Samjhota pyar ka dusara naam - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

समझौता प्यार का दूसरा नाम - 4

वसुधा पापा के साथ जाना तो नहीं चाहती थी पर वो इतने खुश थे, कि उसे भी जाने का मन हो गया। मां और बाकी परिवार वालों से मिलने की खुशी में जल्दी जल्दी अपना सामान बांध कर तैयार हो गई। शाम को पिता पुत्री अपने घर में मौजूद थे। परिवार के सभी सदस्य खुश थे वसुधा के घर आने से। साथ के घर में रहने वाले वसुधा के चचेरे ताऊ जी की बेटियां और बेटे भी उससे मिलने आए। आखिर उनकी वसु दीदी थी जो शहर से आई थी। रागिनी और जयंती दोनो का अपनी वसु दीदी से कुछ ज्यादा ही लगाव था। जब भी वसुधा आती वो दोनो साथ ही रहती उसके। रागिनी अच्छा गाती थी। उसकी आवाज बहुत सुरीली थी। जबकि जयंती अभी छोटी थी,वो बस वसुधा की ही नकल करती रहती थी। रागिनी की उम्र पन्द्रह वर्ष रही होगी और जयंती की उम्र ग्यारह वर्ष रही होगी। वसुधा का वक्त बड़े ही अच्छे से अपने इस भरे पूरे परिवार में कट जाता था।
मां अपना सारा प्यार अपनी लाडली बेटी पर उड़ेल देना चाहती थी। अमूमन गांव में इस उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती थी। वसुधा की मां भी चाहतीं थी कि उसकी शादी हो जाए। पर उसके पापा तो उसे सब से अलग ही अपनी बेटी को समझते थे। वो उसे बेटे की तरह अपने पैरो पर खड़ा करना चाहते थे। ताकि उनकी बेटी को किसी के हाथ ना फैलाना पड़े। वो आत्म निर्भर बने।
इधर वसुधा के जाने के बाद विमल का समय जैसे ठहर सा गया था। एक एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। फिर ये भी उसे नहीं पता था कि वसु कब तक आएगी?
शौकीन विमल को वही क्वार्टर जो कभी बहुत अच्छा लगता था,अब पसंद नहीं आ रहा था। ना ही उसे अब मेस के खाने में स्वाद आता था। उसने अपनी जिंदगी की शुरुआत नए घर से करने की ठानी। अब जब शादी करनी है तो एक अच्छा सा घर भी होना चाहिए। जो उसके सपनो का घर हो। उसमे वो वसुधा के साथ अपनी खुशहाल जिंदगी बिताए। इस लिए उसने शहर के अच्छे से एरिया में प्लॉट देखना शुरू कर दिया। जल्द ही उसके मन मुताबिक प्लॉट मिल भी गया। पैसे तो उसने जमा कर रखा ही था। जल्द ही प्लॉट खरीद लिया और लोन लेकर घर बनवाने की शुरुआत कर
दी।

देखते ही देखते दो महीने का समय बीत गया। वसुधा का रिजल्ट आ गया। वो अच्छे नंबरों से पास हो गई।
अब उसे वापस शहर आना था। उस समय सिर्फ पास होने पर ही नौकरी लग जाती थी। एक बार फिर वसुधा की घर से शहर आने की तैयारी होने लगी। मां अपने हाथ से तरह तरह के पकवान बना कर उसे साथ देने के लिए रखती जा रहीं थी। पापा साथ आए उसे छोड़ने। वसुधा की ज्वाइनिंग डिस्ट्रिक हॉस्पिटल में हो गई। वसुधा को हॉस्टल का खाना पसंद नहीं आता था। इसलिए हॉस्पिटल के पास ही एक अच्छा कमरा देख कर पापा ने उसे व्यवस्थित कर दिया। सारी आवश्यक चीजों की खरीदारी भी कर दी। एक हफ्ते रुक कर उन्होंने बेटी को बिलकुल व्यवस्थित कर दिया। हर जरूरी चीज की जानकारी और वो दुकान दिखा दी जहां वसुधा को जरूरत की सारी चीजे मिल जाती। मकान मालिक से अनुरोध किया कि वसु को जरूरत पड़ने पर उसकी मदद कर दे।
वो उसे बिलकुल बच्ची ही समझते थे। हॉस्टल में सिर्फ पढ़ाई करनी थी। बाकी किसी भी चीज की व्यवस्था नहीं करनी होती थी। पर अब तो उसे नौकरी के साथ साथ घर के सारे काम भी निपटाने थे। जब तक अवधेश जी थे तब तक बेटी का पूरा ध्यान रक्खा। पर वो कब तक रुक सकते थे! उन्हें अपनी दुकान की भी चिंता थी। आखिरकार वो गांव चले गए।
अब वसुधा की ड्यूटी कभी सुबह की शिफ्ट में होती तो कभी रात में होती। वो अपने लिए कुछ भी बना लेती। इस भाग दौड़ में उसे विमल का ध्यान नहीं आया।
जब जिंदगी पटरी पर आ गई। उसे विमल का ध्यान आया पर घर परिवार के सम्मान का सोच वो अपने मन से विमल को भुलाने की कोशिश करती। पर वो निश्चय जरूर कर बैठी थी की विमल को उसके पापा स्वीकार नहीं करेंगे। वो अपने पैरो पर खड़ी है। कभी शादी नही करेगी। पापा का सम्मान जरूरी है पर वो विमल की जगह किसी दूसरे को भी नहीं दे सकेगी।
वसुधा को नौकरी करते पूरे चार महीने हो गए। पापा हर महीने आते। कभी कभी मां भी साथ आती। एक दो दिन रुक कर चले जाते। वसु अपने काम भर के पैसे रख बाकी अपने पापा को देती। पापा ने उस पैसे को बैंक में जमा करना शुरू कर दिया उसकी शादी के लिए।
विमल जरूर परेशान था वसुधा के लिए। शहर तो छोटा ही था। पर वो कैसे ढूंढता उसे? उसे तो ये भी नहीं पता था कि वसुधा गांव में है या शहर आ गई है।
वसु के मां पापा उससे मिलने आए थे। वसु बड़े ही चाव से मां पापा को बाजार ले कर गई कि उनके लिए आने वाले त्योहार के लिए नए कपड़े खरीद सके। पापा के लिए उनके मना करने के बावजूद मंहगे पैंट शर्ट खरीदे।
मां के लिए साड़ी। मां ने उसके लिए भी दो सूट खरीद दिया। वो उसे अपने ऊपर डाल कर दूसरी तरफ लगे शीशे में देख ही रही थी कि उसे शीशे में विमल का अक्स नजर आया। अपने मन का भ्रम समझ वो फिर से देखने लगी शीशे में, तभी विमल बिलकुल उसके पीछे आकर कंधे पर हाथ रख दिया। उसे उम्मीद भी नहीं थी कि उससे कपड़े की शौक की वजह से वसुधा उसे इस तरह अचानक मिल जायेगी!
इधर जब वसुधा अंदर कपड़े ट्राई कर रही थी उसी बीच विमल आकर उसके मां पापा के पास बैठ गया था। दुकान वाला उसका परिचित था। इस कारण कपड़े दिखाने वाले से बोला,"अरे !!! ये सब क्या दिखा रहा!! हटाओ ये सब और बाबूजी को महंगे वाले कपड़े दिखा।" ये कह कर जो अवधेश जी और वसुधा ने देखे थे वो कपड़े बगल करवा दिए। एक तो विमल सुंदर था ऊपर से ये जान कर की पैसे वाला भी है। वसुधा के मां पापा उसे गौर से देखने लगे। उनके मन में अपने वसु के लिए ऐसे ही वर की लालसा होने लगी। जो कपड़े कीमत की वजह से अवधेश जी ने छोड़ दिया था,उन्हें ही विमल ने अपने लिए खरीदा।
अचानक विमल और वसु आमने सामने थे। जो दोनो ने सोचा भी नहीं था। विमल जहां खुश हो रहा था, इस तरह उसे सामने देख कर। वहीं वसुधा इतने दिनो बाद विमल को देख खुश तो थी पर ये ख्याल आते ही की मां पापा बाहर बैठे है , उसकी खुशी गायब हो गई। वो जल्दी से विमल से दूर होते हुए बोली,"बाहर मेरे मां पापा बैठे हैं अगर तुम्हारे साथ देख लिया तो अनर्थ हो जायेगा।"
विमल आश्चर्य से बाहर इशारा करते हुए बोला,"वो जो बैठे हैं? "
"हां" वसु ने कहा।
अभी मैं उनके पास ही तो बैठा था। शीशे में तुम्हारी परछाई दिखी तो अपना वहम दूर करने अंदर चला आया कि तुम्ही हो या सच में मुझे हर जगह तुम्ही दिखाई दे रही हो।"
देर होते देख अवधेश जी बेटी को देखने अंदर आ गए। वसुधा बाहर निकलने को आतुर थी और विमल बार बार उसे रोक था।
जैसे ही विमल के साथ वसु को देखा अवधेश जी क्रोध से कांप गए, गुस्से से कमल की ओर देखते हुए बोले," वसु ये कौन है? क्या तुम इसे जानती हो...?"
सकपकाई सी वसु से कोई जवाब देते नहीं बना। बस वो जल्दी से बाहर आकर मां के पास खड़ी हो गई। उसके पीछे पीछे कमल और अवधेश जी भी आ गए। वसु की मां पति के अचानक बदले रुख से अचंभित थीं। अभी तक जिस चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी,अब वही चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। वसुधा को पिता के सवाल का कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। इन हालात का सामना करने की उसके दिल ने अभी कल्पना भी नहीं की थी।
पर विमल तो जैसे बिलकुल तैयार ही बैठा था इस हालत के लिए। वो पास आकर पहले वसु की मां के पांव छूता है,फिर हाथ जोड़ कर अवधेश जी के पांव छूता है। वसुधा की ओर देखे बिना ही अवधेश जी से कहता है, "हा ..! अंकल हम एक दूसरे से परिचित है। हम सब आराम से बैठ कर कही बात कर सकते है?"
वैसे तो अवधेश जी बिल्कुल ही मना कर देते पर उन्हे बेटी को अकेले शहर में छोड़ कर जाना था , और एक अजनबी लड़का कह रहा है कि वो उनकी बेटी का परिचित है तो पूरी बात जानना उनके लिए बहुत जरूरी हो जाता है। पास के ही सुनसान पार्क में वो सभी के साथ जाते है। विमल बिना किसी लग लपेट के अपना और अपने पूरे परिवार का परिचय देता है। अपनी नौकरी और मकान निर्माण के बारे में भी बताता है। फिर अप्रत्याशित रूप से अचानक वसु से शादी का प्रस्ताव रख देता है। वो हैरान रह जाते हैं कमल की बात सुन कर । उसके साहस पर उन्हे आश्चर्य होता है। कैसे कोई पहली ही बार मिलने पर शादी का प्रस्ताव रख सकता है? वसु बस नजरे झुकाए रोए जा रही थी। जाति पूछने पर विमल ने शर्मा ही बताया। वो साफ झूठ बोल गया कि अब वो ईसाई बन चुका है। उस समय इस तरह की बातें सामान्यतः नहीं होती थी। अवधेश जी को बेटी का रोना और चुप रहना अखर रहा था। अगर वसु के मन में कमल को ले कर कोई भावना ना होती वो उसका प्रतिवाद करती। इतना तो वो अपनी बेटी को जानते ही थे।पर वसु खामोश थी। इसका अर्थ था कि वो भी विमल से लगाव महसूस करती थी। अनुभवी अवधेश जी ने लगभग शांत रहते हुए विमल से वहां से चले जाने को कहा। वो उसे लेकर तो यहां इसलिए आए थे कि खूब खरी खोटी सुनाएंगे और वसुधा से दूर रहने को कहेंगे। पर जब अपनी ही औलाद की गलती उन्हे समझ आ रही तो फिर उसे भला बुरा कहने से क्या होगा?

क्या अवधेश जी ने अपनी प्यारी बेटी की खुशी के लिए विमल को स्वीकार कर लिया? या फिर वसुधा को उससे दूर रहने का आदेश दिया। क्या निर्णय लिया वसु के पिता ने? और क्या वसुधा ने उसे स्वीकार किया पढ़े अगले भाग में।


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