साहेब सायराना - 27 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 27

एक बार एक वरिष्ठ पत्रकार ने दिलीप कुमार से पूछा - क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी फ़िल्मों के अधिकांश नायक देश के एक ही कौने से आए हैं।
चौंके दिलीप कुमार। फिर धीरे से बोले - क्या मतलब?
पत्रकार भी खासे अनुभवी थे, सब जानते थे लेकिन शायद दिलीप कुमार के मुंह से कहलवाना चाहते थे। कुछ मुस्कुराते हुए कहा - आप, राजकपूर, देवआनंद, मनोज कुमार, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार, धर्मेंद्र, फिरोज़ खान, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना... या तो पाकिस्तान से, या फ़िर पंजाब से... पत्रकार महाशय की आवाज़ सकुचाते हुए कुछ शिथिल पड़ी।
दिलीप कुमार ने कुछ त्यौरियां चढ़ाईं और कुछ बुलंद आवाज़ में बोले - अरे भाई, जिस वक्त हीरो बनाने के लिए देविका रानी मेरा इम्तिहान ले रही थीं तब तक तो बंगाल के अशोक कुमार नामी- गिरामी हो चुके थे, सोहराब मोदी, अजीत, गजानन जागीरदार, किशोर कुमार, प्रदीप कुमार, विश्वजीत, भारतभूषण आ चुके थे या आने की तैयारी में थे। ... फिर आप ये क्यों भूलते हैं कि देश एक लंबी जद्दोजहद के बाद एक हादसे से गुज़र कर चुका था। लाखों लोग जलावतन होकर दर - दर की ठोकरें खा रहे थे। ऐसे में सरहद के पार से आए लोगों में एक ज़रूरत भी थी और जज़्बा भी। कड़वे अनुभव भी थे। दो वक्त की रोटी और मुकम्मल सिर छिपाने की जगह की तलाश भी। फ़िल्मों की ही कौन बड़ी छवि थी। इसे तब तक अच्छा काम कहां माना जा रहा था? अच्छे घरों के लड़के - लड़कियां फ़िल्मों में आने कहां दिए जा रहे थे। लड़कों को लड़कियों के लिबास पहन कर तो नाच- गाना करना पड़ रहा था। तब कोई सुनहरा करियर नहीं माना जाता था ये! आज बात अलग है...तो सब आ ही रहे हैं।
पत्रकार महोदय बगलें झांकने लगे।
ऐसे एक नहीं, अनेक अवसर आए थे जब दिलीप साहब ने इतने सुलझे हुए तरीके से अपनी बात अवाम के सामने रखी थी। शायद यही कारण था कि जब उन्हें पद्म विभूषण जैसे सम्मान के बाद राज्य सभा के लिए नामित किया गया तो किसी ने अन्य कई सितारों की तरह इसे सजावटी पद नहीं कहा। दिलीप साहब ने बकायदा एक सांसद की तरह ही देश की तमाम ऊंचनीच पर जब तब अपने विचार रखे। उन्होंने कई सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेकर सैनिकों व अन्य ज़रूरत मंद लोगों की मदद की। मुंबई के शेरिफ बन कर उनका साबका कई गैर - फिल्मी बातों और मसलों से भी पड़ा। यहां तक कि उनकी कई सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों - नया दौर, लीडर, सगीना आदि में उनके संवाद और रोल्स से वास्तविक समस्याओं के समाधान तलाशने तक की कवायद हुई। वो अवाम के दिल तक केवल मनोरंजन उद्योग की अपनी भूमिकाओं के सहारे ही नहीं पहुंचे।
उनकी सोच की पूरी छाया उनकी पत्नी सायरा बानो पर भी लगातार पड़ी। जंगली की नायिका को लोगों ने "दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ" गाते हुए भी देखा।
फिल्मी पर्दे पर "नारी हो के पिए विस्की, और पिए सिगरेट बेबी" कहने पर हीरो को "ईडियट" कहने वाली आधुनिका नायिका ने जब थिरकते हुए गाया - लाया विदेशी चीज़ें उठा के जाने कदर ना प्यार की...तो दर्शकों ने झूम कर तालियां और सीटियां बजाईं।
मानो ये निजी ज़िंदगी में दिलीप कुमार का साथ पाकर सायरा बानो की शख्सियत में आया वास्तविक बदलाव ही हो!
इस संदर्भ में बलराज साहनी की कही हुई एक बात भी शायद अपना खासा महत्व रखती है कि पाकिस्तान या पंजाब से आए लोगों में कश्मीरी से सौंदर्य की कशिश के साथ- साथ घर से दर बदर हो जाने की खलिश भी वाबस्ता थी। फिल्मी पर्दे पर एक्टिंग करते चेहरों में ही नहीं बल्कि कलम और निर्देशन की ज़िम्मेदारी संभालने वालों में भी वहां सेआए लोगों की भरमार थी।