उजाले की ओर --संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर --संस्मरण

उजाले की ओर --संस्मरण 

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नमस्कार स्नेही मित्रो 

    बहुत जूझना पड़ता है अक्सर जीवन से लेकिन उसके लिए कोई शॉर्ट कट नहीं है | 

जो करना होता है ,उसके लिए झूझना ही है ,बिना अपने जीवन का युद्ध स्वयं लड़े बिना कुछ हाथ में आता ही नहीं | 

और जीवन है कि आगे बढ़ता ही रहता है ,ज़रा सा भी तो नहीं रुकता | 

साँस लेने की फुर्सत ही नहीं देता |कारण यही है कि यह जीवन है ---

जीवन न हो तो कुछ भी कहाँ है ? न लड़ाई ,न झगड़े ,न ही ईर्ष्या ,न ही क्रोध और न ही स्नेह और प्यार भी | 

हमारी  साँसें चल रही हैं तो जीवन है अन्यथा -----

दरअसल ,हम जूझने लगते हैं उसके लिए जो हमारे पास नहीं है ,लेकिन जो हमारे पास है उसकी कीमत  हम नहीं कर पाते | 

इसका परिणाम कष्टकर होना ही है | यानि जो हमारे पास है उसे संभालकर रखने के स्थान पर जो नहीं है ,उसके पीछे की दौड़ हमें थका देती है | 

वैसे भी मनुष्य किसी एक कगार पर खड़े होकर थकान का अनुभव करने लगता है | 

मुझे लगता है ,यह शायद स्वाभाविक ही है | क्योंकि हम दौड़ते-दौड़ते इतने थक जाते हैं कि साँस लेने का समय ही नहीं मिल पाता | 

फिर हम चूर-चूर होने लगते हैं |

हमें यह पसंद है ,यह नहीं है ,हमें यह करना है ,यह नहीं करना--इन्हीं बातों में उलझते हम बुरने लगते हैं |  

"तो आखिर इसका उपाय क्या ? "मन में तो घुड़दौड़ मची रहती है | 

    मेरे कॉलेज के प्रो. रुद्रप्रकाश मिश्र मुझे कभी भी याद आ जाते हैं | वे समझाते थे ;

"मुझे यह पसंद नहीं ,मुझे यह करना है ,यह नहीं ,मेरी इसमें रुचि है ,इसमें नहीं --इस प्रकार की मान्यताओं को मन में समेटकर क्यों रखना ?इस प्रकार अपने को बाँधकर रखना ,

यानि अपनेको सीमाओं में जकड़ देना होता है |"

"तो क्या करें सर ---" मैं उनसे अक्सर कोई न कोई प्रश्न करती ही रहती थी | 

"हमें अपनी कार्य -प्रणाली को अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं रखना  चाहिए---"

"तब --सर ---" विवेक तो था नहीं उस उम्र में सुनने का | ऐसा लगता तुरंत ही हम पंडित बन जाएँ ,ज्ञानवान ! 

लेकिन ऐसा तो संभव  नहीं होता न ! बातें धीरे-धीरे सुनने ,समझने से ,अभ्यास से  ही तो हम सीखते हैं | 

"बेटा ,पहले तो सुनने का विवेक रखो ,जीवन भर का ज्ञान एक साथ नहीं बटोरा जा सकता | अनुभव के साथ शनै:  शनै:  हम परिपक्व होते हैं |"

    फिर वे देखते कि मेरे पल्ले उनकी कोई बात पूरी तरह नहीं पड़ी है तो एक स्नेहिल मुस्कान मेरे चेहरे पर डालते और कहते ;

"खुद को ऐसा बनाओ कि कोई भी कार्य अथवा जो भी कार्य तुम्हें करना पड़े वह इतनी आसानी से कर सको मानो तुम बहुत सहज हो --" 

"मतलब ---?"

"मतलब --कार्य करना हमारी आदत और सही मायनों में हमारा स्वभाव बन जाए |"

"यह कैसे हो सकता है ?" मैं बिना पूछे रहने वालों में से तो थी नहीं | 

"करत --करत अभ्यास के जड़मति होत  सुजान ---" वे मुस्कुराकर जीवन का सार  पल भर में ,कुछ शब्दों में कह देते | 

"बड़ा कठिन काम है न सर ---" मैं पूछती | 

"कठिन तो सभी कुछ है बेटा !" वे मुस्कुराते | 

"ऐसे कैसे अपने लक्ष्य पर पहुँचेंगे ?" अपनी उम्र और समझ के अनुसार मेरे प्रश्न उनके लिए स्वाभाविक होते | 

"हर समय यह न देखो कि तुम्हारी पसंद का काम है अथवा नहीं | इस जीवन में न जाने कितनी बार वे काम करने पड़ते हैं जो हमें पसंद नहीं --" 

"तो हम ऐसे ही जूझते रहें ?" मेरे प्रश्न समाप्त ही नहीं होते थे और वे मुझे समझाते ,उत्तर देते हुए कभी नहीं थकते थे | 

"तुम्हारे सामने कोई काम आए ,यदि वह कोई गलत नहीं है तो पसंद और इच्छा के लिए प्रतीक्षा मत करो ,उसे पूरा मन लगाकर करो --" 

"मन का काम नहीं होगा तो सफ़लता कैसे मिलेगी ?" मैं पूछती | 

"बेटा ! मन को साधने का प्रयास करो और उस काम को आनंद से करने का प्रयास करो | देखो,सफलता कैसे तुम्हारे कदम चूमती है |" 

      उन्होंने न जाने कितनी बातें ऐसी समझाईं कि इस उम्र में मैं ये सब बातें सबके साथ साझा करके एक संदेश के साथ उनको नमन  करना चाहती हूँ | 

गुरु गोविंद दोऊ खड़े ,काके लागून पाँव ,

बलिहारी गुरु आपने ,गोविंद दियो बताय | 

 

सस्नेह 

डॉ. प्रणव भारती