साहेब सायराना - 38 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 38

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"लोग कहते हैं कि आप अभिनेता नहीं बल्कि स्वयं में ही अभिनय हैं। ये मुकाम आपने कैसे हासिल किया?"
दिलीप कुमार इस प्रश्न का जवाब बड़ी सादगी से देते हैं। वो कहते हैं कि डायरेक्टर की बात न मान कर।
अरे!!! पूछने वाला चौंक जाता है। उसे लगता है कि दिलीप कुमार ने तो देश के बड़े से बड़े फ़िल्म निर्देशक के साथ काम किया है, एक से बढ़कर एक बेहतरीन फिल्मकारों के साथ उनकी कई बेमिसाल फ़िल्में हैं। कहीं वे एक असफल आशिक हैं तो कहीं उनकी भूमिका एक अंधे गायक की है। कभी वो राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले क्रांतिकारी कैदी बने हैं तो कहीं देहाती किसान, कहीं शराबनोशी करने वाले तो कहीं नशे के खिलाफ़ लंबे लंबे भाषण झाड़ने वाले...
बाप रे! ऐसे में डायरेक्टर की बात न मान कर कैसे काम चलेगा? एक कलाकार को हर किरदार की बारीकी, उसका फलसफा, उसकी खासियत - खुसूसियत मालूम होती है क्या? एक साथ एक ही दिन में कई - कई भूमिकाओं को करते हुए उनमें घालमेल नहीं हो जाता होगा क्या?
जो लोग दिलीप कुमार को जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि ये सब समस्याएं दिलीप कुमार को नहीं आतीं। पहली बात तो ये कि वो एकसाथ कई फ़िल्में नहीं लेते। उन्होंने चुनिंदा काम ही किया है। शायद इसी बात ने उन्हें अपने दौर का महानतम सितारा बनाया है।
दिलीप साहब बताते हैं - डायरेक्टर कहता है कि इस दृश्य में सामने तुम्हारी मां मरी पड़ी है...
अब मैं जानता हूं कि सामने जो ललिता पवार पड़ी हैं वो मरी नहीं, बल्कि आंख बंद करके लेटी हुई हैं। अभी थोड़ी देर पहले उन्होंने साथ में खाना खाया है, दृश्य के बाद फ़िर उठ कर खड़ी हो जाएंगी और चलने फिरने लगेंगी...
लेकिन मैं ये सब भूल जाता हूं और मेरा ध्यान सीधे अपनी मां पर चला जाता है। उस लम्हे पर चला जाता है जब वो सच में दुनिया में नहीं रहेंगी ... और तब ये सोचकर मैं कैमरे के सामने आता हूं।
दिलीप कुमार जैसे अपने किसी रहस्य का खुलासा करते हैं। वो कहते हैं कि मान लीजिए किसी फ़िल्म में मैं तीस बरस का युवक हूं, तो मेरा काम केवल तीस बरस के उस आदमी को परदे पर चरितार्थ करने से शुरू नहीं होता। मैं अपने जेहन में पहले उस शख़्स के उससे पहले गुज़रे हुए उनतीस बरस भी लाता हूं। ये मेरी अपनी कल्पना, खोज या पड़ताल होती है कि पिछले उनतीस बरस उसके साथ क्या हुआ होगा, उसका जीवन कैसा रहा होगा। मुझे फ़िल्म की पूरी स्क्रिप्ट से भी इस बाबत जानकारी मिलती है। और तब ये फ़ैसला होता है कि तीसवें साल में वो आदमी कैसा होगा, उसका बर्ताव कैसा होगा, उसकी शख्सियत कैसी होगी। बस इसी को आप लोग मेरा रोल में इन्वॉल्व हो जाना कह सकते हैं।
लेकिन इसी इनवॉल्वमेंट ने दिलीप कुमार को कष्ट भी दिए हैं। जीवन में एक बार जब वो डिप्रेशन के शिकार हो गए तो इलाज के लिए उन्हें लंडन जाना पड़ा। वहां चिकित्सकों ने काउंसलिंग के दौरान उन्हें बताया कि यदि आप एक्टिंग के दौरान अपने कैरेक्टर में इतना डूब जाते हैं तो फिर ट्रेजिक रोल्स की तुलना में कुछ हल्के- फुल्के कॉमेडी रोल्स भी कीजिए। उससे आपकी प्रॉब्लम माइल्ड होगी।
सब जानते हैं कि दिलीप कुमार ने अपने बाद के दिनों में कुछ ख़ालिस कॉमेडी फ़िल्में भी बेहतरीन ढंग से अंजाम दीं।
अपनी मर्ज़ी से अपनी भूमिका को निभाने और निर्देशक की बात न मानने को लेकर दिलीप साहब का कहना था कि "गंगा जमना" के निर्देशक चौंसठ साल के थे। मुझे लगा कि अब इतना उम्रदराज आदमी मुझे कैसे बताएगा कि मैं घोड़े पर कैसे छलांग लगाऊं, चलती ट्रेन से कैसे कूदूं...सो मैंने अपना दिमाग़ लगाया। सीन को बेहतरीन बनाने की कोशिश की। बाद में जब सबने, और ख़ुद उन्होंने भी तारीफ़ की तो मुझे लगा कि इसमें कुछ गलत तो नहीं है।
हम लोग संवाद लेखक के साथ बैठ कर भी कुछ- कुछ अपने हिसाब से कर लेते। कोशिश तो यही रहती थी कि चीज़ को अच्छा बनाएं। अब आप पर है, आप कह लें कि दिलीप कुमार सबके काम में दखल देते हैं। दिलीप कुमार को तो हर लम्हा बस अपने दर्शकों का ही ख्याल आया कि अपनी ओर से उन्हें अपना बेहतरीन दिया जाय।