लीला - (भाग 23) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 23)

किशोरावस्था में वह बेहद अड़ियल और नकचिढ़ी लड़की थी। मनोज सातवीं-आठवीं में पढ़ता होगा...। कठोंद से साइकिल उठाकर अक्सर रतनूपुरा आ जाता। तब वह उसके साथ बे-रोकटोक हार-खेत घूमती रहती। बात-बात में लड़ाई हो जाती, बात-बात में सुलह! उनका स्नेह अपरिभाषित और रिश्ता बड़ा अजीबोग़रीब था। कुछ दिन तक वह न आता तो वह भाभी को लेकर ख़ुद कठोंद चली जाती। ...नदी किनारे का गाँव। कछार की खेती। भरखों-टीलों भरा मारग! नदी तक अक्सर दौड़ते ही चले जाते...। मनोज उसे तैरना सिखाता था।
पहले घुटनों-घुटनों पानी में नदी की धार के संग-संग पाँव रेत में थहाती वह ख़ुद तैरती थी। फिर कमर तक के जल में मनोज के हाथों के सहारे हाथ-पाँव फड़फड़ाती। गोता खा जाने पर भड़भड़ा कर उससे बेलि की तरह लिपट जाती! उसी ट्रेनिंग में कई बार छातियों में गुदगुदी भी मचती...पर अफ़रा-तफ़री में कुछ ख़ास पता न चलता! सीखने की चाह में उसकी बाँहों पर उतराती चुटिया डुबाऊँ जल तक चली जाती...।
और एक रोज़ उसे वहीं खड़ा छोड़ बीच धार तक चली गई! फिर अगले दिन उस पार तक! बेहड़ के सारे रास्ते भी घुमा दिए थे मनोज ने...। नदी कहाँ गहरी है, कहाँ उथली, ये भी प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया था अपनी जानी।
सो, वहाँ रहना उसे रतनूपुरा से ज़्यादा अच्छा लगता। ज्वार, बाजरा और चना-जौ की रोटी। जी भर घी-दूध और मट्ठा! बेर, अमियाँ और इमलियाँ इफ़रात में।
और उन्हीं दिनों में एक बार मनोज ने बेहड़ा में उसके साथ वो काम करना चाहा जो ददा भौजी के संग घर में करते थे!
वह बिदक कर भाग आई थी। ...लेकिन रतनूपुरा आकर उसे मनोज की फिर याद आने लगी थी। पर उसके बाद तो वह परदेसी हो गया था। किसी बड़े शहर के स्कूल में दाख़िला हो गया था उसका। वहीं हरिजन छात्रावास में रहने लगा। दो साल बाद छुट्टियों में आया, थोड़े दिनों के लिये, क्योंकि, उसी साहलग में उसका ब्याह था।
शहर में रहकर मनोज का तो रहन-सहन और बोली-बानी ही बदल गई! अब वह पहले से अधिक आकर्षित करता। लीला उसके ब्याह में पंद्रह दिन पहले ही भाभी के संग कठोंद पहुँच गई थी। मनोज अब दूर से देखता और वह भी। जैसे कुछ-कुछ अर्थ, समझ में आने लगे थे कि...आज मनोज तो कल वह भी काठ में पाँव दे लेगी। तब अपना-अपना, अलग-अलग संसार बस जाएगा। जिससे सात पड़ेंगी वही सब कुछ होगा। उसके अलावा, संसार भर की स्त्रिायाँ पराईं...दुनिया भर के मरद ग़ैर हो जाएँगे!
औसत से अधिक लम्बाई के कारण वह अधिक सयानी लगती। साड़ी बाँधना भी सीख गई थी इसलिए और बड़ी लगती...और ज़्यादा सुघड़! रात को ढोलक की थापों पर फिरकतन्नी-सी नचती तो औरतें लुट जातीं। उन विवाह गीतों से रोमांचित उसके जी में भी दुल्हन बनने की हूक-सी उठती। अक्सर कल्पना कर लेती। मनोज के सिवा कोई चेहरा न मिलता!
तब...एक दिन ख़ुद को रोकते-रोकते भी, वह फ्राक पहने ही उसके संग नदी पर चली आई! और यों तो दोनों ही सावधानी पूर्वक दूर-दूर तैरे तो भी पुराने दिनों की स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं। देह तो नहीं पर मन गुदगुदी से भर उठे...। वापसी में अनायास बेहड़ा वाले उजाड़ हनुमान मंदिर पर आ खड़े हुए! वह पहली बार इतनी नज़दीकी से किसी हनुमान की मूर्ति को देख पा रही थी! और जिसे पहले महज़ बंदरनुमा समझती रही, उसका उन्नत ललाट, विशाल भुजाएँ, शिला-सी चौड़ी छाती और सिर ऊपर हथेली पर रखे बरगद से पहाड़ की छाया देख रोमांचित और उल्लसित हो उठी।
मनोज तमाम इतिहास बताता हुआ उसे गुफा के भीतर लिवा ले गया। शुरू में दहशत हुई, अंधकार में कुछ सूझता न था। पर धीरे-धीरे आँखें अभ्यस्त हो गईं। बाहर सचमुच आग बरस रही थी! कुदरत का कमाल...गुफा में ठण्डक थी! वहाँ अद्भुत तिराहे-चैराहे थे...कमरे और तिबारे थे। दीवारें कच्ची और कंकड़ीली थीं, मगर इस दर्जा चिकनी और ठोस कि मिट्टी झड़ने या गुफा के बैठने का कोई अंदेशा न था। अजाने में ही वे धरती के नीचे की ऐसी गुप्त खोह में आ गए, जहाँ दुनिया नहीं थी, सिर्फ दो हृदय थे, बेक़स धड़कन से भरे हुए...।
कमरे के आगे दालान के फर्श पर वे बैठ गए अकस्मात्!
हालाँकि रोशनी बहुत मद्धिम थी, जैसे, फीके चाँद की रात! पर वह बहुत उड़ी-उड़ी सी थी। मनोज के काँधे पर चिबुक धर भावुकता में बोली, ‘‘तुम नातेदार ना होते तो आज तुमई...’’
दिल में एक गुबार-सा उठ खड़ा हुआ था, आगे शब्द नहीं जुड़े। मनोज का हाथ पकड़ अपने सीने से लगा लिया! प्रेम आँखों से झलक उठा...।
बड़ी अद्भुत पहेली है प्रेम! सांसारिक प्राणियों के लिये कुदरत का अनमोल तोहफ़ा! मनोज का भी हृदय मचल उठा कि उसके बाल छू ले! खुले और भीगे बाल जो कि उसके शानों पर घने बादलों से मँडरा रहे थे! और उन्हीं के बीच झाँकता गोरा मुखड़ा...बदली से निकला है चाँद, गीत को रूपायित करता हुआ! धुँधलका जादू जगा रहा था।
थोड़ी झिझक के बाद चाँद की पलकें चूम लीं! पूछा, ‘‘नातेदार न होते तो और क्या होते...?’’
‘‘भरतार!...’’
खिलखिलाकर हँस पड़ी और झटके से उठ खड़ी हुई।
वापसी में राह भर उसकी भी कुछ बोलने की हिम्मत न पड़ी थी।

उसने मनोज को फोन कर दिया था।
इस बीच उसने कलेक्टर साब को भी एक चिट्ठी लिख दी कि ‘...मैं श्रीमान् की बड़ी आभारी हूँ! आपकी बदौलत ही इज़्ज़त और ये प्राण बचे! मोहल्ले में सुख-शांति आई! पर मैं आपसे मिलकर एक व्यक्तिगत निवेदन और करना चाहती हूँ...’ पर उसने सोच लिया था कि मिलने अकेली नहीं जाऊँगी। मनोज के आ जाने पर उसके साथ जाना ठीक रहेगा। समस्या का स्थाई हल चाहिए था उसे। कलेक्टर साब तो आज हैं, कल जा भी सकते हैं...फिर पता नहीं कैसा अधिकारी आ जाय, कितना सपोर्ट करे? उसे तो यहीं रहना है...। अपना देस छोड़कर तो नहीं जा सकती ना! पड़ोस नहीं बदल सकती। और राजनैतिक, प्रशासनिक दबाव हमेशा तो बनाके रखा नहीं जा सकेगा, जिससे कि रज्जू सदैव दबा रहे! फिर जल में रहकर मगर से बैर भी तो नहीं चल सकता! सदियों से जड़ें जमी हैं...इनकी। ज़िंदगी ख़्वामख़्वाह तबाह हो जाएगी। सुलह में ही भलाई है...।
(क्रमश:)