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कामयाबी और शोहरत कभी अकेले नहीं फिरते।
उनके इर्द गिर्द मोहब्बतें, इबादतें, तिजारतें और मिल्कियत भी रहती है।
मुझे नहीं मालूम कि इन बातों पर कभी किसी ने गौर किया या नहीं किया लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि दिलीप कुमार से समाज के सबसे निचले तबके तक के लोगों ने कुछ न कुछ कमाया।
ये रोचक जानकारी मुझे एक ऐसे युवा पत्रकार के माध्यम से मिली जो अपने संघर्ष के दिनों में नई बात खोजने के लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर रहता था।
फिल्मी सितारों की शोहरत कैसी होती है इसकी मिसालें हम सब आए दिन सुनते ही रहते हैं। कभी अमिताभ बच्चन के बंगले के बाहर किसी का उन्हें देखने के लिए धूनी रमा लेना, कभी राजेश खन्ना को लड़कियों का खून से खत लिखना या कभी पार्किंग में खड़ी ऋषि कपूर की कार की स्टियरिंग पर किसी लड़की का अपना दुपट्टा लपेट जाना हम सुनते ही आए हैं। लेकिन इन क्षणिक जुनूनों के आवेग से हट कर एक किस्सा दिलीप कुमार से संबंधित भी चर्चा में आया।
बांद्रा कुर्ला के बीच एक शिक्षक ने छात्रों को पढ़ाया कि देश की अर्थ व्यवस्था में जब किसी बस्ती में कोई दिलीप कुमार रहने आता है तो उसके साथ उसके बंगले के आसपास कई चूल्हे और भी जलने लगते हैं। यहां बात केवल अमीर - गरीब की नहीं है बल्कि लोकप्रियता और मोहब्बत की भी है।
उन शिक्षक महोदय ने ऐसा कहने का दिलचस्प कारण भी दोपहर के एक अखबार के उस पत्रकार को बताया।
झुग्गी बस्ती की संकरी सी सड़क के किनारे हर शुक्रवार को लगने वाली एक हाट में उसने कुछ शोहदेनुमा लड़कों को ढेर की शक्ल में कुछ ऐसा सामान बेचते हुए पाया जिसे "दिलीप कुमार का सामान" कह कर बेचा जा रहा था। जाहिर है कि उस कबाड़नुमा फेंके गए सामान की कीमत उन वस्तुओं के मूल्य से कुछ अधिक ही मिल रही थी क्योंकि यह उसके साथ दिलीप कुमार का नाम जुड़ा हुआ था। ये किस्सा किसी भी अपने ज़माने के बड़े फिल्म स्टार का हो सकता था लेकिन इसे यहां इसीलिए बताया जा रहा है क्योंकि ये दिलीप कुमार से जुड़ा था।
इस सामान में उनके आवास से फेंके गए फटे पुराने कपड़े, जूते चप्पल, बेल्ट, कैप, कॉलर्स, पुराने समय के ट्राउजर्स के गैलिस पट्टे, इलास्टिक, टाइयां, टाई पिन, इजारबंद, कफ लिंक्स तक शामिल थे।
इस तिजारत की अहमियत फकत इतनी ही मानी जा सकती है कि इस सामान को खरीदने वाले का मानस कई दिनों तक दिलीप कुमार की चीज़ के इस्तेमाल के काल्पनिक अहसास से तारी रहे।
ये बातें आपको दिलीप कुमार नाम के शख्स को ग्रीक यूनानी देवताओं के समकक्ष बैठाती सी लगें तो लगें। यूनान के पुरुषों को दुनिया में सबसे सुंदर माने जाने की परंपरा रही है। अपनी बात के प्रमाण स्वरूप वहां सुंदर देहयष्टि और शरीर सौष्ठव को निर्वस्त्र प्रदर्शित करने का चलन आम है।
लेकिन यहां ध्यान देने की बात यह है कि दिलीप कुमार का आकर्षक शारीरिक सौष्ठव बॉडीबिल्डिंग के आधुनिक प्रतिमानों जैसा मांसल कभी नहीं रहा जैसा कि आज के अधिकांश युवा और फिल्मी हीरो अपनाते देखे जाते हैं। दिलीप के चेहरे में तो एक युवकोचित सौंदर्य का कैशोर्य रूप भोलेपन से दिपदिपाता दिखाई देता था।
जब फ़िल्म के पर्दे पर उनकी उड़ती जुल्फ़ों का जिक्र होता था तो उनके बहुसंख्य प्रशंसकों को दिल ही दिल में कुछ कुछ होता है, जैसा अहसास होता था। इस आभास में उनकी कच्चे दूध सी चिपचिपी शहतूती आवाज़ और इज़ाफा करती थी।
ओह! क्या - क्या कहते थे लोग। दिलीप सदियों में एक ही होते हैं।