साहेब सायराना - 32 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 32

32
इक्कीसवीं सदी आने के बाद दिलीप कुमार मानो एक जीवित अतीत ही हो गए।
जब फ़िल्मों से उन्होंने पूरी तरह विराम ले लिया तो कुछ लोगों का ध्यान इस बात पर भी गया कि एक्टर अब भी अपनी सेहत को लेकर पूरी तरह चुस्त दुरुस्त हैं। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने सामाजिक जीवन के प्रति भी कभी कोई उदासीनता नहीं दिखाई है। वो मुंबई के शैरिफ पद पर भी रह चुके हैं जो पूरी तरह राजनैतिक पद तो नहीं, पर अपने मिजाज़ में उससे कुछ कम भी नहीं।
राजनीति के धुरंधरों को उनमें किसी बड़ी संभावना की गंध आने लगी। उन्होंने अपना राज्यसभा सांसद का कार्यकाल पूरी गरिमा, मर्यादा और शालीनता से पूरा किया था। लिहाज़ा ऐसा सोचा जाने लगा कि दिलीप कुमार के करिश्माई तिलिस्म को चुनावों के अखाड़े में भी आजमाया जा सकता है।
सोचने वालों ने अपनी तरह सोचा किंतु दिलीप कुमार यहां भी अपनी शख्सियत के बादशाह साबित हुए। उनके सामने राजनीतिक गंगा में उतारे गए बजरों की पूरी राम कहानी मौजूद थी।
राजनीति में फिल्मी सितारों की चमक से प्रतिपक्षी की आंखों को चौंधिया देना दक्षिण में तो लोगों ने देखा था। एमजी रामचंद्रन, एनटी रामाराव और जय ललिता की सफ़ल पारियों का इतिहास लोगों के सामने था। लेकिन शायद लोग ये नहीं जानते थे कि रामाराव या जयललिता को राजनीति में "इस्तेमाल" कभी नहीं किया गया था। ख़ुद उनमें जनसेवा की चिंगारी और वो तमाम तत्व विद्यमान थे जो किसी इंसान को जन नायक बनाते हैं। जबकि उत्तर भारतीय संस्कृति में फिल्मी सितारों का प्रयोग केवल काबिल, बड़े और प्रतिबद्ध लोगों को लोकप्रियता की नकारात्मक आंधी से धराशाई कर देने की भावना तक ही सीमित था। किसी समय लोगों ने देखा था कि सत्ता वैजयंतीमाला, सुनील दत्त, राजेश खन्ना आदि को केवल इसी मकसद से चुनावी अखाड़ों में लाई थी कि ये सितारे अपनी चकाचौंध से राजनीति के कुछ असरदार क्षत्रपों का रास्ता रोक कर उनका भविष्य खराब कर दें और तत्कालीन सत्ता का काम आसान करें। अमिताभ बच्चन, राजबब्बर, गोविंदा आदि भी इसी तरह लाए गए। बाद में प्रतिक्रिया स्वरूप दक्षिणपंथी ताकतों ने भी समय आने पर तत्कालीन सत्ता का ये आजमाया हुआ नुस्खा ही अपनाया और धर्मेंद्र, विनोद खन्ना, हेमा मालिनी, अनुपम खेर को भी इस राह का राही बनाया गया। लता मंगेशकर, शर्मिला टैगोर, जया बच्चन, रेखा, जयाप्रदा, रूपा गांगुली आदि ने भी गफलत के ये गलियारे देखे।
खैर, दिलीप कुमार तो दिलीप कुमार थे। उन्होंने यहां भी परिपक्वता का परिचय दिया और अपने आप को किसी तबके का नुमाइंदा बन कर इस्तेमाल होने के बेजा ख्याल को सिरे से ही नकार कर झटक दिया। उन्होंने चुनाव कभी नहीं लड़ा। यहां तक कि उन्होंने कभी कोई ऐसा संकेत भी नहीं दिया कि वो किसी गुट की तरफदारी के हामी हैं। वो यूसुफ भी रहे तो दिलीप भी।
इस तटस्थता ने उनकी महानता में चार चांद लगाए। इसी ख्याल ने उनके मस्तमौला होकर समय गुजारने के इरादे को पुख्ता किया और इसी बेबाकी ने अवाम में उनकी पैठ को और पुर कशिश बनाया।
दिलीप कुमार जब अपने सामान्य स्वास्थ्य चैकअप के लिए भी हस्पताल का रुख करते तो जनता अपने प्रिय सितारे के लिए दुआओं में खो जाती। इतने लंबे जीवन में रोग - व्याधियां भी आती ही हैं और बुढ़ापा तो ख़ुद एक रोग ही ठहरा। लेकिन स्वास्थ्य को लेकर न कभी दिलीप कुमार ने और न सायरा बानो ने ही कोई कोताही की।
यद्यपि लोगों ने ये कहने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी कि फिल्मस्टार होने की फितरत के चलते जब अपने बंगले से दिलीप साहब निकल कर किसी हस्पताल का रुख करते हैं तो प्रेसनोट तत्काल मीडिया को भी उनके बंगले से ही जारी हो जाते हैं। उन्हें खबरों में रहना भी आता है और अवाम के दिल में भी! लेकिन दिलीप कुमार ने शोहरत को भुना कर मिल्कियत में बदलना नहीं सीखा था।
और इसका असर भी उन्हें तो नहीं, पर उनकी नीम याददाश्त की हालत में सायरा जी को ज़रूर देखना पड़ा।