टेढी पगडंडियाँ - 44 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टेढी पगडंडियाँ - 44

 

टेढी पगडंडियाँ 

 

44 

 

उस दिन सारी दोपहर गुरजप तो शांत सोया रहा पर किरण का वह सारा दिन सोचों में उलझते सुलझते बीता । जबसे ये चाचा भतीजा उसे जबरन उठाकर इस घेर में ले आये थे ,

ये सवाल उसे हर दूसरे तीसरे दिन परेशान करता रहा था कि उसका समाज में क्या अस्तित्व है । क्या हैसीयत है उसकी इस गाँव में । हवेली में आज तक उसने जाकर नहीं देखा । जबसे वह इस गाँव में लाई गयी है , अब तक सिर्फ एक बार गयी थी वह हवेली । वह भी बाहर डयोढी के फाटक तक । उस दिन जब उनके गाँव की पंचायत और पुलिस के साथ उसका बापू मंगर आया था । तब बसंत उसे हवेली लेकर गया था । तब भी वह हवेली के फाटक से ही वापस लौट आई थी । इसके अलावा वह कभी गयी ही नहीं हवेली । न कोई उसे लेकर गया । न किसी ने उसे आने के लिए कभी कहा ।
निरंजन और गुरनैब के नाते से पूरे गाँव के लोग उसे चाची कहते हैं । छोटे बङे सारे के सारे । बच्चे भी , औरतें भी और मरद भी । पहले पहले जब बङे बङे आदमी उसे चाची कहकर पुकारते थे तो उसे बहुत अजीब लगता था । अट्ठारह साल की अल्हङ उम्र में वह जगत चाची हो गयी थी । वह अक्सर झुंझला जाती । गुस्से से लाल हो जाती । कई बार उसने आपत्ति भी जताई थी । उसे चाची क्यों कहा जा रहा है । वह तो उम्र में सबसे छोटी ठहरी पर लोग हँस कर उसकी बात टाल जाते । फिर धीरे धीरे वह इस पुकार की आदी हो गयी । उसे इसी तरह सम्मान मिल रहा है तो यही सही । कम से कम गाँव के लोग इस नाते को स्वीकार तो कर रहे हैं , यह सोच कर वह तसल्ली से भर उठती ।
निरंजन के मर जाने पर वह एक दोराहे पर आ खङी हुई थी । अब आगे क्या होगा ? ऐसे में अगर गुरनैब उसे थाम न लेता तो वह कहाँ जाती , क्या करती । मायके में तो उसके घर के दरवाजे उसके लिए बंद हो चुके थे । उन्होंने तो कभी मुङकर देखा ही नहीं कि वह जिंदा है या मर गयी । सिर्फ इतने से संतुष्ट होकर उसे यहीं छोङ कर चले गये कि एक जमींदार के घर में उसे पनाह मिल गयी है । इतने बङे जमींदार ने उसका हाथ थाम लिया है । अब उसे गहने और कपङों की कोई कमी नहीं होगी । वह रानी बन कर राज करेगी ।
उनकी यह सोच ज्यादा गलत भी नहीं थी । इतनी बङी कोठी उसे रहने के लिए मिली थी । गुरनैब उसकी वीरान जिंदगी में बहार बन कर आया था । खाना पीना , कपङे , गहने उसके पास हमेशा ढेर लगे रहे पर सिमरन का घर से रूठकर चले जाना , यह खबर उसके दिल पर बिजली बनकर गिरी थी । अनजाने में ही वह सिमरन के संताप का कारण बन बैठी थी । उसने कभी सपने में भी नहीं चाहा था कि वह किसी के दुख का कारण बनेगी । वह सिमरन से मिल कर उससे माफी माँगना चाहती थी । उसके पैरों में गिर कर आँसू बहाना चाहती थी । अपनी स्थिति उसके सामने स्पष्ट करना चाहती थी पर सिमरन ने उसे ऐसा करने का मौका दिया ही नहीं । बिना कोई लङाई झगङा किये चुपचाप , नौकरी करने के नाम पर गुरनैब की जिंदगी से दूर जा बसी । ऐसे में किरण के पास सिवाय हालात के सामने घुटने टेकने के और चारा ही क्या था । उसने अपने आप को भाग्य की लहरों के हवाले कर दिया । तकदीर जो दिन दिखाए , वह सिर झुका कर देख लेगी । जिंदगी में आये हर जहर को चुपचाप गले के नीचे उतार कर पी जाएगी । उफ तक न करेगी वह ।
और उसने यही किया था । भाग्य से समझौता करके उसने खुद को गुरनैब की रखैली के रूप में स्वयं को स्वीकार कर लिया था । पहले पहल तो गुरनैब वक्त देख कर ही उसकी कोठी में आता था या कोई फल सब्जी आदि देने । फिर धीरे धीरे किसी भी वक्त आने लगा था । आ जाता तो तीन चार घंटे उसके साथ बिता कर जाता । पर जब से गुरजप हुआ है वह अक्सर आ जाता है । उन्हें बाजार भी ले जाता है । अक्सर शापिंग करने वह शहर आते जाते रहते हैं । अब तो पिछले चार पाँच साल से वह यह भूल ही चली थी कि वह गुरनैब की पत्नी नहीं महज एक मिस्ट्रैस है । आज गुरजप के सवालों ने उसे फिर से अपनी हैसीयत याद दिला दी थी । उस नन्हीं सी जान को दोस्तों के इतने सारे सवालों का सामना करना पङ गया था ।
आज तो उसने खीर खिलाकर और बातें बना बना कर गुरजप को बहला लिया पर जब यह बङा होगा तब यही सवालों के नाग माँ बेटा दोनों को डसने लगेंगे , वह क्या करेगी ।
चाची चाची ओ चाची , लस्सी है क्या – बाहर गली में खङी रक्खी ताई आवाज दे रही थी ।
आवाज सुनकर किरण बाहर आई ।
पैरी पैनी आ ताई । आ जा अंदर आ । लस्सी जितनी मरजी ले जा ।
रक्खी अंदर आ गयी और उसने अपना डोल किरण को पकङा दिया । किरण ने डोल में लस्सी डालकर डोल ताई को पकङाया – बैठ ताई , चाय पीकर जाना ।
फिर आ जाऊँगी चाची । अभी तो तार का बापू खेत से आया है । उसे रोटी देनी है ।
ताई रक्खी डोल थामे चली गयी । किरण ने दरवाजा बंद किया । भीतर जाकर धोने के लिए कपङे निकाले और नल पर ले आई । उन्हें साबुन से रगङ रगङ कर मसला और थपकी से पीट पीटकर धोने लगी । मानो सारा गुस्सा , सारा तनाव इन कपङों पर ही निकालना चाहती हो । आखिर सारे कपङे धुल गये । तो उन्हें निचोङ कर उसने तार पर सूखने डाला । हाथ मुँह धोकर उसने गीले कपङे उतारे और सूखे कपङे पहन कर कंघा करके तैयार हो गयी । शाम के साढे पाँच बज रहे थे । थोङी देर में गुरनैब आने वाला होगा । वह गुरजप को उठाने चली गयी ।

 

शेष कहानी अगले अंक में ...