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लीला - (भाग 16)

तब वे अपना दिमाग़ ख़राब किये आधीरात तक वहीं बैठे रहे। टट्टी-पेशाब, भूख-प्यास सब मर गई थी। अच्छा हनीमून मनाने गए! क्वाटर पे गुण्डों का कब्ज़ा और हो गया...।
‘तो-क्या, कहीं जाएँगे-आएँगे नहीं?’ ...ख़ून खौल रहा था। पर कोई युक्ति नहीं सूझ रही थी। अगर नीचे से कोई आवाज़ न आती तो रात वहीं ग़ुज़ार देते। पर नीचे से आवाज़ आई तो उन्होंने मुँड़ेर से झाँक कर देखा...रज्जू भय्या ख़ुद बुला रहे थे!
‘‘काहे आएँ!’’ अजान सिंह ने उखड़े स्वर में पूछा।
‘‘दरवज्जा बंद करने...’’ आवाज़ रूखी हो गई, ‘‘तुमें भारी दिक्कत है तो, कल से कहीं और बैठ-उठ लेंगे अपन तो!’’
जान में जान आ गई लीला की। जैसे, पाँव तले ज़मीन मिल गई, थपेड़े देती लहरों के बीच। कलाई अजान की, कसकर पकड़ ली उसने...। गुण्डा दल गली में बिखर रहा था, वे नीचे उतर आए।

पाँड़ेजी, मोहल्ले के पुराने मेम्बर और आधे शहर के राजनीतिक केन्द्र! शहर में नगरपालिका के चुनाव हो रहे थे। उन्होंने इस वार्ड से राघवेन्द्र शर्मा रज्जन उर्प$ रज्जू भय्या का फार्म भरवा दिया था।
रज्जू भय्या परशुराम छात्रावास में पिछले छह-सात साल से डेरा डाले हुए हैं। इन बीते बरसों में उन्होंने बी.ए., एम.ए. और एल-एल.बी. सेकण्ड ईयर कर लिया है। शुरू के दो वर्षों को छोड़कर पिछले चार-पाँच बरस से वे निरंतर पी.जी. कालेज के छात्रसंघ अध्यक्ष हैं...और तब से उनका किसी से कोई ख़ास टकराव भी नहीं हुआ है, जबकि शुरू के दो वर्ष उन्हें भारी स्ट्रगल करना पड़ा था। गाँव से आने के बाद कालेज में दाख़िले के साथ ही वहाँ के छात्र नेताओं से उनका ख़ूनी संघर्ष छिड़ गया था। उनके गाल पर चाकू का गहरा घाव उन्हीं दिनों की निशानी है...।
कहते हैं, इसके बाद उनका पूरा गाँव इकट्ठा हुआ। सनाड्य ब्राह्मणों का गाँव, जिसकी आसपास के सभी गाँवों में सैली रिश्तेदारियाँ थीं। अतः पी.जी. कालेज में आस-पड़ोस के गाँवों के जितने भी ब्राह्मण बालक थे, वे सब रज्जू भय्या के गोल में गोलबंद होने लगे। कालेज में अब तक ठाकुर दल का वर्चस्व था। भिड़न्त अवश्यंभावी हो गई। ...और एक दिन कालेज के मैदान में खुल्लमखुल्ला लाठी, बल्लम, फरसे और बंदूकें चल उठीं। उस छात्र संघर्ष में दोनों और के काफ़ी लड़के हताहत हुए। बस, तभी से ठाकुर दल कमज़ोर पड़ गया।
आज रज्जू भय्या के सर पर कईएक गुप्त हत्याओं का सेहरा बँधा है। पर मुक़द्दमे सिरफ छुरेबाज़ी और झगड़े-मारपीट के चल रहे हैं।
वे विवाहित हैं, पर कभी घर नहीं जाते। इसलिए निस्संतान हैं। ...शहर उनकी छत्रछाया में है। व्यवसायी चैथ देते हैं। एम.पी. और एम.एल.ए. सब मानते हैं उन्हें! ऐसी शख़्सियत का पार्षद होना गर्व की बात होगी मोहल्ले के लिये। सब उनके पक्ष में हैं, क्योंकि, वे इतने ख़राब भी नहीं हैं कि किसी को सताएँ! लीला गुण्डी ने थोड़ी चें-चें की तो उसका क्वार्टर छोड़कर उन्होंने धर्मशाला में अड्डा जमा लिया...।
उन दिनों लीला नीचे बैठकर पढ़ती, उसकी परीक्षा चल रही थी। अजान ऊपर सोता। रात में कई बार दरवाज़ा बजता। वह खिड़की से झाँकती, कुछ सफेदपोश होते! वह हाथ डालकर पेम्फलेट ले लेती। वे घिघियाते, हाथ जोड़ते चले जाते...। वार्ड से 24 उम्मीदवार खड़े थे।
इस बीच अजान एक दिन, दिन ही दिन में रतनूपुरा हो आया। वहाँ उसे प्रकसा ने बताया कि पहले तो वे लोग दरवाज़े पर आकर अख़बार माँगते थे। मैं दे दिया करता।
तीन-चार दिन बाद भीतर घुसकर बैठने लगे! कैसे उठाता? फिर एक रात वहीं सो गए। फिर और लोग बढ़ने लगे और वहीं रहने लगे। कहने लगे, चुनाव तक यही क्वाटर हमारा कार्यालय रहेगा। ...मैं बरैया जी से मिला। उन्होंने पुलिस को फोन किया। पर कुछ नहीं हुआ। बदले में एक दिन उन्होंने मेरे मुँह पर ‘गू’ का मुसीका बाँध दिया।
अजान सिंह प्रकसा के पलायन की कथा सुनकर दहल गया। भविष्य में यदि कुछ ऐसा ही उसके साथ भी हुआ तो ब्राह्मणों के ख़िलाफ अहीरों का संगठन खड़ा करना उसके लिये मुश्किल होगा, क्योंकि वह दाग़ी है! दाऊ खेम सिंह इस बारे में पहले ही आगाह कर चुका है! उसने उसे वही सीख दी, जो विभीषण ने रावण को दी थी, ‘जो आपन चाहै कल्याना, सुजसु सुमति सुभगति सुख नाना...तो परनारि लिलार गोसाईं, तजहु चैथि के चंद कि नाईं!’
वैसे भी इस पट्टी में राजपूतों और ब्राह्मणों का बोलबाला है। ख़ुद उसके गाँव में अब से सौ-सवासौ साल पहले स्थिति इतनी बिगड़ी कि अहीरों को गाँव छोड़कर हार में बसना पड़ा और जाटवों ने भी उन बड़ौआ जातियों की बेगार से बचने के लिये गाँव से निकल कर हार में अपने पुरा-पाले डाल लिये थे!
भीषण गरमियों में भी मतदान के दिन मोहल्ले में उत्सव का-सा माहौल बन गया था। अजान का वोट नहीं था। लीला ने अपना वोट रज्जू को नहीं दिया। तीसरे दिन पेटी खुलने पर पता चला कि, शेष उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई हैं! लीला और अजान गुण्डों को गालियाँ देने लगे। उन्हें पूरी आशंका थी कि जीत के बाद तो वो मोहल्ला छोड़ेगा नहीं। साँप छाती पर रेंग रहा है। धर्मशाला क्वार्टर के ठीक सामने थी। बीच में बीस फुटा रोड और धर्मशाला की छत पर गुण्डों का राज! क्वार्टर की खुली छत और उस छत में फासला ही क्या...? छत पर जाना मुहाल था। गर्मी ज़्यादा होती तो अजान अकेला ही निकल जाता। लीला नीचे उसती रहती...।
मोहल्ले के भले लोग इस त्रासदी के बारे में सोचना भी नहीं चाहते थे। ...और जो आँखें सेंकते थे, वे द्रोपदी काण्ड देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि दुर्योधन जाँघ ठोंके अब तो, दुःशासन चीर खींचे! भीष्म पहले की तरह आँखें मूँदें...पर इस बार कृष्ण चीर बढ़ाने नहीं आएँ! कृष्ण हैं ही नहीं, आएँगे कहाँ से?
उनकी ओर से रोज़ नए-नए शिग़ू़फे छोड़ दिए जाते कि अब लीला गुण्डी की ख़ैर नईं है... कितने बड़े आदमी से टकराई... रज्जू भय्या ने इसी गड़ा मैदान में, जब कालोनी नईं बनी-ती, छीपू पहलमान के पेट में बल्लम ठाँस दई-ती!

(क्रमशः)


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