जंगल चला शहर होने - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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जंगल चला शहर होने - 3

लोमड़ी और खरगोश दंग रह गए। मिट्ठू ने क्या चाल चली थी। आदमी का धन किसी नदी में बहते हुए कचरे की तरह जंगल में आने लगा।
तमाम चूहों और कीट पतंगों को ख़ूब ईनाम दिया गया जिन्होंने आदमी का सारा धन कुतर काट कर उसे बैंक में जमा करने पर मजबूर कर दिया।
उधर मिट्ठू ने बस्ती के किनारे एक लकड़बग्घे से बैंक खुलवा दिया। अब जो भी धन और माल बैंक में आता उसे सुरक्षित रखने के नाम पर नदी के रास्ते से राजा शेर के मांद - महल में भिजवा दिया जाता।
राजा जी की बांछें खिल गईं। यद्यपि वो ये जानते नहीं थे कि ये किस काम आता है। पर उन्होंने सोचा कि पोपट, लोमड़ी और खरगोश जैसे सयाने जो करेंगे ठीक ही होगा।
इन्हीं लोगों ने तो राजा शेर के लिए घर बैठे ताज़ा भोजन का बंदोबस्त किया था।
धन की समस्या तो हल हो गई। अब दूसरी समस्या ये थी कि जंगल में सुबह से शाम तक राजा से मिलने आने वाले पशु पक्षियों का तांता लगा रहता था। बेचारे राज सत्ता को अपनी मुसीबतें बताने भूखे प्यासे दूर दूर से आते थे, पर वहां उन्हें पानी तक पिलाने का कोई इंतजाम नहीं था।
मिट्ठू ने इसका भी हल निकाला।
पोपट मिट्ठू जिस नदी में नाव चलाता था उसका पानी बड़ा मीठा था। नदी क्या, नहर ही थी।
मिट्ठू ने अपना सिर खुजाया और झटपट कुछ बंदरों को बुलवा भेजा।
बंदरों से बोला - क्यों रे, दिन भर उछल कूद करते रहते हो, कुछ काम करोगे? मेहनत मजदूरी का काम है।
बीच में खरगोश भी बोल पड़ा - मजदूरी भी मिलेगी।
बंदर ये सुन कर खुश हो गए।
मिट्ठू ने उनसे कहा - नदी से लेकर राजा जी के मांद महल तक एक पाइप लाइन डालनी है जिससे पानी महल तक आ सके।
बंदर जी जान से काम में जुट गए।
मिट्ठू ने लोमड़ी से रहस्य भरे स्वर में कहा - देखा मैडम, एक तीर से दो शिकार होंगे। एक तो महल में पानी आ जायेगा और दूसरे, इन्हीं बंदरों से कहेंगे कि पेड़ों से तोड़ कर कुछ मीठे फल भी पानी में डालते रहें। बस, जूस तैयार! अब ख़ुद भी पियो, और राजाजी की प्रजा को भी पिलाओ।
- वाह एडवाइजर साहब, मान गए आपको।
देखते- देखते मांद महल हरा भरा होने लगा।
अगली सुबह मिट्ठू, खरगोश और लोमड़ी बैठ कर कॉफी पी ही रहे थे कि सामने से उन्हें एक गाड़ी आती हुई दिखाई दी।
हिप्पो ने कुछ मजदूर बंदरों को काम पर रखा और देखते देखते स्कूल की इमारत खड़ी होने लगी। कुछ ही दिनों में एक सुंदर सा लंबा चौड़ा स्कूल बन कर तैयार हो गया। क्या कमरे थे। क्या गेट। शानदार।
हिप्पो जी काफ़ी अनुभवी थे। घाट घाट का पानी पी रखा था। सब बातें सोच समझ कर स्कूल का नक्शा बनाया था।
कल इन्हीं कमरों में हाथी के बच्चों को भी आकर बैठना था, इन्हीं में मकड़ी भी अपने बच्चों को भेज सकती थी। जंगल में कोई और स्कूल तो था नहीं और शिक्षा पर तो सभी का हक ठहरा।
ये दृश्य देख कर तो सारे जंगल वासियों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। सब पशु पक्षियों को विद्यालय में लाने के लिए शानदार वाहन व्यवस्था भी की गई थी। हर तरह के वाहन थे। यहां तक कि एक ट्रक पर तो खुला वाटर टैंक तक लगवाया गया था ताकि पानी में रहने वाले जीव भी आसानी से स्कूल आ सकें। कछुआ, मगरमच्छ, मछली आदि की आंखों में तो ये सोचकर खुशी के आंसू तक आ गए कि अब हमारे बच्चे भी स्कूल जा सकेंगे।
क्लास रूम तक में पानी भरी पहिए वाली बाल्टियां रखी गई थीं ताकि ट्रक से उतर कर सब अपनी अपनी कक्षा में जा सकें। मगरमच्छ के लिए ड्रम की व्यवस्था भी थी।
होती भी क्यों न... आख़िर सा विद्याया विमुक्तये।
जंगल में चहल पहल बढ़ती जा रही थी। जो थोड़े बहुत जीव जंतु नई नई खाने पीने की चीज़ों की खोज में जंगल से निकल कर शहर की तरफ़ चले गए थे उन्हें भी किसी तरह जंगल में वापस लाने की कवायद शुरू हुई।
इसके दो फ़ायदे थे। एक तो जंगल में रहने वाले पशु पक्षियों की संख्या बढ़ी दूसरे जो शहर से लौट कर आए वो वहां से नई नई चीज़ों के बारे में जानकारी लेकर आए।
अब देखो न, जंगल के रास्ते पर जब सियार और हिरण ने चाट का ठेला लगाया तो आने जाने वाले डॉगी और उनके बच्चे उनसे पूछते - बर्गर है? ज़रा एक पिज़्ज़ा देना। नान के साथ पनीर की ग्रेवी देना। चलो फ़्रेंच फ्राइज़ दे दो।
बेचारे हिरण और सियार उनकी फरमाइश पूरी कैसे करते?
इसका फ़ायदा उठाया बकरी ने। अपनी सहेली लोमड़ी से जाकर मिली और लोमड़ी ने उसे एक बड़े से रेस्त्रां के लिए जगह दिलवा दी। पास ही उसके बेटे ने भी एक कैफे खोल लिया।
अब बकरी के रेस्त्रां में जो मांगो वही हाज़िर। उसने कुछ मेमने काम करने के लिए भी रख लिए। काम खूब चल निकला।
अब बकरी की निगाह हिप्पो सर के स्कूल पर थी। यदि उसे वहां पर भी एक कैंटीन खोलने का ठेका मिल जाए तो मज़ा आ जाए।
एक दिन बकरी हिप्पो जी से मिलने चल दी।