फिल्मी दुनिया फैशन और ठसक के साथ रहने का ज़ुनून बख़्श देती है। यहां ऐसे लोग भी नित नए परिधानों, आभूषणों, कारों और आलीशान घरों में लकदक ज़िन्दगी गुजारते देखे जाते हैं जिन्होंने बरसों से कुछ नहीं कमाया।
तो क्या ये नैतिक और जनवादी मूल्यों के प्रतिरोध में बसी हुई कोई बस्ती है?
नहीं। दिलीप कुमार का जीवन ऐसा नहीं कहता। दिलीप कुमार फ़िल्मजगत में पैसे की परिक्रमा करते कभी नहीं देखे गए। उनका अभिनय को लेकर एक प्रतिमान था जिसे निभाने में वो ख़र्च होते थे। उन्होंने अपने फिल्मी जीवन में लगभग साठ- बासठ फ़िल्मों में काम किया जिनमें कुछ ऐसी फ़िल्में भी हैं जिनमें वो अतिथि भूमिका में नजर आए।
अपनी कुछ फ़िल्मों की दुखद और गंभीर भूमिकाओं के लिए की गई उनकी मानसिक तैयारी ने उन्हें एक अवसाद जैसी ही निराशा से भर दिया। किंतु इसी उपक्रम ने उन्हें फ़िल्मों में "ट्रैजेडी किंग" का खिताब भी दिलवा दिया। दीदार और देवदास ऐसी ही फ़िल्में थीं।
यही स्थिति नायिकाओं में मीना कुमारी की भी थी। लेकिन ये एक सुखद संयोग था कि फ़िल्म "कोहिनूर" में इन्हीं दोनों ने एक साथ काम किया। इस फ़िल्म में दोनों की ही भूमिका कुछ अलग सी थी और इसमें उनके अभिनय की काफ़ी सराहना भी हुई। दिलीप कुमार को इस फ़िल्म के लिए फ़िल्मफ़ेयर का बेस्ट एक्टर अवार्ड भी मिला। ये पुरस्कार दिलीप साहब ने कुल आठ बार अपने नाम किया।
बांद्रा के एक संभ्रांत इलाक़े में अपने सैलून में काम करने वाले युवक ज़ुल्फ़िकार को एक अजीब सा शौक़ था। उसने सैलून में कांच की बेहद ख़ूबसूरत प्यालियों में ढक कर कुछ बाल जमा कर रखे थे। अपने पास आने वाले सम्मानित ग्राहकों को वो बड़े गर्व से बताता था कि इनमें देश दुनियां में अभिनय सम्राट के नाम से पहचाने जाने वाले दिलीप कुमार के सिर से उतरे हुए बाल भी हैं। ये एक अलग तरह का प्यार भरा सम्मान है जो दिलीप कुमार को पाकिस्तान सरकार द्वारा दिए गए सर्वोच्च सम्मान निशाने पाकिस्तान या भारत सरकार द्वारा प्रदत्त पद्म विभूषण की ही तरह महत्वपूर्ण है। हां, इसे दुनिया के बहुत से लोगों ने नहीं जाना होगा पर जिन्होंने जाना होगा उनके लिए ये कीमती है। ये कैसा ज़ुनून है उन कुछ खुशदिल लोगों का जो दुनिया के बेहतरीन लोगों का सम्मान करते हैं चाहे इससे ख़ुद उन्हें कुछ भी हासिल न होता हो। सच में, ये बिलकुल उन नादान लड़कियों जैसी ही हरकत है जो कभी अमिताभ बच्चन या राजेश खन्ना का नाम अपनी कलाई पर ख़ून से लिख लेने तक का बचपना करती देखी गईं।
पिछली सदी के लगभग अंत तक ही दिलीप कुमार रजत पट पर सक्रिय रहे जब सदी के बीतते - बीतते उनकी आखिरी फिल्म "किला" पर्दे पर आई।
नवें दशक में ऋषि कपूर और अमृता सिंह की फ़िल्म "दुनिया" में भी उनकी दमदार भूमिका थी।
विधाता, सौदागर, मशाल और शक्ति जैसी फ़िल्मों में उन्हें उनके अभिनय की तीसरी पीढ़ी तक ने देखा।
इक्कीसवीं सदी आरंभ होते - होते उन्हें एक और फ़िल्म ऑफर की गई जिसके लिए उन्हें लगभग बारह लाख रुपए दिए जाने की बात भी सामने आई किंतु ये फ़िल्म बन नहीं सकी।
फिल्मी दुनिया तंत्र मंत्र तिलिस्म और आस्थाओं का जमघट है। यहां मुहूर्त, राशि, नामाक्षर बहुत अहम होते हैं। एक समय यहां "आर" अक्षर का बोलबाला था। नए ज़माने में "क" का प्रभाव बढ़ा तो दिलीप कुमार की फ़िल्म कर्मा, क्रांति, किला की तरह ही नायिकाओं की एक पूरी की पूरी खेप काजोल, करिश्मा, करीना, कैटरीना, कृति, कंगना के रूप में चली आई।
दिलीप कुमार अपने सामान्य स्वास्थ्य की जांच के लिए हॉस्पिटल में भर्ती हों चाहें उम्रजनित अन्य कष्टों के लिए, उनके शुभचिंतकों की सांस जैसे थम जाती थी और किसी परिचारिका की भांति उनकी तीमारदारी में लगी सायरा बानो के साथ साथ सभी उनकी बेहतरी की दुआएं मांगने लग जाते थे। अपने अंतिम वर्षों में वो याददाश्त चले जाने जैसी व्याधि से भी ग्रसित हो गए थे। ये सायरा बानो का ही बूता था कि ऐसे में भी उन्हें खूबसूरती से तैयार कर के उनके चाहने वालों के बीच उपस्थित कर देती थीं।
मीडिया में ऐसे कितने ही चित्र मिलते हैं जब दिलीप साहब दीन दुनिया से बेखबर निर्विकार भाव से बैठे हैं और सायरा जी उनकी आवाज़ बन कर उनके पार्श्व में बैठी हैं!