समझौता प्यार का दूसरा नाम - 7 Neerja Pandey द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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समझौता प्यार का दूसरा नाम - 7



विमल और वसुधा के गांव इस तरह अचानक आने से सभी बहुत खुश हुए। बच्चे की बात किसी को पता नहीं थी। वसुधा की गोद में गोल मटोल अरुण को देख सभी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सब हैरत में थे की किसी को भी पता नहीं था कि वसु मां बनने वाली है। मां के साथ साथ घर की बाकी औरतें शिकायत कर रही थी की,"तूने अकेले सब कुछ झेल लिया और हम सब को बताया भी नहीं। इतना भी क्या छिपाना था हम में से कोई चला जाता तुम दोनो की मदद के लिए।" वसु ने हंस कर टाल दिया। कोई आवश्यकता नहीं समझी की वो बताए की उसने बच्चे को जन्म नहीं दिया है।
इधर विमल घर के मर्दो के साथ बैठक में बैठा था। वो रागिनी के पापा से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछ रहा था। उन्होंने कहा,"बेटा...! अब तो तुम भी इस घर के सदस्य जैसे हो, तुमसे क्या छिपाना ना तो यहां गांव में लड़कियों के लिए सुविधा है आगे पढ़ने की और न मेरे पास इतना पैसा ही है की आगे पढ़ने के लिए शहर भेज सकूं जैसे भैया ने वसु को भेजा था।" इतना कह कर वो चुप हो गए । मायूसी उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी। उन्हे मलाल था की वो वसु की तरह रागिनी को शहर नहीं भेज पा रहे थे। वसु अकेली संतान थी इसलिए उसके पिता ने उसे शहर भेज दिया पर रागिनी दो बहन तीन भाई थी। उसके पिता के ऊपर बहुत जिम्मेदारी थी। वो विवश थे रागिनी को आगे पढ़ाने में।
विमल को तो अपनी बात कहने का मौका ही मिल गया। उसे अपनी तरफ से रागिनी को साथ ले जाने की पहल नहीं करनी पड़ी। वो बोला, "चाचाजी आप परेशान क्यों होते है? मैं तो शहर में ही रहता हूं। फिर आप सब के आशीर्वाद से सक्षम हूं की रागिनी की पढ़ाई करवा सकूं। आप उसे हमारे साथ भेज दीजिए। उसकी पढ़ाई भी हो जायेगी और इंदु को सहयोग भी मिल जायेगा। अरुण के आने के बाद वो बहुत व्यस्त हो गई है। घर बाहर दोनो जिम्मेदारी निभाने में रागिनी के रहने से वसुधा को आसानी होगी।"
इधर जब चाची ने वसु से कहा की, "बिटिया तुम हमें बताती की तुम मां बनने वाली हो तो मैं रागिनी या जयंती को भेज देती तुम्हारी मदद के लिए । अब मैं तो बेटी के घर जा कर रह नही सकती।" वसु बोली,"चाची इसीलिए तो हम यहां आए है, तब नही बताया तो क्या हुआ? अब हमे आपकी मदद की जरूरत है। मैं कब तक छुट्टी लेकर घर पर बैठूंगी? आप रागिनी को मेरे साथ भेज देती तो उसकी पढ़ाई भी हो जाती और अरुण को पालने में मुझे सहयोग भी मिल जायेगा।"
चाची बोली,"ठीक है मैं तेरे चाचा से बात करके बताऊंगी।"
दो दिन वो दोनो वहां रुके। रागिनी के मां पापा ने आपस में विचार करके फैसला किया की रागिनी को वसुधा और विमल के साथ शहर भेज देंगे।
सुबह रागिनी चहकती हुई आई और वसु के हाथ से अरुण को लेते हुए बोली,"दीदी मैं भी आपके साथ शहर चल रही हूं मां पापा ने हां कर दी है। सच दीदी बड़ा मजा आयेगा मैं दिन भर अरुण साथ खेलूंगी।" अभी उसकी बात पूरी भी नही हुई थी कि पीछे से जयंती भी आ गई। मुंह फुलाए हुए बोली, "जाओ दीदी आप गंदी हो, रागिनी दीदी को साथ ले जा रही हो और मुझे अकेला छोड़ दे रही हो….? मैं रागिनी दीदी के बिना कैसे रहूंगी?"
वसु ने हंस कर उसे देखा और बोली, "अच्छा तो मेरी गुड़िया रानी नाराज है दीदी से! अच्छा ऐसा कर तू भी चल। मैं चाचा से बात करती हूं।"
वसुधा के अनुरोध को सुन पहले तो जयंती के पापा उसे भेजने को राजी नहीं हुए। उन्हे संकोच लग रहा था की दो दो बेटियों की जिम्मेदारी उन्हे कैसे सौप दें?पर वसु ने उन्हें समझाया की बच्ची है उदास हो जायेगी! अभी आप साथ जाने दीजिए फिर मैं आऊंगी या यहां से कोई आएगा तो वापस आ जायेगी तो रागिनी के पापा से मना करते नहीं बना। चाह तो वो नहीं रहे थे पर मजबूरी और संकोच वश इजाजत दे दी। चहकती हुई जयंती एक पुराने झोले में अपने कपड़े और रागिनी की पुरानी किताबें रखने लगी। उसके पास कुल दो ही फ्रॉक थी। दोनो की दोनो ही वसुधा ले कर आई थी। रागिनी और जयंती के दीदी के साथ आने की तैयारिया होने लगी। चाची अचार,पापड़,बड़ियां,और भी खेतों में उपजने वाले सभी समान वसुधा के संग बांध दिया। दूसरे दिन सोमवार था। विमल सुबह जल्दी ही निकला चाहता था जिससे वो अपने कॉलेज जा सके।
वसु की मां और चाची ने मिल कर सुबह ही पूरी सब्जी बना कर साथ ले जाने के लिए दे दिया। वो बोली, पहुंचते ही तुम सब क्या खाना बनाने लगोगे? साथ लिए जाओ.. वहां पहुंच कर खा लेना।
सबसे ज्यादा चाव रागिनी और जयंती को विमल की चमचमाती गाड़ी में बैठने का था। अब रागिनी बड़ी और गंभीर थी तो अपनी उत्सुकता प्रकट नहीं होने दे रही थी। पर जयंती तो जब तक गाड़ी चल नही दी, तब तक बार बार बैठती, नीचे उतरती। दरवाजा बंद करती खोलती। वो घर के बाकी बच्चो से खुद को ऊपर समझ रही थी की अभी तक उन सभी ने सिर्फ कभी कभी गाड़ी देखी थी। बैठे तो उसमे अभी तक नहीं थे। वो अब इसमें सफर ही करने जा थी। रागिनी बकायदा मौसी होने का फर्ज अदा कर रही थी। नन्हे अरुण को अपनी गोदी में लेकर इत्मीनान से पीछे बैठ गई। वसुधा ने जैसे ही अरुण को अपने पास लेना चाहा वो बोली,"दीदी आप आगे जीजाजी के साथ बैठ जाओ। मैं और जयंती अरुण का ध्यान रखेंगे।"
रागिनी की साझदारी पर वसु मुस्कुरा कर रह गई। वो खुश थी की उसे अब थोड़ा आराम मिलेगा। बस कुछ ही घंटो का सफर था। विमल सब को लेकर घर आ गया।
पहुंचते ही विमल अपने कॉलेज जाने को तैयार होने लगा। वसु को अब बच्चे की मालिश और साफ सफाई करनी थी वो रागिनी से बोली,"रागिनी तुम अपने जीजाजी को खाना निकाल कर दे दो और तुम दोनो भी खा लो।" रागिनी ने डाइनिंग टेबल कभी नहीं देखा था। वो खाना नीचे रख कर पीढ़ा ( लकड़ी से बना पटरा जिस पर बैठ कर खाना खाते है) ढूढने लगी तो विमल हंसते हुए टेबल की ओर इशारा करके बोला, "अरे!! रागिनी यहां इस टेबल पर खाते है।"
अपनी अज्ञानता पर झेपती हुई रागिनी ने खाने की थाली टेबल पर रख दी। विमल ने उन दोनो को भी साथ खाने को बुला लिया। जयंती तो भूखी थी तुरंत ही खाने बैठ गई। पर रागिनी ने मना कर दिया की "मैं दीदी के साथ खा लूंगी।" विमल कॉलेज चला गया।
एक महीने तक तो वसुधा घर पे रही छुट्टी ले कर अरुण की देखभाल के लिए। इस बीच रागिनी का एडमिशन विमल ने कॉलेज में और जयंती का स्कूल में करवा दिया। वो दोनो स्कूल, कॉलेज जाने लगी। उनके ना रहने पर वसुधा ही अरुण को संभालती ।
अब छुट्टी खत्म हो गई वसुधा ने हॉस्पिटल जाना शुरू कर दिया। समस्या अरुण की थी। जयंती स्कूल में थी तो उसका रोज जाना जरूरी था। पर रागिनी के कॉलेज में ज्यादा क्लास भी नहीं होती थी। जब वसुधा घर पर होती तो ही रागिनी कॉलेज क्लास करने जा पाती। विमल रागिनी और जयंती के आने के बाद कुछ दिन तो बिना किसी को बताए ही चर्च चला जाता था। एक संडे वो रागिनी से बोला "तुम्हे गाना पसंद है ना! चलो आज तुम्हे ऐसी जगह ले चलता हूं जहा गाना भी होगा और तुम्हे बहुत अच्छा लगेगा।" ये सुन वसुधा ने रोष जताया पर विमल ने वसुधा की नाराजगी को अनदेखा करते हुए रागिनी से साथ चलने को कहा। पहले तो रागिनी ने मना किया फिर विमल के बार बार कहने पर तैयार हो गई। रागिनी और विमल गए। वहां प्रार्थना सभा में कैरल गाया जा रहा था। विमल ने रागिनी को भी गाने को कहा। ये सब कुछ बिलकुल ही नया था रागिनी के लिए। क्या हो रहा है वो समझ भी नहीं सकी। बस जो सब गा रहे थे वही वो भी गाने लगी। पहले ही दिन उसके मधुर स्वर के सब दीवाने हो गए। इतनी तारीफ पाकर वो प्रसन्न हो उठी। सभी ने अनुरोध किया की अगले संडे को भी वो जरूर आए। रागिनी ने हां कर दिया। प्रसन्न सा विमल उसके साथ घर आ गया। सारी बात जयंती को भी बताई। अब वो भी जिद्द करने लगी की अगले संडे मैं भी चलूंगी। वसुधा को ये सब अच्छा नहीं लग रहा था। वो जानती थी की ये दोनो नादान है। पर विमल को इन्हे नही ले जाना चाहिए।
अब तो हर रविवार सुबह ही दोनो तैयार हो जाती। उन्हे तो सिर्फ घूमने और गाने से मतलब था। क्या हो रहा है वास्तविकता में ये उनकी समझ से परे था।
समय बीतता रहा। वसुधा अपनी नौकरी में व्यस्त हो गई। धीरे धीरे करके रागिनी ने पूरे घर का दारोमदार अपने ऊपर ले लिया। अब पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता। वो बस पास हो जाती। जयंती छुट्टियों में गांव जाती पर कोशिश करती की ज्यादा दिन ना रहना पड़े। रागिनी तो विमल और वसु के साथ ही जाती साथ ही वापस आती।
वसु नौकरी के बाद जो भी वक्त घर पे रहती वो इतनी ज्यादा थकी रहती की या तो थकान उतारती या फिर अरुण की देख भाल करती। विमल की तरफ से वो उदासीन हो गई थी। विमल भी जब इंदु के साथ वक्त गुजारना चाहता तो थकान का रोना ले कर बैठ जाती। दूरियां बढ़ती जा रही थीं।

अगले भाग में पढ़े, इन दूरियों का क्या कोई असर पड़ा वसुधा और विमल के रिश्ते पर। ये फासले बस कुछ समय के लिए थे या स्थाई रूप लेने वाले थे।