कितने साल बीत गए, आज मैं इतने सालों बाद गांव जा रहा हूं।
इतने में बस रूकी और कंडक्टर की आवाज सुनाई दी_
चंदननगर की सवारी नीचे उतरो भाई!!
सबके साथ मैं भी उतर पड़ा, नीचे उतर कर बसस्टैंड का नज़ारा देखकर काफी हैरानी हुई कितना कुछ बदल चुका है यहां पर।
लेकिन गांव के भीतर जाने के लिए शायद अभी भी वहीं दोनों पुराने रास्ते हैं, एक गांव के किले से हाट तक का रास्ता जो पूरा बाजार घूमाता हुआ ले जाता था और दूसरा गांव के बाहर का घुमावदार रास्ता उस रास्ते में महुए के पेड़ के नीचे एक पुराना राजा-महाराजाओं के समय का कुआं था, जहां से लोग भरी दोपहर और रात-बिरात जाने से डरते थे।
तभी तांगेवाले ने पूछा__
कहां जाना है साहब? कहो तो पहुंचा दूं।
मैंने कहा, दीक्षित मुहल्ला जाना है पहुंचा दोगे।
उसने कहा, क्यों नहीं साहब।
मैंने कहा, लेकिन मुझे कुएं वाले रास्ते से जाना है, खेतों को देखते हुए, ये देखना है कि कितना कुछ बदल गया है, इतने सालों में।
आप भी कभी इसी गांव में रहे हैं क्या साहब?
तांगे वाले ने पूछा__
मैंने कहा हां, भाई !!मेरा बचपन तो इसी गांव की मिट्टी में बीता है।
उसने कहा, लेकिन ज्यादा पैसे लगेंगे क्योंकि वो लम्बा और थोड़ा ऊबड़-खाबड़ सा रास्ता है इसलिए लोग उससे जाना पसंद नहीं करते, किले वाला रास्ता छोटा है इसलिए लोग ज्यादातर उसी से जाते हैं।
मैंने कहा_
ठीक है भाई, ले लेना ज्यादा पैसे।
और उसने तांगा उसी कुएं वाले रास्ते की ओर बढ़ा लिया।
कुएं के पास पहुंच कर अच्छा लग रहा था, महुए का पेड़ भी अभी भी था लेकिन अब कुएं के पास एक हैंडपंप लग चुका था, आगे जाकर मेरा मनपसंद तालाब आया, मनपसंद इसलिए कि वहां कमल के फूल और सिंघाड़े उगाए जाते थे और मैं अपने दोस्तों के साथ जाकर वहीं से ताजे सिंघाड़े खरीदकर कर लाता था, जो वहां सिंघाड़े की खेती करता था उससे।
आगे जाकर गेहूं के खेत दिखें, जो लहरा रहें थे, बेरियों पर पके हुए बेर थे और भी बहुत से खेत थे, जैसे कि चना, मटर, अलसी, मसूर, तभी मैंने तांगा वाले से पूछा__
क्यों भइया? अभी भी यहां तम्बाकू की खेती होती है और पहले की तरह अब भी लोग तेंदू फल के पत्तों में तम्बाकू लपेट कर बीड़ी बनाते हैं।
वो बोला__
नहीं साहब, अब यहां वो सब पहले वाली बात कहां।
मैंने कहा, ठीक है। ।
बस, ऐसे ही दीक्षित मुहल्ला आ गया, मैं तांगे से उतरा।
मैंने तांगेवाले को पैसे दिए और वो चला गया।
हमारे मुहल्ले में अभी इतना बदलाव नहीं था क्योंकि हमारा मुहल्ला गांव से थोड़ा बाहर की ओर पड़ता था, बस कुछ मिट्टी के घरों ने सीमेंट के घरों का रूप ले लिया था।
मेरा घर सबसे आखिरी में इमली के पेड़ के नीचे हुआ करता था, घर के पीछे पोखर हुआ करता था, वहां बेसरम के गुलाबी फूल उगा करते थे, पीछे बहुत ही खुला मैदान था जहां मोर रहा करते थे जो कभी कभी हमारे घर की खपरैल पर आकर बैठा करते थे।
बहुत ज्यादा बबूल और नीम हुआ करता था जिनके फूलों से हमारे घर का कच्चा आंगन हमेशा भरा रहता था, वही आंगन जहां दादी मिट्टी के मटके में दही मथकर छाछ बनाती थीं और मैं मक्खन खाता था, वहीं आंगन जहां मां सिलबट्टे में कच्चे आम की चटनी पीसती थी, कभी कभी चकरी में चने की दाल पीसकर बेसन भी बनाती थीं, वहीं आंगन जहां दादी आचार सुखाती थी, ये सोचकर मेरा मन भर आया।
और मैं ने बगल वाले काका के दरवाज़े की सांकल खटखटाई।
उन्होंने दरवाजा खोला लेकिन पहचान नहीं पाएं, कैसे? पहचानते भला!! अब राजू, राजदेव बन चुका था।
मैंने कहा, मैं राजू!! वहीं जो बचपन में आपके आंगन में गिल्ली मार मारकर आपको परेशान किया करता था।
उन्होंने अपने दिमाग पर जोर डालकर कहा__
अच्छा.. अच्छा.., राजू!! तुम।
हां, अभी पिछले महीने ही तेरे बाप की चिट्ठी आई थी कि वो गांव का घर बेचना चाहता है वो बोला अब तो मैं बेटे के साथ शहर में ही बस चुका हूं अब शायद ही वहां कभी आ पाऊं, इसलिए उसकी बात सुनकर मैंने एक खरीदार भी ढूंढ़ लिया है, आज रात यहीं रूको, कल चलकर उससे बात करते हैं।
लेकिन मैंने कहा_
नहीं काका!! अब मैं ये घर नहीं बेचना चाहता और इस घर की मरम्मत करवा कर, कभी कभी मैं अपने परिवार के साथ यहां रहने आऊंगा क्योंकि इस गाँव में मेरी यादें हैं।
समाप्त.....
सरोज वर्मा.....