भारतीय सिनेमा में स्त्री की छवि Ranjana Jaiswal द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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भारतीय सिनेमा में स्त्री की छवि

आजादी से पहले बाल-विवाह,बेमेल विवाह ,पर्दा-प्रथा और अशिक्षा पर केन्द्रित कई फिल्में बनाई गईं |दुनिया ना माने ,अछूत कन्या,आदमी ,देवदास ,इन्दिरा एम ए ,बालयोगिनी आदि फिल्में स्त्री –जीवन की विडंबनाओं पर केन्द्रित थीं |आजादी से पहले बनाई गयी ज्यादातर फिल्में सामाजिक विषयों पर थीं और उनका उद्देश्य समाज को बदलना था |लेकिन आजादी के बाद फिल्मों का लक्ष्य सामाजिक उत्थान से ज्यादा पैसा कमाना रह गया |

आजादी की बाद की फिल्मों में स्त्री समस्या की जगह दाम्पत्य –जीवन में स्त्री की शुचिता,पतिव्रत व आदर्श पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा |स्त्री को धैर्य के साथ अत्याचार सहते पति-को परमेश्वर मानकर पूजा करते दिखाने का जैसे फैशन –सा हो गया |यदि पति-पत्नी के बीच कोई मतभेद होता था या कोई घर टूटता था या उनमें शक-शुबहा का वातावरण बनता था ,तो इसका सारा दोष स्त्री पर डाल दिया जाता था |फ़िल्मकारों को स्त्री को दोषी करार देने में इतना मजा आता था कि वे अपने हिसाब से ऐसी परिस्थितियों का निर्माण कर लेते थे ,जिसमें स्त्री ही गलत नजर आती थी और बाद में वे उस स्त्री से क्षमा मँगवाते थे |श्रीमान-श्रीमती ,गृह-क्लेश,ये कैसा इंसाफ ,अनुभव जैसी फिल्मों में स्त्री का नौकरी करना एवं पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण भी इसी क्रम में देखा जा सकता है |जो स्त्री अपने अधिकारों के प्रति सजग थी उन्हें क्लबों में शराब-सिगरेट पीते दिखाकर बुरा साबित किया जाता था |इसके बावजूद स्त्री –समस्या और चरित्र को लेकर भी कुछ फिल्में बनी |कुशल अभिनेत्रियों ने अपने से स्त्री-स्वतन्त्रता को जीवंत भी किया |

सिनेमा में स्त्री के दो रूप दिखाये जाते रहे है -पहली देवी-स्वरूपा दूसरी सौंदर्य साधिका |पारिवारिक और सामाजिक समस्या को लेकर उस समय कम ही फिल्में बनी |

तीसरे दशक के लगभग सिनेमा में सुखद परिवर्तन देखा गया |इसका कारण यह था कि इस समय सिनेमा के लेखन,निर्देशनऔर संगीत के क्षेत्र में स्त्रियाँ आईं |उनके आने से स्त्री-प्रधान फिल्मों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई |स्त्रियाँ अधिक संख्या में सिनेमा में आने लगीं |स्त्री=फ़िल्मकारों ने स्त्री-समस्याओं को बड़ी बारीकी से सिनेमा के पर्दे पर उजागर किया |इन फ़िल्मकारों में दीपा मेहता ,मीरा नायर ,कल्पना लाजमी ,अपर्णा सेन आदि महत्वपूर्ण नाम हैं पर इन स्त्री फ़िल्मकारों ने भी आम स्त्री की वेदना को नहीं दिखाया |पचास-साथ के दशक में विमल राय ,गुरूदत्त,महबूब खान और राजकपूर जैसी हस्तियों ने स्त्री की आंतरिक स्थिति और विचारों पर केन्द्रित बेहतरीन फिल्में बनाईं |स्त्री किस तरह अपने व्यक्तित्व में जीती है ,उसकी खुशी किसमें है ?उसका मन क्या कहता है और वह किस प्रकार समाज और परिवार को देखते हुए कहाँ पहुंचना और रहना चाहती है |मधुमती,कागज के फूल,प्यासा,मदर इंडिया आदि इसी तरह की फिल्में हैं |केतन मेहता की फिल्म 'मिर्च-मसाला' स्त्री- को जागृत करने का काम करती है तो मुजफ्फर ली की 'उमराव जान' एक कोठे वाली नृत्यांगना की स्त्री- संवेदना को सामने लाती है |उसके बाद के दशक में स्त्री-पक्ष को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन दिखाई पड़ा |इस परिवर्तन ने सिर्फ पर्दे पर ही स्त्री चरित्र को नहीं बदला बल्कि समाज में जड़ जमाए हुए स्त्री-संबंधी धारणाओं को भी तोड़ डाला |सामाजिक अंतर्द्वंद का यथार्थ चित्रण सुजाता,गाइड,उपकार ,अभिमान आदि फिल्मों में दिखाया गया |

नब्बे के दशक में भारत में बाजार के उदारीकरण और अर्थ-व्यवस्था के वैश्वीकरण के प्रारम्भ से हिन्दी सिनेमा में विदेशी कंपनियों की भागीदारी बढ़ गयी और हालीवुड सिनेमा का असर हमारी फिल्मों पर दिखने लगा |इसका प्रभाव स्त्रियों पर भी पड़ा | फिल्म ‘लम्हा और हीना’ में स्त्री संवेदना ,प्रेम के साथ जीने की समस्या भी दिखी | रूदाली और रोजा ने समाज में स्त्री के चरित्र ,प्रेम और कमजोरियों को उभारा |दोनों फिल्मों की स्त्री लड़ती है पर समाज और परिस्थितियों के आगे झुक जाती है |

स्त्री के सशक्त रूप का दर्शन 'दामिनी' में मिलता है |स्त्री पति से अलग रहकर भी अपने सम्मान के लिए लड़ सकती है ।समाज के अत्याचारों के खिलाफ खड़ी हो सकती है ,साहस के साथ असामाजिक तत्वों का सामना कर सकती है ,यह इस फिल्म में दिखाया गया और इसे भारतीय समाज में सराहा भी गया |समय के साथ सिनेमा में बदलाव आ रहा था |'बाम्बे' फिल्म में मुसलमान स्त्री और हिन्दू लड़के से प्रेम को विवाह को दिखाया गया और उससे उत्पन्न परेशानियों को भी |फिल्म 'विरासत' में गाँव और शहर की स्त्री के बीच आंतरिक संवेदना को दिखाया गया |वहीं परदेश के स्वछंद वातावरन में घुटती नायिका को भी |

सामाजिक बंधनों को तोड़ने वाली स्त्री के अनगिनत चरित्र को हजार चौरासी की माँ ,दिल,गॉड मदर और दिल दे चुके सनम जैसी फिल्मों को देखा जा सकता है |स्त्री की वेदना ,उसकी चाह को चरित्रों के माध्यम से सिनेमा में दिखाया गया |

समाज के दोहरे चरित्र को प्रदर्शित करती फिल्मों में लज्जा,चाँदनी वार ,मानसून वेडिंग,,क्या कहना आदि फिल्मों को रखा जा सकता है |ये फिल्में साफ बताती हैं कि भारतीय समाज किस तरह स्त्री- मुक्ति के विरूद्ध खड़ा है |

'लीव इन रिलेशनसिप 'पर आधारित फिल्म 'सलाम नमस्ते' में दिखाया गया कि स्त्री स्वतन्त्रता चाहती है |अपने-आप को अभिव्यक्त करना चाहती है |फिल्म :मित्र माई फ्रेंड' में एक ऐसी स्त्री को दिखाया गया है ,जो अपनी बोरिंग दिनचर्या से उदास हो जाती है और कुछ नयेपन की तलाश में लग जाती है |अपने अकेलेपन को कम करने के लिए वह इन्टरनेट का सहारा लेती है ,दोस्त बनाती है और उनसे चैट करती है |

नयी स्त्री के चरित्रों को नया आयाम और नयी परिभाषा देने की कोशिश 'लव आजकल' ,'इश्किया' जैसी फिल्में करती हैं |नयी स्त्री अपना जीवन खुलकर जीना चाहती है |लोगों के कुछ कहने की उसे परवाह नहीं है |वह बस बिंदास जीना चाहती है |इस तरह के स्त्री चरित्र को देखकर लगता है कि आज की स्त्री की परिधि सीमित या छोटी नहीं है|वह काफी विस्तृत हो गयी है |आज स्त्री विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश कर रही है

आज की नयी स्त्री अपने कैरियर को सबसे ऊपर रख रही है |वह आत्म-निर्भर होना चाहती है |अपनी अलग पहचान चाहती है |विवाह और पारिवारिक मामले में उसकी राय बादल रही है |विडम्बना यह है कि आज भी भारत में बहुत –सी स्त्रियों का जीवन गाँव के परिवेश में बीतता है ,जहां सुविधाओं की कमी है |जहां उन्हें बुनियादी सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार नहीं है ,शहर में स्त्रियों के सामने गाँव की स्त्री जैसी समस्या नहीं है |इन सबके बावजूद आज नयी अवधारणा ,नए विचारों का पदार्पण हुआ है |कार्य के हर क्षेत्र में स्त्रियों की संख्या बढ़ी है |स्त्रियाँ आज सिनेमेटोग्राफर ,डिजायनर ,स्क्रिप्ट राइटर के रूप में भी अपनी पहचान बना चुकी हैं |उन्हें अपने परिवार की चिंता है ,पर उनका जीवन सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है |वे अपने चरित्र को अपने तरीके से या अपने हिसाब से ढालना चाहती हैं और उस पर गर्व करती हैं |हिन्दी सिनेमा में स्त्री-चरित्र को लेकर देव-डी,स्वराज,ब्लैक,वाटर आदि में स्त्री-जीवन की कहानी स्पष्ट है |समाज में लगातार परिवर्तन होता रहा है और उसी हिसाब से स्त्री संबंधी उसकी विचारधारा भी बदलती रही है |कहीं वह आसमान छू रही है तो कहीं अभी तक अबला है |उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण भी समाज में स्त्री के चरित्र ,उसकी वेदना और भावों का दोहन किया जा रहा है |

यह सच है कि हिन्दी सिनेमा के कारण समाज में कई परिवर्तन हुए|स्त्री की जिंदगी नयी हुई |आज भी फिल्मों में स्तरीय परिवर्तन की जरूरत है ,जिससे जीवन की सोच ऊंची हो |सोच बदलने से ही स्त्री को नयी दृष्टि मिलेगी और वह अपने जीवन का निर्धारण खुद कर पाएगी |खुद को उपभोग्य वस्तु के इमेज से निकालकर नयी पहचान बना सके और एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा पा सके |