चौथा नक्षत्र - 3 Kandarp द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चौथा नक्षत्र - 3

अध्याय 3

शाप

सुरभि अचानक अचकचा कर जाग गयी | रात देर तक उसे नींद नही आई थी |सुबह थोड़ी आँख लगी ही थी कि अब फिर घबरा कर नींद खुल गयी | सुरभि को लग रहा था कि जैसे वह अब तक कोई बुरा स्वप्न देख रही थी , कि जैसे कल की घटनाएं वास्तविक नही थी |उसने सिर घुटनो से उठाकर सामने की ओर देखा | उसकी दृष्टि आई.सी.यू. के दरवाजे से टकरा गई | गर्दन पर पसीने की बूंदे उभर आई | शांत हुयी दिल की धड़कने फिर बढ़ गईं |वह कसमसा उठी |

कल ही कमल को आई . सी.यू. में शिफ्ट कर दिया गया था | आई.सी.यू. अस्पताल के तीसरे फ्लोर पर था | फ्लोर दो हिस्सो में विभाजित था | आधे हिस्से में आई.सी.यू. था और आधे हिस्से में परिजनों के ठहरने के लिए फोम के मोटे गद्देदार सोफे लगे हुए थे |उन्ही में से एक सोफे पर इस समय वह बैठी हुई थी |आई.सी.यू. के हर एक बेड के लिए यहाँ एक सोफा आबंटित था | तनय और अनिका रात में घर चले गए थे क्योंकि कोई एक ही वहां रुक सकता था | आई.सी.यू. के अंदर जाने के लिए स्टील का बड़ा सा दरवाजा था जो अक्सर बन्द रहता था | दरवाजा कभी कभार ही खुलता , जब किसी मरीज को देखने कोई परिचित अंदर जाता या बाहर आता | अंदर बड़े से हाल में कई बेड लगे थे जिन्हें पर्दों से विभाजित कर मरीजों को तनिक निजता प्रदान की गई थी |एक कोने में नर्सिंग स्टेशन बना हुआ था । हाल के अलावा कुछ कमरे भी थे जिनमें जरा गंभीर किस्म के मरीज थे | इन में से ही एक कमरे के बीचोंबीच रक्खे बेड पर कमल को लिटाया गया था | खून बहना तो रुक गया था किंतु होश अभी भी नही आया था | उसके गौरवर्णीय कसे हुए देह पर अब पीला टी शर्ट नहीं था उसकी जगह अस्पताल के नीले छोटे चौखटे वाले कुरते ने ले ली थी | एक हाथ में आई.वी. लगी हुई थी | स्टैंड में लटकी बोतल उसकी शिराओं में बूंद बूंद ग्लूकोज़ पहुँचा रही थी | समय समय पर आकर एक पतली , साँवली नर्स फुर्ती से बोतल बदल जाती | कमल के मास्क चढ़े थके से चेहरे पर बन्द दो आँखें जैसे गहन नींद में खोई हुई थी|

सुरभि की नींद पूरी तरह खुल चुकी थी | दूर तक फैले आई.सी.यू. फ्लोर के सफेद संगमरमरी फर्श पर लोगो का आना जाना बढ़ गया था लेकिन वह सामने की सफेद पुती दीवार को बस घूरती जा रही थी | उसके सोफे के पास लगी बड़ी जालीदार खिड़की से होती हुई सुबह की सुनहरी धूप उसके सफेद उजले तलवों तक सरक आयी थी | खिड़की के पास रक्खे पाम-ट्री की पत्तियां उचककर बाहर देखने का प्रयास कर रही थी | सुरभी ने गर्दन घुमा कर पाम की कटी छटी पत्त्तियों को देखा |कुछ देर के बाद उसे लगा जैसे पाम की पत्त्तियों का आकार धुंधलाने लगा है । पत्त्तियों पर रुकी उसकी आँखो के आगे जैसे अब बादल घिरने लगे हों । उसके आस पास का परिवेश बदलने लगा था । अब वह फिर से कालेज के उसी प्राँगण में खड़ी हो गयी थी ,जहां अभी कुछ ही देर पहले गुलाबी कुमुदो से भरे ताल में कमल गिर गया था । सुडौल लंबी टांगो पर कसी उसकी हल्की नीली जीन्स घुटनो तक गीली हो गयी थी । घने घुँघराले बाल माथे पर बिखर आये थे |एक लड़के ने अपने हाथों का सहारा दे कर उसे बाहर निकाला था |मुग्धा और चित्रा अभी तक कमल के सम्मोहन में बंधी उसे एकटक निहार रही थी |


“हाय.........कितना हैंडसम है .........यार !!!”मुग्धा के मुँह से निकल ही गया | “ चुप करो ........चलो अब ..... पहला लेक्चर मिस नही करना है हमे |”

सुरभि मुग्धा का हाँथ पकड़ कर खींचने का प्रयास कर रही थी |फिर उसने पलटकर चित्रा की ओर देखा | चित्रा के चेहरे का रंग अचानक बदल गया था | उसके चेहरे पर कई भाव एक साथ आ जा रहे थे | वह उस लड़के को देखे जा रही थी जिसने अभी अभी कमल को पानी से बाहर निकाला था |

“क्या हुआ चित्रा ...........तुम उसे जानती हो क्या ” सुरभि ने पूंछा |

चित्रा ने कुछ भी जवाब नही दिया ,बस वह सुरभि और मुग्धा को खींचती हुई लेक्चर हाल की ओर बढ़ने लगी |

सुरभि के पैरो में गर्माहट आने लगी थी | वह तंद्रा से जाग उठी थी | आई.सी.यू. फ्लोर पर चहल पहल और भी बढ़ गयी थी | धूप उसके घुटनो तक चढ़ आयी थी | उसने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा | ग्यारह बज गए थे |उसे कुछ याद आ गया |

दो बजे तक पिताजी भी आ जाएंगे | पिताजी का चेहरा आँखो के सामने आते ही सुरभि की कसमसाहट और बढ़ गयी | उसकी आँखों के कोर फिर से गीले होने लगे | आज उनकी भविष्यवाणी का एक एक शब्द फिर से उसके कान पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ने लगा था |

सुरभि के पिता श्री त्रिलोचन पांडे |पांडे जी को कानपुर में कौन नही जानता |त्रिलोचन केवल उनके नाम में ही नही था वस्तुतः अवश्य ही उनके पास कोई तीसरा नेत्र था | हाँ..........लोगो का ऐसा ही मानना था| कानपुर में उन के जैसा सम्मानित भविष्यवेत्ता इस समय और कोई न था |विरासत में उन्हें केवल विलक्षण ज्ञान और पंडिताई ही नही मिली थी बल्कि रहस्यमयी दैवीय आभा से चमकता हुआ मुख और रोब और अकड़ से गठी हुई देह भी उन्होंने अपने पिता से ही हूबहू पाई थी |ललाट पर सघन भृकुटियों के एकदम मध्य बड़ा सा चंदन का टीका और गले मे पड़ी रुद्राक्ष माला उनकी आभा को और बढ़ा देती थी | कानपुर के ब्राह्मण समाज में उनका सम्मान अद्वितीय था |वैसे तो वह एक अति संम्माननीय विद्यालय में प्रधानाध्यपक के पद पर आसीन थे किंतु उन्होंने अपनी पुस्तैनी पंडिताई छोड़ी नही थी | विद्यालय में बालको को रसायन शास्त्र के समीकरण वह जिस आसानी से समझा देते उसी सहजता से अपने जजमान के वर वधू की कुंडली का मिलान भी कर देते |ऐसी अद्भुत विद्या पाई थी उन्होंने कि उनकी बनाई कुंडली और उनकी की गई भविष्यवाणी काशी तक कोई गलत सिद्ध नही कर पाया था | न जाने कितने यजमानो के जीवन में भावी कष्टो की सटीक जानकारी उन्होंने पहले ही दे दी थी |न जाने कितने नवजात शिशुओं के भावी जीवन की रूपरेखा उन्होंने अभी से खींच दी थी |

कहते हैं विद्या विनय प्रदान करती है किंतु यह कथन उनके लिए नही बना था |क्रोध उनके रोबीले व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता था |उनके विद्वता के साथ उनका क्रोध भी सर्व ज्ञात और सर्व मान्य था | लोग उनके पीठ पीछे कहा करते|” अरे ........दुर्वासा हैं ... साक्षात दुर्वासा |” कहते हैं एक बार किसी जजमान के घर पर रुद्राभिषेक कराते हुए ऐसी फटकार लगाई थी उन्होंने की बस रोना ही बाकी बचा था उस बेचारे का | और इस समय उसी दुर्वासा के भविष्यवाणी रूपी शाप से डरी हुई एक शकुंतला अस्पताल के सोफे पर बैठी हुई थी |

........... क्रमशः

............................ कंदर्प

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