प्यारे दोस्त!
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यह पत्र लिखने का निर्णय करने में मुझे पूरा एक वर्ष लगा। और अगर यह घटना न घटी होती तो शायद कभी न लिख पाती। मैं नहीं जानती कि आपको क्या कहकर संबोधित करूँ। आज निश्चय कर बैठी थी कि पत्र लिखकर उठूँगी। इसलिए सहसा जो संबोधन सूझा, वही लिख रही हूँ। उसके पीछे जानबूझकर दिया हुआ कोई अर्थ नहीं है। चिट्ठी लिखने का एक और भी कारण हो सकता है। उसमें मन उतर आता है। मैं मन खोलना चाहती थी किसी के सामने।
आपको याद होगा कि लगभग दो वर्ष पूर्व आप इस निकेतन में आए थे। तब मैं नई-नई यहाँ आई थी और नहीं जानती थी कि मैं जीती हूँ या मर चुकी हूँ। जीना-मरना केवल साँस के आधार पर तो नहीं होता।
लेकिन मैं इस मीमांसा में नहीं उलझना चाहती। आदमी गुत्थी सुलझाते-सुलझाते स्वयं उसमें उलझ जाता है। इसी उलझन से मुक्ति पाने के लिए तो मैंने साल-भर तक अपने से संघर्ष किया है। नर-नारी के संबंधों को लेकर मासिक ‘प्रज्ञा’ में मैंने आपका लेख पढ़ा था। उसके तुरंत बाद मैंने चाहा था कि आपको पत्र लिखूँ। वह लेख पढ़कर मैं कैसी-कैसी न हो आई थी। उसी ‘होने’ के परिणामस्वरूप यह पत्र है। बहुत-से लोग आते हैं यहाँ। बहुत-सी बातें कहते हैं। विरह-मिलन के दृश्य भी बहुत देखे हैं उन्हें। व्यापार भी होता है यहाँ। लेकिन आपके साथ ऐसी कोई बात नहीं हुई। फिर भी मुझे आपकी बराबर याद आती रही। क्यों? क्यों महसूस किया आपके साथ इतना अपनापन।
आपको बहुत अच्छी तरह याद होगा कि तब यद्यपि बादलों से मुक्त धुला-धुला आकाश बाहर आने का निमंत्रण दे रहा था लेकिन, मैं एक कोने में पाँच बच्चों से घिरी हुई एक जिंदा लाश की तरह पड़ी थी। मुझे दिखाकर संचालिका ने आपसे कुछ कहा था। सुन कम पाई थी, समझी बहुत कुछ थी। जिस समय आप मेरे पास से होकर चले गए और ठीक उस खिड़की के पास आकर खड़े हो गए जहाँ मैं लेटी हुई थी, तब मुझे मालूम हुआ कि आप कौन हैं। मुझे देखकर आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया था या आपने आने नहीं दिया था, मैं नहीं जानती। लेकिन जब आप पीछे खड़े थे तब मैंने आपकी बातें सुनी थीं। संचालिका ने आपसे कहा था, ‘‘देखिए, बहुत लोग आते हैं यहाँ और बहुत कुछ लिखते हैं यहाँ के बारे में, लेकिन मैं आपसे एक प्रार्थना करती हूँ, इसलिए करती हूं कि आप लेखक हैं और लेखक संवेदनशील होता है। आप इस नारी के बारे में कुछ न लिखिए…।’’
आपने कहा था—यद्यपि उस कहने के बीच में कई क्षण बीत गए थे और मैं जानती हूँ उन क्षणों में आपके सहृदय में सुमद्र-मंथन हुआ था। आपने दीर्घ निःश्वास लेकर एक ही शब्द कहा था—‘‘अच्छा!’’ लेकिन इस एक शब्द के पीछे कितनी वेदना, कितनी अनुभूति और कितनी विवशता थी। आपके चेहरे पर व्यक्त वही त्रासद विवशता धीरे-धीरे समूचे शरीर में फैल गई थी। मैं तड़पकर उठ खड़ी हुई थी। मैंने खिड़की की सलाखों को पकड़कर उस ओर झांका था। तब आप धीरे-धीरे संचालिका के साथ बाहर जा रहे थे। मैं कई क्षण तक उन ठंडी सलाखों पर जलते आंसुओं से भरा अपना चेहरा टिकाए देखती रही। द्वार के पास पहुँचकर आप मुड़े। मुझे देखने के लिए नहीं, बल्कि संचालिका को नमस्कार करने के लिए। लेकिन आपने मुझे न देखा हो, मैंने आपको देख लिया था। और उसी क्षण मैं समझ गई थी कि आप भले ही मेरी कहानी को कागज पर उतार सकें पर अपने अंतर में उसे निरंतर झेलते रहेंगे…’’
संचालिका ने आपको मेरी कहानी बताई होगी। लेकिन क्या सचमुच बता सकी होंगी? कोई नहीं शब्द दे सकता मेरी व्यथा-कथा को। मैं भी नहीं। सहते-सहते अनुभव करने की मेरी शक्ति समाप्त हो गई है। पर क्या आप विश्वास करेंगे कि आपका वह लेख पढ़कर मैं स्वयं पहली बार अपनी कहानी को समझ सकी। जानती हूँ आपने वह लेख मेरे लिए नहीं लिखा था। आपने मात्र अपनी सात समंदर पार के किसी देश की यात्रा के संस्मरण लिखे थे। सात समंदर पार के बारे में मैंने बहुत-सी कहानियाँ अपनी नानी से सुनी थीं। एक साहसी राजकुमार और एक सुंदरी राजकुमारी की कहानियाँ। लेकिन आपने जो लेख लिखा था उसमें न राजकुमार की चर्चा थी, न राजकुमारी की। फिर भी उसमें अद्भुत साहस और अनोखे सौंदर्य की कथा गर्भित थी। नर-नारी के संबंधों की कथा…
मेरी कहानी उन्हीं संबंधों की व्यथा-कथा है। मैं एक तथाकथित सुसंस्कृत परिवार की बेटी और एक उतने ही सुसंस्कृत तथा संपन्न घराने की बहू थी। स्वयं सुंदर, मोहक और आकर्षक। उस दिन भी, बेशक वह ठंडा था, लेकिन एक अनोखा आकर्षण पाया होगा आपने मेरी उदास-उनींदी आँखों में। इन्हीं आँखों के रहते तो मैं बार-बार छली गई। जिस समय मैं उन्नीस वर्ष की थी उस समय कैसी लगती थी, इसकी कल्पना आप नहीं कर पाएँगे। सौंदर्य को शब्दों में बाँधना एक बात है, उसे सचमुच अनुभव करना दूसरी बात है। मैं आकंठ ऐश्वर्य और विलास में डूबी अपने पति के साथ उस अनूठे जीवन को भोग रही थी और समय एक सुनहरे सपने की तरह बीत रहा था।
उन्हीं दिनों सहसा मेरे प्रांत के भाग्याकाश पर विपत्ति के बादल फट पड़े। वे कैसे देश का दुर्भाग्य बन गए, यह आपको बताने की आवश्यकता नहीं है। उस महानाश में कौन कहाँ गया, किसके साथ क्या बीती, इतिहासकार उसको खतिया कर कभी नहीं देख पाएँगे। देखना चाहिए भी नहीं। अपने कलंक को अमर कर देगा क्या अच्छी बात है? काल ने बड़ी नृशंसता के साथ हमें इस बात का अहसास करा दिया कि उपयुक्त अवसर आने पर एक क्षण में ही, प्रभु की सर्वोत्तम कृति मानव, राक्षस में रूपांतरित हो रहती है।
मैं फिर उलझने लगी। अंदर जो घटाटोप है लाख प्रयत्न करने पर भी वह निरंतर विस्तृत होती दरारों में से होकर, चारों ओर बिखर जाता है। अचानक एक दिन भयंकर आक्रमण हुआ हमारे घर पर। कैसे शब्द दूँ उस वीभत्स दृश्य को। घर के अधिकांश सदस्य शरणार्थी सिविर में जा चुके थे। बस मैं और मेरे पति रह गए थे वहाँ, अंत में जाने के लिए। उन्होंने साहस के साथ मुकाबला किया पर…पर…उन दरिंदों ने उन्हें मार डाला और…और फिर…फिर उनकी लाश पर…बलात्कार किया…मेरे साथ…
एक साँस में पागल की तरह बोल जाता है न आदमी, वैसे ही एक साँस में मैं इसे लिख गई। दूसरा साँस लेती तो लिख न पाती। जब होश आया तो मैं एक छोटे-से कच्चे और गंदे मकान में लेटी हुई थी। नितांत अकेली, असहाय, अपंग। प्राणहीन हो गए थे मेरे सारे अंग। मैं उन्हें हिला नहीं सकती थी। मैंने सोचा, शायद मैं मर गई हूँ और अपने पापों का दंड भोगने के लिए मुझे नरक में ढकेल दिया गया है। कोई रात को स्वप्न में नंदन कानन के सपने देखे और सवेरे अपने को नरक में पाए। कैसा आघात लगेगा उसे! लेकिन वह नरक भी नहीं था, क्योंकि धीरे-धीरे प्रकाश मेरे चारों ओर फैलता आ रहा था; मेरी चेतना लौट रही थी। मैं उठने का प्रयत्न करूँ कि तभी किवाड़ खोलकर एक व्यक्ति मेरे सामने आ खड़ा हुआ। कई क्षण वह मुझे देखता रहा अपलक। मैं भी देख रही थी और पलक झपक रही थी बार-बार। वह बोला, युगों बाद कहीं दूर से, ‘‘कैसी तबीयत है?’’
मैं एकाएक चीख उठी, ‘‘मैं कहाँ हूँ, यह कौन-सी जगह है? तुम कौन हो?’’
वह एक स्वस्थ व्यक्ति था। उसके चेहरे क्रूरता नहीं थी। वेदना के ऊपर आरोपित कठोरता थी। उसने बताया धीरे-धीरे, ‘‘मैं नहीं जानता, तुम कौन हो, तुम्हारे घर वाले कहाँ हैं? गुंडे कुछ औरतों को भगाकर लिए जा रहे थे। लेकिन फौज ने उन्हें ढूँढ़ लिया। उस मुठभेड़ में बहुत-सी लड़कियाँ इधर-उधर भाग गईं। जब सब लोग चले गए तो मैंने तुम्हें एक खेत में बेहोश पड़े पाया। मैं कौन हूँ यह जानने की कोशिश मत करो अभी। इतना समझ लो कि मेरा नाम नूर है। तुम बताओगी तो मैं तुम्हारे घरवालों को खोजने की कोशिश करूँगा।’’
न जाने कैसी संवेदना थी उसके इन सीधे-सच्चे शब्दों में। मैं रो पड़ी और सुबकियों के बीच उसे अपनी दास्तान सुनाने लगी। कई क्षण वह कुछ नहीं बोला, ‘‘जैसे कुछ अकथनीय कहने के लिए साहस बटोर रहा हो। कई क्षण बाद धीरे-धीरे उसने कहा, ‘‘मैं जानता हूँ उस शहर में अब तुम्हारे घर-परिवार का कोई आदमी नहीं बचा है। जाति का भी नहीं। कुछ शरणार्थी शिविरों में चले गए हिंदुस्तान जाने के लिए, कुछ नफरत और हिंसा के सैलाब में बह गए…।’’
मैं तड़प उठी थी। मैंने चीखकर कहा था, ‘‘क्या मैं नहीं जा सकती शिविर में? क्या आप मुझे यहाँ से निकल जाने में मदद नहीं कर सकते?…क्या आप कृपा कर…!’’
वह दीवार के सहारे खड़ा था। थोड़ा पास आया मेरे। बोला पहले की तरह बहुत धीमे-धीमे, ‘‘अभी कुछ नहीं हो सकता। चारों ओर दहकता हुआ लावा फैलता जा रहा है अभी तो। किसी अँधेरे रात में तुम्हें अपने घर ले जाऊँगा। तुम्हारे लिए नए कपड़े ले आया हूँ। और…तुम अब आयशा हो।’’
‘‘क्या?’’
‘‘हाँ, तुम अब आयशा हो। समझती हो।
प्यारे दोस्त! वे कपड़े पहनते न पहनते मैं कितना रोई थी। फिर भी हुआ वही जो नूर ने चाहा था। आगे वाली पहली अमावस की रात में मैं मानो हमेशा के लिए नकाब पहनकर उसके घर चली गई। मर न सकी। मर जाना चाहिए था न, पर अपने से अजनबी ही रहना मरने से कहीं त्रासद होता है। मैं जानती थी कि नूर मुझे इसीलिए बचाना चाहा था कि मैं नारी थी और सुंदर भी…नर-नारी का यही संबंध शाश्वत है न…
और एक बात बताऊँ। नूर अविवाहित और हिंदू था। कई दिन बाद पता लगा था मुझे। वह अपनी ज़मीन-जायदाद बचाने के लिए मुसलमान बना था।
बहुत लंबी कहानी है मेरी। टुकड़ों-टुकड़ों में ही कह पाऊँगी। आप चाहें तो उपन्यास लिख सकते हैं। पर मेरा अनुरोध है, न लिखिए। कोई कैसे शब्द दे सकता है उस भावना को जो मेरे मन में तब उठी थी जब मैंने अनुभव किया था कि मैं माँ बनने वाली हूँ। दर्द और नफरत का सैलाब मेरे अस्तित्व को लील गया था तब। मैंने पेट पर मुक्के मार-मारकर गर्भ गिराने की नाकाम कोशिश की थी पर नूर सजग था। मैं अपने मन्सूबे में कामयाब नहीं हो सकी। सच तो यह है कि मेरे अंदर ही कोई था जो मेरे मन्सूबों को नाकाम बनाने पर तुला हुआ था। अपने ही ‘मैं’ के दोहरेपन को हम कब समझ पाते हैं।…
मेरा एक और बेटा था जिसे में पीछे छोड़ आई थी। उसकी याद करके मैं अक्सर रोती थी। पति तो अब आने वाले नहीं थे पर क्या मैं अपने बेटे को भी नहीं देख पाऊँगी…लेकिन मैं तो नए बच्चे की बात बता रही थी। कहाँ से आया यह, कैसे आया? नूर तो उस सारे समय मेरे पास तक नहीं आया तब…तब…उस बलात्कार का नतीजा है यह। हे मेरे प्रभु! तुम ही क्या…सचमुच ही…
कितना पुकारा था मैंने उस निर्मम को वह नहीं पसीजा और समय धीरे-धीरे फिसता रहा और मुझे लगता रहा जैसे वह ठहर गया है। मेरे चारों ओर एक सुलगता अग्निकांड है जिसमें से उठती आदमी के रक्त-मांस की चिड़ायंध मेरे नासा-रंध्रों में घुसती जा रही है। मैं सोते-सोते चीख उठी। मैं बाहर भागने को पागल हो उठती…
लेकिन इस विभीषिका के बीच में नूर था कि अडिग चट्टान की तरह खड़ा रहा। वह मेरे पास भी नहीं आता था, दूर भी नहीं जाता था। उसने मेरे आँसू पोंछने की भरसक कोशिश की। मेरे परिवार का पता लगाने का प्रयत्न किया लेकिन सफल नहीं हो सका। तब एक दिन वह मेरे पास आखर बैठ गया और बोला, ‘‘धीरे-धीरे आग बुझ रही है! तुम लोगों को निकालने के लिए सेना आती रहती है। चाहो तो तुम भारत जा सकती हो।’’
आश्चर्य! मैं तब पुरइन के पत्ते की तरह काँप उठी थी। और मैंने चीखकर कहा था—‘‘नहीं, नहीं। मैं नहीं जा सकती। मैं नहीं जाऊँगी।’’
तब पहली बार उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर थपथपाया। उस स्पर्श के साथ न जाने कैसी भीगी-भीगी संवेदना मेरी रग-रग में प्रवाहित होने लगी। मुझे अच्छा लगने लगा। उस दिन वह चुपचाप चला गया।
लेकिन तीसरे दिन, पाँचवें दिन, सातवें दिन उसने फिर यही कहा। मैं निरंतर लड़ती रही अपने-आप से। पंद्रहवें दिन आकर वह बड़े प्यार से बोला, ‘‘चलो। वे लोग बहुत पास हैं। मैं तुम्हें छोड़ आता हूँ। तुम न जाना चाहो तो मैं उन्हें यहाँ बुला लाऊँगा।’’
मैं अब पूरी तरह शांत थी। पूरी दृढ़ता से मैंने जवाब दिया—‘‘मैं नहीं जाऊँगी। तुम सब-कुछ जातने हो। फिर भी मुझे जाने को कहते हो? क्यों…।’’
तब तक वह मुझे अपनी कहानी सुना चुका था।
कई क्षण मेरी ओर देखता रहा। उसके बाद उसने कभी मुझसे जाने के लिए नहीं कहा। अब मुझे जीवन-भर यहीं रहना था।
मेरे दोस्त! घोर अवसाद में डूबे रहने के बावजूद उस दिन मेरे उदास चेहरे पर पहली बार मुस्कराहट उभरी थी। इसी के साथ शुरू हुआ मेरी कहानी का दूसरा अध्याय। एक दिन मैं माँ बनी। अत्याचार की राह आए उस नए शिशु को देखती तो मेरी सुबकियाँ फूट पड़तीं। लेकिन उस मासूम की दृष्टि में न जाने क्या था कि एक निराली पीर कसक उठती मेरे अंतर में और मुझे उन्माद से भर देती। नारी के कारावास की कहानी यहीं से आरंभ होती है…।
मेरे दोस्त! क्या आप विश्वास करेंगे कि छः माह बीतते-न-बीतते मैं फिर माँ बनने को हुई। मैं अब नूर की पत्नी थी। उसने मेरे बच्चे को अपना लिया था और मैंने अपने अंतर से पिछले जीवन को धो-पोंछ डाला था। धो-पोंछ डालने की यह प्रक्रिया कितनी मर्मान्तक थी। उसकी अब क्या चर्चा करूँ। क्यों करूँ! पति चले गए थे। उनका परिवार मुझे स्वीकार कर नहीं सकता था। बस बेटे की याद आती थी। कैसी विडंबना है जो प्यार की राह आया वह दूर हो गया और जो…
अब वह कहानी नहीं। लेकिन मेरे कहने मात्र से तो कहानी खत्म नहीं हो सकती। यहाँ के लोग जानते थे कि नूर ज़मीन-जायदाद को बचाने के लिए मुसलमान बना है। धीरे-धीरे वे उस पर दबाव डालने लगे। और जैसे ही उसने प्रतिरोध करने की कोशिश की, उन्होंने उसे मार डाला। क्षत-विक्षत तन-मन लिए मैं फिर दोराहे पर खड़ी थी पाषाणवत्। नारी भी तो ज़मीन ही होती है न, और ज़मीन के पास उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं होती। अन्नपूर्णा होकर भी वह संपत्ति होती और किसी नर की…
सातवें दिन एक और नर के पदचाप बिलकुल मेरे पास आकर रुके। मैंने आँखें खोल दीं। वह मेरे पास बैठ गया। बोला, ‘‘फारुखी हूँ। यहाँ कॉलेज में पढ़ाता हूँ। मुझे बहुत दुःख है नूर बेगुनाह मारा गया। वह मेरा दोस्त था। उसने मुझे यह मकान देने का वायदा किया था। नहीं…डरो नहीं, मैं तुम्हें जाने के लिए नहीं कहूँगा। तुम यहीं रह सकती हो…!’’
मैं पूरी तरह मोहताज बनी आँखें फाड़े-फाड़े छत की ओर देखती रही। मैं जानती थी, मैं खूबसूरत हूँ और जवान हूँ। इन दो-ढ़ाई वर्षों में मैंने क्या कुछ नहीं भुगता। लेकिन यौवन का ज्वार तो जैसे मेरे शरीर में अड़ी मारकर बैठ गया था। मौत बार-बार पास आकर लौट जाती थी। इस बार भी लौट गई। मैं एक ज़िंदा लाश की तरह जीती रही।
मेरे दोस्त! आपने नर-नारी की समानता के लिए एक-दूसरे के आकर्षण से मुक्ति की बात कही है पर क्या आप विश्वास करेंगे कि प्रोफेसर फारुखी के इसी आकर्षण ने मुझे एक बार फिर जीवनदान दिया। एक बार फिर मेरे अंगों में वसंत की बयार बहने लगी। हर औरत के अंदर में बराबर एक मर्द रहता है। फारुखी सचमुच मर्द था और उसने मेरे साथ निहायत शरीफाना बर्ताव किया। उसने मेरे दोनों बच्चों को किसी तरह का अभाव नहीं खटकने दिया। मोहब्बत और इंसानियत की हवा पाकर वे जैसे पनप उठे। और पनप उठा मेरे अंतर्मन। दिलों का रिश्ता शरीर के रिश्ते से जुड़ गया। उसने मुझसे बाकायदा निकाह किया। मेरा नाम सुरैया रखा। चौथा पुरुष। था वह मेरे जीवन में। आपने लिखा है पश्चिम की नारी सहज भाव से कह सकती है, ‘‘मेरा चौथा पति।’’ प्राचीन भारत में भी शायद कुंती ने कहा होगा, ‘इंद्र मेरा चौथा पुरुष है।’ और द्रौपदी तो एक समय पर पाँच पतियों की प्राणलल्लभा थी। वे सब हमारी प्रातः स्मरणीया-पूज्या हैं। लेकिन क्या मैं कभी कह सकूँगी, ‘‘फारुखी मेरा चौथा पुरुष था। मैं चौथी बार माँ बनने जा रही हूँ।’
समय के प्रवाह में नर-नारी के संबंध कहाँ-कहाँ-से बन गए…
मैं फिर उलझने लगी तर्कजाल में लेकिन एक बात मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ। यदि मैं अपने पहले पुरुष के साथ रहती होती तो मेरे चौथी बार माँ बनने पर आनंद और उल्लास से वातावरण महक उठता। अस्र आशीर्वादों की वर्षा होती मुझ पर। मातृत्व के गौरव से मेरा भाल चमक उठता। माँ मैं अब भी बनती थी पर गौरव करने लायक कहीं कुछ नहीं होता था। होती थी एक विवशताजन्य उदासीनता, लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में आज तनिक भी लज्जा नहीं है कि उस पठान को छोडकर जिसका मैं नाम तक नहीं जानती, नूर और फारुखी, दोनों ने मुझको प्यार दिया। जब-जब छा जाने वाले गहरे अवसाद के बावजूद मैंने उस प्यार को जिया। मन की उन बातों को छिपाने का आज कोई कारण नहीं है। किसके लिए छिपाऊँगी इस दुचित्तेपन को? मनुष्य केवल अपनी आंतरिक शक्ति के सहारे नहीं जीता बल्कि उसे उस शक्ति की भी आवश्यकता होती है जो दूसरों की हमदर्दी से मिलती है।
लेकिन यह आनंद भी स्थायी नहीं हो सका। अचानक एक दिन फारुखी घबड़ाया हुआ आया। बोला, ‘‘सुरैया! दुश्मन कामयाब हो गए। मुझे यहाँ से दूर एक कॉलेज में बदल दिया गया है। मुझे आज ही जाना होगा।।’’
हठात् जैसे मैं खौलते कढ़ाव में गिर पड़ी हूँ। चीख उठी, ‘‘नहीं, मैं अकेली नहीं रह सकती। मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।’’
पर मैं कैसे जा सकती थी। मैं अभी-अभी चौथी बार प्रोफेसर फारुखी के बेटे की माँ बनी थी। उस रात हम सो नहीं सके। तमाम समय उसे बीतते देखते रहे और वह सांत्वना देता रहा। सवेरा होते-न-होते वह चला गया। जाते समय उसने सच बात बताई, ‘‘मैं आऊँगा। मैं जानती हूँ, यह सब जालसाज़ी है। मुझसे यह मकान छीन लिया गया है। मुझ पर यह इल्ज़ाम लगाया गया है कि मैंने नूर को मार कर उसकी बीवी को नाज़ायाज़ तौर पर रखा हुआ है और कि तुम हिंदुस्तान से भगाई हुई एक हिंदू औरत हो। मैं परदेशी हूँ सब हाकिम उनकी तरफ हैं। लेकिन मैं आऊँगा। मैंने तुम्हारे लिए सब इंतजाम कर दिए हैं। आया आती रहेगी तब तक।’’
उसने अंतिम बार मेरा चुंबन लिया और देर तक मेरी उँगलियों को पकड़ मेरी आँखों में झाँकता रहा। उस दृष्टि से बहते प्यार, दर्द और क्षमा की एक गुनगुनी धारा ने मेरे बाँध को तोड़ दिया। उसके जाते ही मैं सिसकने लगी…
तीसरे दिन जब मैं अपेक्षाकृत शांत थी मैंने मुजफ्फर को अपने सामने पाया। उसकी आँखों में शरारत थी और ओंठों पर थी मंद-मंद मुस्कान। वह मुझसे इजाज़त लेकर अंदर आया। उसने धीरे-धीरे कहा, ‘‘मुझे बहुत अफसोस है, प्रोफेसर साहब तुम्हें छोड़कर चले गए। उम्मीद नहीं कि वह अब लौटेंगे। क्या तुम हिंदुस्तान जाना चाहोगी?’’
मैं एक बार फिर जिंदा लाश में बदल चुकी थी। फिर भी मैं झूठ नहीं बोल सकी। कई क्षण देखती रही उस पुष्ट कंधों वाले पंजाबी युवक को। फिर बोली, ‘‘मैं कहीं नहीं जाना चाहती। बस मरना चाहती हूँ।’’
वह मुस्कराया, ‘‘ठीक है, मैं दो दिन बात तुम्हें अपने गाँव ले जाऊँगा। वहाँ तुम्हें जाहिर करना होगा कि तुम हिंदुस्तान के लोगों से सताई हुई एक मुस्लिम खातून हो।’’
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कहीं बहुत दूर से आकर ये शब्द मेरे मस्तिष्क में केचुओं की तरह रेंग रहे हों। सुनती हूँ केंचुएँ बहुत बढ़िया किस्म की खाद बनाते हैं। मैं तो…नहीं शायद मैं भूली, मैं शायद तब खाद बनकर ही रह गई थी, बढ़िया किस्म की खाद, जिसमें से बदबू नहीं उठती। काश, मुझमें से बदबू उठ सकती…।
प्यारे दोस्त! एक दिन सचुमच मैंने अपने-आपको एक छोटे-से खुशहाल देहात में पाया। वहाँ स्त्री-पुरुष सब मिलकर खेती करते थे और फिर हीर-राँझा के गीत गाते थे। कितनी मस्ती थी उस आलम में। वहाँ की सुहानी धूप तक हमसे लिपट-लिपट जाती थी। बचपन में माँ-बाप के साथ ऐसे ही देहातों में रहते हुए मैंने न जाने कितने सतरंगे पहने देखे थे। इसलिए बहुत देर तक मैं उस वातावरण से अछूती न रह सकी। बयार की मादकता ने मेरे उभारों को फिर से आकर्षक बना दिया। मैंने निश्चय किया था कि अब मैं किसी को अपने पास नहीं आने दूँगी। लेकिन पास आने या न आने देने वाला कोई ‘मैं’ थोड़े ही होता है। वह तो एक गंध होती है, नर-नारी के संबंधों की गंध जो किसी एक के अंगों से फूटती है और किसी दूसरे के अंगों को खींच लेती है।
फारुखी इस स्वाभाविक आकर्षण को न जाने क्या-क्या नाम दिया करता था पर मुजफ्फर था कि भाषा से नितांत अपरिचित था। उसकी आँखों की शरारत, उसके ओंठों की मुस्कान और बाँहों की जकड़न इतनी मांसल थी कि लोथ में भी जीवन की चाह पैदा कर देती थी।…
इसका जो परिणाम हो सकता था वही हुआ। नारी फिर माँ बनी। इस बार दो जुड़वाँ बच्चों की माँ। नियति का व्यंग्य कितना क्रूर होता है। मेरे पाँच बेटे थे अब। कुंती के भी पाँच बेटे माने गए हैं। छठे को जो, उसका पहला था, उसने स्वयं त्याग दिया था। मेरा भी छठा बेटा है, मेरे प्रेम का प्रतीक पर वही मुझसे छीन लिया गया।
आपको नाम तो बताए ही नहीं उनके। आवश्यक नहीं है पर बिना नाम यहाँ कुछ नहीं चलता तो, मान लीजिए तब उनके नाम थे—अनवर, अशरफ, असगर, अहमद और अली।
आप पूछेंगे, ‘‘छठे बेटे का नाम क्यों नहीं बताया।’’ जब वह मेरा रहा ही नहीं तब नाम लेकर क्या करूँगी। फिर भी उसका नाम है आशिम।
तो मेरे दोस्त! मेरी ज़िंदगी का चक्र इस तरह तेज़ी से घूम रहा था। उन गाँव वालों की दृष्टि से मैं पाँच बेटों की माँ थी बेहद खुशकिस्मत और सुखी थी। मुजफ्फर को मेरे निगोड़े रूप का जादू पागल बनाए हुए था। लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इस सुख और सौंदर्य को भोगने वाली मात्र एक जीवित लाश, संस्कार और सभ्यता के आवरण से मुक्त एक कठपुतली, जो न जाने कौन-सी नियति के इशारे पर यह सब-कुछ करने को विवश थी।
इसके पीछे नर-नारी के शाश्वत संबंध थे या वे खतरनाक परिस्थितियाँ थीं जिनमें मैं अपने बावजूद उलझती जा रही थी। और स्वामित्व जताने वाले हर पुरुष को मैं प्यार करने का नाटक करती थी। लेकिन नाटक करने की भी एक सीमा होती है। मैं जैसे टूट गई और मैंने तय कर लिया कि इस उर्वर भूमि पर अपना जीवन गुज़ार दूँगी। मैं मुजफ्फर की बीवी हूँ, उसी की रहूँगी। पांडु की तरह वह मेरे पाँचों बच्चों का बाप कहलाएगा। और फिर मैं एक दिन बूढ़ी होकर अपने किसान बेटों के हाथों यहीं की जमीन में दफना जी जाऊँगी। न सही मंत्र-पाठ, कुरान शरीफ की आयतें मेरी मिट्टी को मिट्टी के सुपुर्द कर देंगी।
लेकिन कुरुक्षेत्र का युद्ध अभी पूरा नहीं हुआ था। उस दिन मुज़फ्फर घर लौटा तो बेहद परेशान था। उसने कहा, ‘‘तुम यहाँ नहीं रह सकोगी। तुम्हें और दूर पहाड़ों के उस पार जाना होगा। तुम्हारे देश वाले तुम जैसे औरतों को ढूँढ़ते फिर रहे हैं और उन्हें शक है कि एक औरत इस गाँव में भी है।’’
कितनी बार हुआ था यह। मैं स्तब्ध न हो सकी, पथराई आँखों से देखती रह गई उसे बस। उसने मुझे बाँहों में समेट लिया। बोला, ‘‘तुम परेशान मत होओ। सब इंतज़ाम कर दिया है मैंने। मेरा दोस्त है वहाँ।’’
‘‘तुम नहीं चलोगे?’’
‘‘अभी तो नहीं पर, आऊँगा, जल्दी आऊँगा।’’
हर बार नियति ने मुझे से छल किया। हर बार मुझे लगा कि मैंने स्वयं ही, स्वयं की हत्या की है। हर बार मैं अपने से पूछती, ‘‘यह तू ही है क्या?…’
उस रात चुपचाप घुप्प अँधेरे में मैं बिना किसी से मिले, अपने पाँच बच्चों के साथ मैं एक अनजान प्रदेश की ओर रवाना हुई। अहमद और अली तब एक-एक वर्ष के थे। असगर, अशरफ और अनवर क्रमशः दो, तीन और चार वर्ष को हो रहे थे। कई दिन की यात्रा के बाद हम एक छोटे-से पहाड़ी गाँव में पहुँचे। और आप विश्वास नहीं करेंगे, पूरे तीन साल तक यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहाँ-कहाँ मैं भटकती रही। तीन-चार महीने से अधिक कभी एक जगह न रह सकी। साल-भर मुजफ्फर से संबंध बना रहा। उसके बाद वह कभी नहीं आया। यह सब यों ही हुआ या जानबूझकर पैदा किए किसी भ्रम के कारण। मैं बेसहारा, बेपनाह, भीख माँगने को विवश हो गई। आप पूछेंगे कि क्या मेरे रूप ने अब और किसी को आकर्षित नहीं किया। किया लेकिन, अब मुझमें न जाने कैसी अंधचेतना जाग उठी थी। न समझ में आने वाला एक विद्रोह अवसर से पूर्व ही मुझे वहाँ से निकल भागने को विवश कर देता। अपने को बचाने के लिए मैंने अपने-आपको और अपने बच्चों को बार-बार खतरे में डाला…।
क्या करेंगे आप उस लंबी यातना की दास्तान को सुनकर। इतना ही जान लीजिए कि मुजफ्फर का घर छोड़ने के तीन वर्ष बाद मैंने अपने को पेशावर में पाया। तब न मेरे पास रह गया था रूप, न यौवन लेकिन चलते रहने की एक अदम्य लालसा अभी शेष थी। जीने की लालसा जो, हर खतरे को मोहक बना देती है या कहूँ कि हमेशा खरतनाक परिस्थितियों से जूझते-जूझते मेरी ताकत निरंतर बढ़ती जा रही थी। जीवित रहना भी कितना विलक्षण है।…
मेरे दोस्त!
यही वह अघटित घट गया जिसको न घटने देने के लिए मैं अब तक भागती रही थी। अनवर अब सात वर्ष का हो रहा था। दुःख और कष्टों के इस पारावार ने उसमें अद्भुत संवेदना पैदा कर दी थी। वह अनचाहे जालिम बाप का बेटा था लेकिन वही मेरे पाँवों के काँटे निकालता था। भीख माँग लाता, मौका पड़ने पर छोटे-मोटे काम वही कर लेता। कहाँ से आई उसमें यह चेतना। कैसा है यह प्यार और नफरत का आल-जाल अनबूझ, अनचाहा…लेकिन कुछ भी हो वह मेरा हमसफर बन गया। एक ऐसे सफर का साथी जिसके अगले पड़ाव का हमें कुछ पता नहीं होता था।
मेरे दोस्त, जिस डर से मुजफ्फर ने मुझे पहाड़ों में छिपाया था, पीछा करते-करते वही डर यहाँ आ पहुँचा। हिंदुस्तान के लोग इस इलाके में विशेष रूप से सक्रिय थे। नियति भी कैसे-कैसे खेल खेलती है। उसने एक दिन अनवर को उन्हीं के पास भेज दिया। वह नहीं जानता था कि मैं कभी हिंदू थी। लेकिन उससे बातें करते-करते उन्हें जब पता लगा कि हम कई वर्ष से भागते फिर रहे हैं तो उन्हें शक हो गया। वही शक उन्हें मेरे पास खींच लाया। आश्चर्य उनके पास मेरा चित्र था और पूरा परिचय भी। मेरी आँखों ने मुझे यहाँ भी धोखा दिया। उन्होंने सुरैया के वेश में प्रतिमा को पहचान लिया। मेरे हाथों से एक और ज़िंदगी रेत की तरह फिसल गई। एक बार मैंने फिर मरना चाहा। चाहा कि सब बच्चों को लेकर नदी में कूद पड़ूँ पर हुआ कि मैं क्रोध से भभक उठी और मैंने अनवर को बुरी तरह पीट दिया। वह बिलबिलाता रहा और सुबकियों के बीच कहता रहा, ‘‘अम्मी! मैंने उन्हें कुछ नहीं बताया था। कुछ भी नहीं। सच अम्मी…।’’
उस रात उस मासूम बच्चे को छाती में समेटकर मैं कितना रोई। कोई ले सकेगा थाह मेरे उस जलते आँसुओं की…।
प्यारे दोस्त! प्रतिमा से सुरैया तक की यह यात्रा नारी होने की त्रासदी की यात्रा है। नर-नारी के संबंधों के नारी के हिस्से में त्रासदी ही तो आती है, जो बार-बार उसे उसकी अपनी धुरी से उखाड़ फेंकती है।
कहानी का अंतिम पर्व आ पहुँचा है। एक दिन पाया कि मैं इस नारी निकेतन में हूँ। अर्धमृत, अंधड़, चिथड़ों में लिपटी एक लाश। कितने जीवन जी चुकी थी मैं। शायद अब यह अंत था, ऐसा अंत जो ‘अनंत’ है। मैं फिर प्रतिमा बन गई थी। पत्थर की प्रतिमा, जिसका एक-एक अंग तोड़ दिया गया है। जिसकी आत्मा में हजार छेद हैं, जो इस देश की भाषा में पापिष्ठा, दुराचारिणी और कलंकिनी है। और उसका सबूत है ये मासूम बच्चे जिनको मैंने अपने शरीर को टुकड़ों में बाँट-बाँट कर जनमा है और जिन्हें इस आश्रम में नए नाम दिए गए हैं। वे अब अनवर, अशरफ, असगर, अहमद और अली नहीं है। अनिल, अशोक, असित, अमित, और अजित हैं। शायद इसीलिए अब और अधिक तिरस्कृत, अपमानित, लांछित तथा घृणा के पात्र बन गए हैं…
संचालिका ने एक दिन मुझसे कहा, ‘‘तुम्हारे ससुराल वालों को सूचना दे दी गई है, लेकिन कोई आएगा इसकी संभावना दिखाई नहीं देती। तुम्हारी खोज उनके कहने पर नहीं बल्कि, तुम्हारे पिता के कहने पर की है हमने।’’
मैंने तड़पकर जवाब दिया, ‘‘कौन आता है, कौन नहीं, इसकी मुझे चिंता नहीं है लेकिन यह जानने का अधिकार मुझे है कि आखिर हमें इधर क्यों लाया गया? क्या आवश्यकता थी हमें अपमानित करने की?’’
संचालिका मुस्कराई। बोली, ‘‘देश की प्रतिष्ठा का प्रश्न था वह।’’
‘‘आप सर्जक हैं, क्या मैं आपसे पूछ सकती हूँ कि मनुष्य का अपमान करके कोई देश अपनी प्रतिष्ठा कैसे रख सकता है? उधर मैं जैसी भी थी घृणा का पात्र नहीं थी। माँ को भगवान के समकक्ष मानने वालों के देश में नारी का अपमान क्या प्रमाणित करता है, क्या यह भी बताना होगा आपको?’’
संचालिका ने ठीक कहा था। कोई नहीं आया मेरी ससुराल से। आए बस मेरे पिता, लेकिन मिलने का साहस वे भी नहीं बटोर सके। मेरी बात सुन चुके थे। अपनी पापिष्ठा बेटी से आँखें कैसे मिलाते। संचालिका ने बताया कि वे दूर से ही देखते रहे, रोते रहे। फिर वहीं से लौट गए। बाद में उन्होंने एक हज़ार रुपया मेरे लिए भेजा था फिर मैं किसी गाँव में जाकर रह सकूँ और अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ। आवश्यकता पड़ने पर और भी भेजते रहने का आश्वासन दिया था। लेकिन वह नहीं चाहते थे कि मेरी माँ मेरे बारे में कुछ जाने।
सुनकर मैं हँस पड़ी थी। अब मुझे रोना नहीं आता था। पंडित लोग इसे योग की स्थिति बताते हैं। सिद्धावस्था यही नहीं है क्या…शास्त्र तो, मैंने सुना था यह भी कहते हैं कि आदमी कुछ नहीं करता। प्रकृति उसे अपने काम में जोत देती है। यानी हम यंत्र हैं किसी निश्चय करने वाली शक्ति के। तब वे लोग मुझसे नफरत क्यों करते हैं, क्यों मेरे दोस्त…
लेकिन अभी रहने दीजिए इस प्रश्नाकुलता को। अभी तो कहानी का चरम उत्कर्ष आना शेष है। और शेष है मुझे अभी और कटुता का विष पीना। हर दूसरे-तीसरे दिन मैं अनुभव करती थी कि कोई चुपचाप मुझे और मेरे बच्चों को देख रहा है। चुपचाप संचालिका से बातें कर रहा है। एक दिन संचालिका ने मुझसे पूछा, 'तुम यहाँ से कहीं जाना चाहती हो?'
मैंने एक क्षण उनकी ओर देखा, फिर यंत्रवत् बोली, 'हाँ।'
उन्होंने कहा, 'मैंने तुम्हारे लिए दूर एक पहाड़ी गाँव में रहने का प्रबंध कर दिया है। वहाँ के स्कूल में तुम पढ़ा सकोगी। गृहशिल्प में तुम निपुण हो। गाँव की महिलाओं को प्रशिक्षित कर सकती हो, लेकिन तुम इन बच्चों को कैसे पालोगी? क्या यह अच्छा नहीं होगा कि इनमें से कुछ बच्चे भले लोगों को गोद दे दिए जाए...?' मेरे भीतर सोई नागिन उस दिन पहली बार जाग उठी। आवेग इतना प्रबल था कि शब्द नहीं निकल रहे थे। चाहा कि धक्का देकर उन्हें दीवार से दे मारूँ...। संचालिका, जो सचमुच मेरे प्रति अतिरिक्त सदय हो उठी थी, मेरा यह रूप देखकर घबरा गई, तुरत बोली, 'नहीं, नहीं, यह जरूरी नहीं है। जल्दी भी नहीं है। मेरे मन में एक विचार उठा था, कह दिया। सोच-देखना तुम।' और वह तुरत मेरे सामने से हट गई। दो क्षण बाद आवेग कुछ शांत हुआ तो मैं स्वयं अपने पर चकित थी और किंचित् लज्जित भी। मैं जानती थी कि मैं जीवन भर किसी पर आश्रित नहीं रह सकती। कुछ-न-कुछ प्रबंध मुझे करना ही होगा। गाँव जाने के लिए मैं इसलिए तैयार थी कि मैं अपने तथाकथित परिजनों से अब और अपमानित नहीं होना चाहती थी। पिताजी से दान लेना स्वयं अपना अपमान करना था। दुर्बलता के किन्हीं क्षणों में चाहा था कि उन्हें पत्र लिखूँ। याद करूँ लाड़-प्यार के उन दुर्लभ क्षणों की। फिर सोचा कि जो संस्कारों की जड़ता को तोड़कर मेरी वेदना में सहभागी नहीं हो सकता, उसको पीड़ा पहुँचाना आत्मपीड़न ही नहीं होगा क्या?...मैं गाँव चली जाऊँगी और अपनी संतान को पालूँगी स्वयं।
प्यारे दोस्त! मैंने आपको बताया न, जो पाप और पीड़ा की राह आया और जिसकी हत्या करनी चाही मैंने, वही अनवर, यानी अनिल मुझे सबसे अधिक प्यार करता है। मेरी सारी घृणा पी गया है वह नीलकंठ महादेव की तरह। ऐसे बरताव करता है, जैसे वही मेरा गार्जियन है, पूछता है कभी-कभी, 'अम्मी! ये सब हमें क्यों देखते हैं?'
आयु के आठवें वर्ष में ही विधाता ने कितना बोझ रख दिया इसके कंधों पर। इसके विपरीत नूर का बेटा अशरफ, जो अब अशोक है, बेहद उदंड है। हर समय किसी-न-किसी से फौजदारी करने पर तुला रहता है, लेकिन पढ़ने में बहुत होशियार है। असगर उर्फ असित सचमुच शायर का बेटा है। छह वर्ष का हुआ अभी, पर न जाने कहाँ खोया रहता है। कभी-कभी उनींदी आँखों से मुझे ऐसे देखता है कि मेरे दिल में फारुखी की याद कसक उठती है!
कितनी यादें, कितने मंजर, किसको भूलूँ, किसको याद करूँ। मुजफ्फर शायद मुझे अब भी ढूँढ़ता फिरता होगा। कहीं अपने बच्चों का दावा करने न आ पहुँचे वह। उसके दोनों बच्चे अहमद
और अली, जो अब अमित और अजित के नाम से पुकारे जाते हैं, अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानते। कभी-कभी पूछते हैं, सभी पूछते रहे हैं और मैं झूठ बोलती रही हूँ। किसी को कभी मैंने सच नहीं बताया। सच कुछ होता है क्या? किसी सच को नापने का यंत्र अभी तक कोई वैज्ञानिक नहीं बना पाया है।
स्कूल के रजिस्टर में माँ का नाम कभी नहीं लिखा जा सकता। अनिल, अशोक, असित, अमित और अजित का कोई बाप है नहीं। हैं तो अशरफ, असगर, अहमद और अली के हैं। अनवर के बाप को तो कोई जान ही नहीं सकेगा। कैसा अच्छा था उपनिषद् काल का भारत। उस काल के परमतत्त्ववेत्ता सत्यकाम की दासी माँ जाबाला यह कहने का साहस रखती थी, 'मैं नहीं जानती कि तुम्हारे पिता कौन थे? तुम मेरे बेटे हो। मेरा ही नाम लिखा दो गुरु के रजिस्टर में।'
और तब सत्यकाम का नाम हुआ, सत्यकाम जाबाल। क्या आज मेरे बेटों को वह अधिकार मिल सकता है? क्या वे गर्व से सिर उठाकर कह सकेंगे कभी, 'हमें नहीं पता कि हमारा पिता कौन था, हम माँ का नाम जानते हैं और उनका नाम है प्रतिमा। वही लिख लीजिए अपने रजिस्टर में।'
मातृत्व को नारी का चरम सौंदर्य माना गया है। वह मुझे मुक्तकंठ से मिला है। किस ओर से मिला, यह प्रश्न गौण है...इसे एक और दृष्टि से भी देखिए, आर्य परंपरा में माँ का पद सर्वोच्च है। इसीलिए तो उसे जहर भी सबसे अधिक पीना पड़ता है, नारी होने के अपमान का जहर। मुझे कहने दो मेरे दोस्त! जिसे सबसे अधिक अपमानित करना होता है, उसे ही सबसे सुंदर विशेषण दिए जाते हैं। बलि के बकरे को हृष्ट-पुष्ट नहीं करेंगे तो कौन खरीदेगा उसे? आपने नर-नारी के संबंधों के सौंदर्य में इस तथ्य की चर्चा नहीं की है। पुरुष हैं न अंततः...।
आप सोचेंगे कि मैं इतनी क्रूर क्यों हो उठी हूँ! उस दिन तब वर्षा हुई थी। वातावरण एक सोंधी-सोंधी गंध से महक रहा था। मैं अपने कमरे की खिड़की को खोलने के लोभ का संवरण न कर सकी। यह वही खिड़की है, जिसकी सलाखों पर अपना भीगा चेहरा टिकाकर मैंने आपको देखा था।
उस दिन देखा किशोर होते एक बालक को; स्वस्थ्य, सुंदर, स्कूल की शुभ्र श्वेत पोशाक, पीठ पर बस्ता, धीरे-धीरे चौकन्ना सा वह आश्रम के मुख्य द्वार तक आया और वहीं से उचकउचककर मेरी खिड़की की ओर देखने लगा। मैं चौंकी, मेरा कौतूहल जाग आया। मैंने सलाखों पर चेहरा टिकाकर उसे गौर से देखा। हमारी दृष्टि मिली, उसने जैसे प्रेत देखा हो, तेजी से मुड़ा और ताबड़-तोड़ भागने लगा। एक बार भी मुड़कर नहीं देखा उसने।
हतप्रभ-स्तब्ध मैं एक क्षण तो समझ न पाई। फिर एक ठंडी सिहरन मेरी नस-नस में उतरती चली गई, 'कहीं...कहीं!'
'नहीं...नहीं...' मैं तेजी से मुड़ी। अनिल सामने आ गया।
मेरी ओर देखा उसने। चेहरे पर प्रश्न उभरा, 'क्या है मम्मी?'
'कुछ नहीं, कुछ नहीं बेटे?' मैंने अपने को सहेज लिया, पर भीतर...
'एक बात बताऊँ, मम्मी?'
'क्या बात?' मैं फिर सिहरी।
'मैं बताना भूल गया था,' अपराधी की तरह उसने कहा, 'कई दिनों से एक लड़का यहाँ आता है।'
'यहाँ तो बहुत लोग आते हैं। लड़के भी आते हैं उनमें। तुम किस लड़के की बात कर रहे हो?'
'वही, जो अभी आया था।'
'वही।' मैं सिहरती-सिहरती फुसफुसाई, 'वही...।'
अनिल कहता रहा, 'वह बहुत अच्छा है। उसने मुझे चॉकलेट दिया था। उसने पूछा था, यहाँ कोई प्रतिमा रहती है?'
'मैंने एकदम कहा, हाँ, अब मेरी अम्मी का यही नाम है।'
उसने पूछा, 'अब यह नाम है। पहले नहीं था?' ।
मैंने कहा, "पहले तो उनका नाम सुरैया बेगम था। जैसा मेरा नाम अनवर था, अब मैं अनिल हूँ।"
वह बोला, "तब वह कोई और है, लेकिन क्या तुम मुझे उन्हें दिखा सकते हो?"
मैंने कहा, "हाँ, हाँ, उस खिड़कीवाले कमरे में रहते हैं हम। आओ मेरे साथ।"
न जाने वह कौन-सी 'मैं' थी, जो यह सब सुन रही थी और न जाने वह भी कौनसी 'मैं' थी, जिसने पूछा था, “उसका नाम जानते हो?"
"हाँ, हाँ, आशिम है उसका नाम।"
मैं दोनों हाथों से दीवार न थाम लेती तो निश्चय ही गिरकर बेहोश हो गई होती पसीने से तर हो आई थी। अनिल ने सहज भाव से पूछा, "तुम उसे जानती हो, अम्मी ?"
मैंने तीव्रता से प्रतिवाद किया, मानो चीख उठी हूँ, "नहीं, नहीं, में किसी को नहीं जानती यहाँ।"
अनिल ने अब मेरी ओर देखा। मेरे श्वेत हो आए चेहरे को देखकर घबरा गया वह। बोला, "तुम्हारी तबीयत खराब है, अम्मी ! तुम लेट जाओ।"
बेचारा अनिल ! क्या बताऊँ उसे? अपने को बटोरकर इतना ही कहा, "नहीं बेटे ! मेरी तबीयत ठीक है, लेकिन तुम अब उससे बात मत करना। हमें अजनबियों से दोस्ती नहीं..." मैं अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाई।
उसने दीर्घ निःश्वास खींचकर कहा, "अच्छा।"
उसका यह 'अच्छा' शब्द सुनकर मुझे आपकी याद आ गई। आपने भी तो उस दिन इसी तरह कहा था, 'अच्छा'। पर कहाँ आप, कहाँ यह बच्चा। मैं पागल हो उठी। उसके मुँह से यह शब्द सुनकर मैंने चाहा कि दोनों हाथों से उसका गला घोंटती रहँ, घोंटती रहूँ... लेकिन हुआ यह कि मैंने खींचकर उसे अपनी छाती में भर लिया और अपने को और रोकने में असमर्थ हो फट-फूटकर रोने लगी।
जानते हो, दो क्षण बाद मुझे क्या लगा था? लगा था कि वह अनिल नहीं है, आशिम है और मैं ताबड़-तोड़ उसका मुँह चूम रही हूँ...।
कई दिनों तक मैं सीखचों पर मुँह टिकाए उसी दिशा में टकटकी बाँधे देखती रही, पर वह फिर नहीं आया, आया एक सपना ...।
....भटकते-भटकते किसी शानदार बँगले में पहुंच गई हूँ। कैसी ऐय्याशी...कैसी प्रचुरता! पर यह चीख कैसी है, किसी बच्चे की मौत की चीख... भागी-भागी मैं अंदर गई। देखा कि एक क्रूर युवक आठ-नौ वर्ष के एक बच्चे को बेंतों से पीट रहा है, "कंबख्त, अगर अब कभी उधर पैर भी रखा तो जमीन में गाड़ दूंगा।"
बच्चा चीखा, "नहीं, नहीं, मैं नहीं जाऊँगा। मुझे मारो मत ...मुझे मारो मत।"
पहचान लेती हूँ, वह क्रूर युवक मेरा देवर है। उसके पीछे खड़ी है मेरी सास। मैं तड़पकर आगे बढ़ती हूँ और युवक के हाथ से बेंत छीन लेती हूँ, "उस मासूम को क्यों मारते हो? अपराधी मैं हूँ, मुझे मारो!"
वे सकपकाकर मेरी ओर देखते हैं, पहचान लेते हैं। दूसरे ही क्षण आशिम भागता हआ मुझसे आ चिपकता है और मेरी बाँहों में बेहोश हो जाता है...।
मेरी सास चीख रही है, “निर्लज्ज, कलंकिनी, तुझसे मरा नहीं गया? तेरी लाश पाकर हम कितने गौरवान्वित होते!"
तभी मेरी नींद खुल जाती है, अँधेरे में बार-बार आँखें फाड़े देखती रहती हूँ। सोचती रहती हूँ, "क्यों आदमी अपने से ही छल करता है? अपने ही 'मैं' से अजनबी हो जाता है... जो नितांत मेरा अपना है, जो प्यार का प्रतिरूप है, उसी से वंचित हूँ मैं। कारण कुछ भी रहा हो, कुंती कर्ण के पास जा सकी थी, पर मैं...।"
उसी दिन संचालिका के पास गई मैं। बोली, “आप मुझे दूर किसी पहाड़ी गाँव में भेज रही हैं न! मैं तैयार हूँ आज ही जाने के लिए, पर मेरे बच्चों को मुझसे अलग मत कीजिए। मैं उनका अपमान नहीं होने दूंगी।"
मेरे दोस्त! मैं अगले हफ्ते जा रही हूँ एक और जीवन जीने के लिए। न जाने क्यों आपको देखने की चाह उभर आई है मन में। क्यों लगने लगे हैं आप अपने? इसी अपनेपन के कारण ही आपको 'दोस्त' कहकर संबोधित किया है मैंने। मन दोस्त के सामने ही खोला जा सकता है। कैसा है यह अनोखा रिश्ता...सपनों में जुड़ा और आँखें खुली तो हाथ लगा एक विराट शून्य...फिर भी भरोसा मुझे है और वह मेरे अंदर से आया है बिना किसी के दखल के। जिस घोर यंत्रणा और संत्रास के दौर से मैं गुजरी हूँ, उसने मुझे यही संपदा तो बख्शी है। यह मेरे अंदर की गहराई में समा गई है। इसे भौतिक नेत्रों से नहीं देखा जा सकता।
अच्छा! बाहर वर्षा होने लगी है, होनी चाहिए। चाहिए न ठूँठ में नई कोपलें फोड़ने के लिए...
आपकी,
प्रतिमा उर्फ आयशा, उर्फ सुरैया उर्फ प्रतिमा...
समाप्त......
विष्णु प्रभाकर......