उजाले की ओर ---संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर ---संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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नमस्कार मित्रों 

     जीवन के सफर मे राही मिलते हैं बिछुड़ जाने को ---लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे आहें और आँसू ही लेकर बिदा हों | 

आए हैं तो जाएँगे राजा ,रॅंक ,फकीर ---क्या सच्ची बात कह गए कबीर ! 

एक ऐसा जुलाहा जो जीवन की चादर बुनते -बुनते इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह गया कि सच में  उन्हें हर पल नमन बनता है | 

        हम तो शिक्षित हैं ,अपने आपको आधुनिक भी कहते है और अपने गानों के ढ़ोल भी खुद पीटते हैं किन्तु ज़रा सी परेशानी होने पर हम 

अपनी वास्तविकता पर आ जाते हैं | यानि लड़ाई-झगड़े पर | यदि कोई नहीं कुछ कहता  तो हम उसे और दबाते हैं और अपनेको फन्ने -खाँ समझने लगते हैं | 

हम ज़रा सोचकर देखें तो सही हमने आज तक किसीके लिए क्या किया ? फिरअपेक्षाएँ कैसी और क्यों ? 

लेकिन रहती हैं जी ,बिल्कुल रहती हैं | हम अपेक्षाओं के बिना अपना जीवन व्यर्थ समझते हैं | ऐसा जैसे अपेक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो | 

सच मेन है क्या ? अपने दिल पर हाथ रखकर देखें और खुद से ही पूछें | 

एक मित्र थीं ,नाम नहीं बताऊंगी |वैसे दुश्मन वे मेरी आज तक नहीं हैं | 

वैसे मेरी समझ में  कभी नहीं आया कि हमें किसीका दुश्मन होना भी चाहिए? 

कुछ ज़रूरत है क्या ? लेकिन न जाने कैसे बस पल जाती है दुश्मनी ! क्यों पल जाती है , कैसे पल जाती है ? पता ही नहीं चलता | 

किसी न किसी छोटी-मोटी बात पर हमें लगने लगता है कि हमारे स्वाभिमान पर कोई चोट कर रहा है | 

हम बौखला जाते हैं और जब तक दूसरे पर अपना तीरों का तरकश खाली न कर दें तब तक हमें चैन पड़ता ही कहाँ है ?       

     हाँ ,तो बात बता रही थी उस सखी की जो अब मित्रों की सूचि में  तो नहीं है ,दुश्मन भी नहीं है | 

दुश्मनी की बात कभी समझ  में  नहीं आती न ! भई ,न पटरी बैठे तो एक-दूसरे की बातों में अपना विद्वान मस्तिष्क मत घुसओ न भैया ! 

अब बात तो कुछ भी नहीं थी ,उस तथाकथित मित्र ने मेरी एक मित्र से किसी बात को लेकर कहा ;

" तुम्हारे रीढ़ की हड्डी ही नहीं है | तुम किससे मुक़ाबला करोगी ? 

"लेकिन मैं मुक़ाबला करूँगी ही क्यों ?" मेरी दूसरी मित्र ने बड़े विवेक से उत्तर दिया जिस पर तीर चलाए गए थे 

"करोगी तब न जब तुम्हारे पास ताकत होगी ,रीढ़ की हड्डी ही नहीं है तो सीधी  तो खड़ी रह  नहीं पाओगी ,फिर ---" 

भाई ,गुस्सा आना लाज़मी था | बात बात में गर्मी हो गई ,पूरा वातावरण भभक उठा | 

सरल स्वभाव की मेरी मित्र ने कहा कि वह क्यों उसके किसी भी काम  में घुसी थी | उसे निमंत्रण तो भेजा नहीं गया था | 

अब तो आग और भभक उठी ,मैं ये --मैं वो के सुर अलापे जाने लगे | 

मज़े की बात यह थी कि यह कोई छोटे बच्चों की या किशोरों की बात नहीं थी | यह बात हो रही थी प्रौढ़ों  के बीच में | 

परिणाम ये कि बिना बात में दो गुट बन गए | 

एक सरल,सहज ,विवेकी और दूसरा क्रोध से सराबोर --अपनी रीढ़ की हड्डी को तानकर चलने वाला ग्रुप ! 

अब तो एक-दूसरे के जानी दुश्मन ! 

आखिर क्या बंट रहा था ? पहले तो बड़ी ऐंठ  हुई फिर जैसे-जैसे दूसरे  मित्रों को पता चला कि उसके लिए सभी एक ही थैली में भरे हुए कंकड़-पत्थर जैसे हैं | 

केवल उसकी ही रीढ़ की हड्डी सीधी  है जिसके सहारे  वह तन कर चल सकती है  ,शेष तो एवें हैं | उन्होंने भी उस सीधी  रीढ़ की हड्डी का साथ छोड़ दिया | 

प्रश्न यह है कि इस सबसे लाभ क्या हुआ ? क्या बहुत बड़ा काम हो गया ? क्या बहुत बड़प्पन से भर उठी वह ! 

नुकसान ही हुआ --कि सब उसका स्वभाव समझकर उससे अलग रहने लगे और सबने उससे  दोस्ती का संबंध समाप्त कर दिया | 

मुझे तो भाई इससे यही शिक्षा मिली कि बिना किसी के बीच में कूदे शांति से अपना काम करते रहो | 

विवेक व स्नेह से ही संबंध बंधे रह सकते हैं | वर्ना एक दिन हम अकेले ही पड़  सकते हैं | 

तो भई लाभ क्या इससे ? प्यार से रहो ,मुस्कुराते हुए सबके मनों में स्नेह सिंचित करो और ---बस ---

शेष तो सब वाकिफ़ ही हैं ,जीवन की वास्तविकता से ! 

ज़िंदगी झौंका हवा का प्यार का संगीत है ,

ज़िंदगी खुशियों की महफिल ग सकें तो गीत है | 

चलिए, तो फिर मिलते हैं किसी नई बात से जो कुछ सोचने के लिए दिल के द्वार पर दस्तख़त देगी | 

आप सबकी मित्र 

डॉ . प्रणव भारती