अध्याय 5
मदर टेरेसा अनाथाश्रम के अंदर जाकर कार रूकी।
सुंदरेसन, रंजीता कार के पीछे के सीट से सूटकेस को खोला - एक लाख के एक बंडल को निकालकर संस्था के दफ्तर के अंदर घुसे।
कमरा खाली था।
"किससे बात करनी है....?”
आवाज सुनकर मुड़कर देखा।
माली जैसे एक जना खड़ा था।
"इस आश्रम के निर्वाही कौन हैं...?"
"शारदा मणि अम्मा.... बच्चों का क्लास लेने गई हुई हैं.... एक पांच मिनट में आ जाएंगी.... आप बैठिए....."
वे बैठ गए ।
कमरा साफ सुथरा चमक रहा था।
मेज के पीछे की तरफ दीवार पर - एक बड़ा सा काला पत्थर लगा हुआ था - उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लंबा लिखा हुआ था।
बिल्ली, कुत्ता तोते भी
मनुष्य की गोदी में---
पैदा किए हुए बच्चे जैसे -प्यार कर खुश होते हुए-
भगवान ! हमने क्या पाप किया है.....?
सुंदरेसन और रंजीता परेशान हो इंतजार कर रहे थे - अगले 5 मिनट खत्म होने के पहले साफ-सुथरे सफेद रंग के साड़ी में एक 50 साल की शारदा मणि आ कर खड़ी हुई। बैठे हुए दोनों को देखकर आश्चर्यचकित रह गई।
"आप...?"
सुंदरेसन उठे। "हम कौन हैं जानने की जरूरत नहीं। आप जो अनाथाश्रम चला रहे हो उसके आर्थिक मदद करने हम आए हैं।"
शारदा मणि के चेहरे पर खुशी चमक उठी। हाथ जोड़ी। "बहुत खुशी की बात है....! आपके जैसे लोगों की मदद के कारण ही मैं इस संस्था को बिना परेशानी के चला पा रही हूं।"
रंजीता को बहुत दुख हो रहा था उसे बहुत जलन हो रही थी-लाख रुपयों के बंडल को उठाकर शारदा मणि को सौंपने लगी।
"यह लीजिए...."
शारदा मणि भ्रमित हुई।
"रुपए बहुत ज्यादा है लगता है....."
"लाख रूपए...."
'हाँ !' -आंखें फाड़ कर देखने लगी। शरीर और आवाज दोनों में एक घबराहट थी।
"बहुत.... बहुत.... बहुत खुशी हुई।"
सुंदरेसन बोले। "यह रुपए हमने अनाथाश्रम को दिया यह बात बाहर बताने की जरूरत नहीं है...."
"पैसे दिए उसकी रसीद....?"
"वह सब कुछ नहीं चाहिए। हम क्यों मदद कर रहे हैं वह बाहरी दुनिया को पता नहीं चलना चाहिए हम ऐसा सोचते हैं। इस मदद के लिए हम कोई विज्ञापन नहीं चाहते।
"इस जमाने में ऐसे भी लोग हैं.....?" भावातिरेक में शारदा मणि कुछ बोलने लगी तो हाथ के इशारे से सुंदरेसन ने उन्हें रोक दिया। हम रवाना हो रहे हैं......! उसके पहले एक बात है...."
"क्या है बोलिए....?"
"थोड़ी देर में आपके पास बाहर से कोई फोन आ सकता है। उस फोन में 'आपके पास एक लाख रुपए पहुंच गए क्या ?' पूछेंगे। आप उसके लिए 'पहुंच गया' बोल दीजिएगा बहुत है...."
सुंदरेसन और रंजीता उनसे विदा लेकर गाड़ी की तरफ रवाना हुए।
"क्यों जी..."
"हां..."
"मुझे तो बहुत जलन हो रही है। अपनी लड़की ने गा-गा कर जमा किए हुए रुपए... ऐसे एक-एक लाख रुपये अनाथाश्रमों को निकाल कर देना पड़ रहा है......"
"क्या करें.....? सुरभि को हमें जीवित देखना है.... फिर हमें दस लाख को नहीं देखना चाहिए....."
"अब कौन से अनाथाश्रम...?"
"बेसट नगर में वैल्लार के नाम से एक अनाथाश्रम है... वहां चलते हैं....."
कार रवाना हुई।