तब वह सचमुच इतनी पागल हो गई कि उससे मिलने राजधानी तक दौड़ लगा दी! वहाँ पार्टी मुख्यालय में जाकर उसके होटल का पता ले लिया! उसे तो इतना भी धैर्य नहीं रहा कि रात हो चुकी है, अब सुबह देख ले जाकर! यही लग रहा था कि वे अब मिल नहीं पाएँगे! उनके प्रोग्राम का क्या पता? रात में ही किसी गाड़ी से निकल गए तो! और कहो, तबादला निरस्त न हो...और चार्ज देकर चले आए तो! सुबह किसने देखी...?
इसलिए, जब वह बदहवास-सी होटल ‘‘एवरग्रीन’’ पहुँची तो रात के दस बज चुके थे। ...उस वक़्त उस पर सिर्फ एक कम्फर्ट बैग था जिसमें दो जोड़ा कपड़े और कुछ वैसा ही अटरम-शटरम भरा था, जैसे, बालपेन, तह किये दो सफेद ताये, फोनबुक, कुछ बिंदियों के पत्ते, बोरोप्लस इत्यादि...। होटल सर्वत्र रोशनी में नहाया पड़ा था। लान और पार्किंग को चीरती वह किसी अंधड़ की तरह आगे बढ़ती गई। काउण्टर पर जाकर उसने उसका रूम नम्बर ले लिया और लिफ्ट की प्रतीक्षा किये बग़ैर ही तेजी से चार मंजिल तक की सीढियाँ चढ़ गई! कि जिस वक़्त उसने रूम खोज कर दरवाज़े पर दस्तक दी, बुरी तरह हाँफ रही थी...।
फिर थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला तो उस तेजस्वी युवा को पाते ही उसके प्राण जुड़ गए, जबकि वह हकबकाया-सा खड़ा अपने दिमाग़ पर ज़ोर डाल रहा था कि ‘कौन हो तुम, इस वक़्त यहाँ!’ पुतलियाँ आश्चर्य में घूमीं...फिर रुक-रुक कर बोला, ‘‘आप-वो, शहीद कालोनी वाली, मैडम!’’
‘‘जी!’’ लीला के गले से सिर्फ हवा निकल कर रह गई।
‘‘आइये!’’ उसने रास्ता दिया।
तब सिटपिटाई और सिकुड़ी-सी वह निकल आई तो वह गेट लगा कर बड़े अचरज से बोला, ‘‘आपका तो हुलिया ही बदल गया...!’’
‘‘सर-वो रास्ते में...’’ उसने कहना चाहा हालत ख़राब हो गई।
‘‘नहीं-ये!’’ उसने इशारा किया।
सामने आईने में लीला को अपना प्रतिबिंब दिख गया, बाल कटे हुए, बदन पर जींस और टाप! तनिक संकोच हो आया उसे। यकायक बोल नहीं फूटा। हालाँकि अब तक तो इस वेशभूषा की अभ्यस्त हो गई थी। यह काफ़ी आसान है साड़ी-वाड़ी और चोटी-कंघी से...।
‘‘आप सीधी आ रही हैं?’’ सहसा उसने प्रश्न दाग़ा।
‘‘जीऽ!’’ उसे झटका-सा लगा।
‘‘कल मेरे तबादले की ख़बर पढ़ी होगी!’’
‘‘जी!’’ वह शर्म से गड़ गई।
‘‘कल निरस्ती की पढ़ लेना...’’
‘‘अरे!’’ ख़ुशी से उसके हाथपाँव फूल गए।
वह सोफे पर बैठता हुआ बोला, ‘‘आपकी चिट्ठी मिल गई थी मुझे...। उन दोनों के लिये तो ज़िलाबदर की कार्यवाही चल रही थी...हो गया। अब तो पेशी पर भी दूसरे ज़िले की ज़ेल से आया करेंगे। इस केस में सज़ा से बच जाएँ तो भी दस-पाँच साल तक तो छूटने वाले नहीं हैं! कई केस हैं अभी तो...।’’
सुनकर वह ख़ुशी के मारे रोने लगी। सहारे के लिये कुरसी पर बैठ गई।
उसने कहा, ‘‘रिलेक्स प्लीज... संघर्ष का नाम ही ज़िंदगी है। जाकर हाथ-मुँह धो लो, कितनी बुरी हालत बना रखी है। ऐसे नहीं घबराते।’’
अब...उसके पास ऐसा क्या था, जो उस पर न्यौछावर कर देती? आँखें पोंछती वह बैग टाँगे बाथरूम के अंदर चली गई। एहसानों से लदी, थोड़ी देर में कपड़े बदल कर बाहर निकल आई। साड़ी में रंग मिलाकर पहने गए ब्लाउज में अफ़़सर को वह बेहद सम्मानजनक लगी।
(क्रमश)