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बचपन के क़िस्से

अभनपुर में मेरी माँ का एक सुंदर बचपन बीता है। उन्हें इस जगह को छोड़े वर्षों बीत चुके है, लेकिन सारा कुछ आज भी पहले जैसा है। यहाँ बचपन से आ रहा हूँ। बीते कुछ वर्षों से जब भी आता हूँ हर जगह अपनी माँ का बचपन तलाश रहा होता हूँ। माँ ने बहुत पहले मुझे अपने बचपन के क़िस्सो के बारे में बताया था, जो मुझे अब भी याद है। यहाँ जब भी किसी छोटी बच्ची को सड़क या फिर गलियों में खेलते हुए देखता हूँ.. मुझे उसमें माँ बचपन दिखाई देने लगता है। मैं उन बच्चों को जी भरकर खेलते हुए देखता हूँ और सोचने लगता हूँ आज ठीक 40- 50 साल पहले एक लड़की थी, जो ठीक इन बच्चों के तरह खेल खेलती थी। उस लड़की का छोटा संसार अब बहुत बड़ा हो चुका है। मैं उसी संसार से हूँ। अभनपुर में गाँव, खेत, ऊबड़-खाबड़ सड़कों में खेलते बच्चों में माँ का बचपन बिखरा पड़ा मिलता है। इच्छा होती है इसे समेट पर अपने गाँव ले जाऊँ। अक्सर उनकी छूटी यादों में खुद की उपस्थिति दर्ज करता हूँ।अब इच्छा हो रही जब भी माँ से मिलूँ उन्हें उनकी जगह के बारे में बताऊँ। उन जगहो में खेलते हुए बच्चों के क़िस्से सुनाऊँ जहां कभी वे खेला करती थी। जहां घंटो समय बिताकर लौटा हूँ। मुझे यहाँ हर मासूम लड़की में अपनी माँ के बचपन का चेहरा दिखाई देता है। आज तो मैंने एक बच्चों के झुंड से पूछ भी डाला क्या तुम वेणुका नाम की लड़की को जनाते हो? तभी उनके बीच खलबली मची और एक धूल से सनी बच्ची ने अपना नाम वेणुका बताया मैंने मिनट भर तक उसका बात ही बात पर हँसना देखता रहा फिर कहाँ, मेरी माँ बचपन में बिलकुल तुम्हारी तरह दिखती थी।आज उनकी उम्र 50 होने को है। मैं उस बच्ची को अपने माँ के क़िस्से सुनाना चाहता था, लेकिन मेरी बात उस बच्ची के समझ के परे थी। मैं उसका खेलते खुदते चलते हुए जाना अंतिम समय तक देखता रहा।
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अब मुझे लगता है मेरी आँखे लेखकों जैसी हो गई है। जब कोई जगह देखता हूँ उसके अपनी कोई कहानी को कुरेदते हुए बाहर निकल रहा होता हूँ। एक लंबा समय अकेले बिताने के बाद इस कला को खुद में विकसित होते हुए देखा है।बीते कुछ वर्षों से अब हर नई जगह में कोई नई कहानी तलाश लेता हूँ। उस सन्नाटे को भीतर के सन्नाटे से रूबरू करता हूँ। ऐसा करना एक नई दोस्ती करने जैसा है। किसी नए सन्नाटे के साथ लिखना आसान थोड़े है। कहानी लिखने की प्रक्रिया में संबंध भी चोरी करने लगा हूँ। जब किसी व्यक्ति के बातचीत में कोई किरदार मुझे अच्छा लगता है उसे अपनी दुनिया हिस्सा बना लेता हूँ। ऐसा करना कभी कभी मुझे व्यक्ति को बंधक बनाने जैसा भी लगता है लेकिन लिखने के बाद मैं इसे उसी व्यक्ति के पास छोड़कर अपने घर चले आता हूँ। लंबी यात्रा के दौरान मुझे ज़्यादा वक्त नहीं मिलता, कहानी लिखने के बजाय केवल उसकी भूमिका तैयार कर छोड़ देता हूँ। मुझे बाद में अपने लिखे में उस व्यक्ति से फिर मिलना होता है।











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