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भारतीय संस्कृति में "घर" की अवधारणा बहुत पुरानी है। इसका आधार यह है कि एक पुरुष और एक स्त्री मिलें और आपसी संसर्ग से संतान पैदा करके एक छत के नीचे उनकी परवरिश करते हुए उन्हें भविष्य का मुकम्मल इंसान बनाएं।
मूल रूप से इस अवधारणा में दोनों के काम का बंटवारा भी कर दिया गया। कहा गया कि औरत घर में रहे, रोटी कपड़ा और मकान का रख रखाव, देखभाल और साज सज्जा करे। पुरुष घर से निकल कर ये देखे कि रोटी कपड़ा और मकान अनवरत मिलते रहें और इनकी देखभाल के लिए ज़रूरी धन आता रहे। इस तरह बनी जगह को घर कहा गया और उम्मीद की गई कि यहां रह कर संतान की शिक्षा और पालन पोषण हो।
ये बहुत पुरानी और शुरुआती बात थी।
समय बदला और घर की परिभाषा, तौर तरीके तथा संचालन के ढंग बदलने लगे। मसलन मर्द को लगा कि सिर्फ़ मैं ही क्यों कमाऊं? औरत को लगा कि मैं बस घर में ही क्यों रहूं? नए नए समीकरण बनने - बिगड़ने लगे।
हिंदी फ़िल्मों की दुनिया में एक बात पर शायद अब तक कभी ध्यान नहीं दिया गया कि यहां कलाकारों के लिए घर, विवाह, संतान को लेकर चाल ढाल आम समाज से कुछ अलग सी रही।
यहां अधिकांश बड़े कलाकारों ने अजीबो गरीब घर बसा कर तोड़े भी, बदले भी। कोई गांव से घरेलू सी घरवाली लेकर आ गया तो किसी ने अपनी तरह नामवर कलाकार से ही शादी की।
लेकिन इस संदर्भ में शायद सबसे सम्मानजनक, सच्चा और लंबा मुकाम दिलीप कुमार और सायरा बानो को ही हासिल हुआ। यही कारण है कि जो क़िताब आपके हाथों में है उसका नाम करण "साहेब सायराना" किया गया है। ये नाम दिलीप साहब की शख्सियत का आदर तथा सायरा जी के प्रति सम्मान भी है और आपके लिए क़िताब के शीर्षक का खुलासा भी।
यदि हम पिछली सदी की अन्य बड़ी हीरोइनों की बात करें तो कहानी कुछ यूं है -
नर्गिस ने राजकपूर से बेपनाह मुहब्बत की किंतु अकस्मात एक घटना के बाद उनका विवाह अन्य धर्म के सुनील दत्त से हो गया।
मधुबाला का प्रेमजीवन भी छोटा और बीमार सा रहा तथा गृहस्थ जीवन भी। रुग्णता उन्हें जल्दी संसार से ले गई।
मीना कुमारी का विवाह कमाल अमरोही से हुआ लेकिन उन्होंने जीवन भर अपने पति को तन मन से दूर पाया और अंततः मदिरा को गले लगाया।
वैजयंती माला ने सात संतानों के पिता डॉक्टर साहब से विवाह किया और राजनीति के तड़के सहित गुमनामी भरा लंबा जीवन बिताया।
साधना का विवाह उनके मनमाफिक उनके उद्दाम प्रेमी से हुआ किंतु छोटी उम्र में बीमारी ने उन्हें फ़िल्मों से दूर कर दिया।
आशा पारेख और नंदा ने विवाह किया ही नहीं। माला सिन्हा, वहीदा रहमान, बबिता और राखी का वैवाहिक जीवन बहुत खुशनुमा नहीं रहा।
शर्मिला टैगोर को मनपसंद विवाह का सुख धर्म परिवर्तन के बाद ही हासिल हुआ। हेमा मालिनी और श्रीदेवी दूसरी पत्नियां बनीं और एक बसे हुए परिवार के दुःख और संताप का कारण बनीं। रेखा कई विवाह करके भी आज अकेली हैं। मुमताज, रीना रॉय, राजश्री, माधुरी दीक्षित को गैर फिल्मी लोग विवाह के बाद उनके चढ़ते हुए करियर ग्राफ के बावजूद उनसे फिल्म जगत छुड़ा ले गए। तनुजा और जया बच्चन ने पति के साथ प्रतिस्पर्धा के तनाव फिल्मों के साथ- साथ निजी ज़िंदगी में भी झेले।
बस हम और आगे बात नहीं करेंगे। ये बात उस दौर की है जिसे फिल्मों का "गोल्डन एरा" यानी स्वर्ण युग कहा जाता है।
अब बात दिलीप कुमार और सायरा बानो की!
ये सबसे सफ़ल जोड़ी सबके लिए एक मिसाल बनी। ये दोनों एक ही प्रोफेशन में रहते हुए भी एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं बल्कि एक दूसरे के प्रतिपूरक बने। दोनों ने अपना अपना मनपसंद काम भी पूरी आज़ादी से किया और साथ में भी फिल्में कीं। सही अर्थों में ये एक दूजे के लिए बने हुए ही साबित हुए। एक और एक ग्यारह सिद्ध हुए।
इनका वैवाहिक जीवन लगभग चौवन वर्ष चला और एक दूसरे में खोकर आदर व सम्मान से गुज़रा। किसी पति के लिए इससे बड़ी सौगात और क्या होगी कि सायरा जी ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा - "पति की देखभाल दस औलादों की परवरिश करने के बराबर है!"
सायरा यूसुफ मयी होकर रहीं और उनके दिलीप साहेब बन गए ... "साहेब सायराना"!