चौथा नक्षत्र - 6 Kandarp द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चौथा नक्षत्र - 6


अध्याय 6

पण्डित जी के बच्चे

आई.सी.यू. का बड़ा सा दरवाजा खुला और हेड नर्स बाहर आयी वह वृद्ध मलयाली नर्स वैसे तो उस पूरे फ्लोर पर अपनी कर्कश तेज आवाज और सख्त अनुशासन के लिए मशहूर थी लेकिन सुरभि के साथ उसका रवैया जरा नरम था कल से पति वियोग में रोती उस कन्या ने कहीं न कहीं उसके पत्थर से सख्त दिल का एक कोना नरम कर दिया था

यू हैव टू मीट डॉक्टर रूपानी येट फोर ओ क्लॉक टुडे

हेड नर्स ने सुरभि के पास आकर अपनी सख्त आवाज को थोड़ा नरम करते हुए कहा था

क्यूं ?......क्या हुआ ?......क्या कहा डॉक्टर ने ?

सुरभि विचलित हो उठी

मेरा का नई मालूम......प्लीज मीट हिम ..”

नर्स की आवाज की गंभीरता ने उसका डर बढ़ा दिया था वह तुरंत सौरभ का नंबर डायल करने लगी सौरभ माँ और मृदुला भाभी को लेकर कुछ देर पहले ही अस्पताल से निकला था

मैं इन दोनों को कमला मौसी के घर छोड़ कर आता हूँ .....डरो मत ....|अब तो हम आ ही गये हैं

सौरभ ने अस्पताल से निकलते वक्त उसे दिलासा देते हुए कहा था

भइया कब तक आ जाओगे ? डॉक्टर नें मिलने के लिए कहा है

लगभग काँपती आवाज में उसने फ़ोन पर कहा

डॉक्टर रूपानी का ओ.पी.डी. रूम फर्स्ट फ्लोर पर था डॉक्टर अभी नही आये थे .पी.डी. के वेटिंग एरिया में ज्यादा भीड़ भी नही थी सुरभि सिर झुकाए चेहरे को हथेलियों में लिए बैठी थी कोहनियाँ पैरों पर टिकी हुई थी सौरभ उसके पास ही खड़ा था थोड़ी देर बाद डॉक्टर तेजी से अपने ओ.पी.डी. रूम में प्रवेश कर गए विचारमग्न सुरभि डॉक्टर के आने से अनजान थी सौरभ ने उसे उठने का इशारा किया .पी.डी. रूम का दरवाजा धीरे से खोलकर दोनो ने अंदर प्रवेश किया डॉक्टरी चित्रों से सजे उस साफ सुथरे कमरे की दीवारें प्रमाण-पत्रों से भरी हुई थीं एक बड़ी सी मेज के पीछे डॉक्टर साहब बैठे थे और उनके पास ही एक सुदर्शन युवक बैठा था जो उनका जूनियर था

कम मिसेस सक्सेना

डॉक्टर रूपानी ने मेज पर रक्खी केस फ़ाइल देखनी शुरू कर दी थी सुरभि चुपचाप कुर्सी पर बैठ गयी अभिवादन में बस उसने सर झुकाया था

सी मिसेस सक्सेना आई विल बी वेरी क्लियर पेशेंट को अभी तक होश नही आया है उसका सेंसरी रिस्पांस इस नॉट दैट मच गुड में बी ही इस .......”

डॉक्टर रूपानी थोड़ा रुक गए फिर उन्होंने कहना जारी रक्खा

हमे लग रहा है कि पेशेंट कोमा की स्टेज में आ रहा है .......ऐसे सीरियस एक्सीडेंट केसेस में होता है .....बट हमे श्योर होना है सो वी विल प्रोसीड विथ जी.सी.एस.”

जी.सी.एस.”

काँपते हुए सुरभि के गले से बस यही निकला |

यस ...ग्लास्गो कोमा स्केल ......वी विल चेक द सेंसरी रेपोन्स टू नो द .....

सुरभि की चेतना सुन्न होने लगी थी | उसने सौरभ का हाथ कस कर पकड़ लिया उसकी सुन्न होती चेतना में कई सारी आवाजें एक साथ उभरने लगी थीं पिताजी की चिर-परिचित रोबीली,ऊंची आवाज ..... माँ की रुक रुक कर आती धीमी आवाज ....सौरभ भइया का धीर गंभीर स्वर ....रीम कालेज के गलियारे में गूंजती मुग्धा और चित्रा की सम्मलित हँसी ......और इन सब से बिल्कुल अलग एक आवाज और भी थी ....कमल की वह उसके कान में फुसफुसा रहा था

सुरभि जानती हो इस पूरे ब्रम्हांड में क्या चीज नियम , और कानून से परे है ....प्यार इस पर कोई बंधन नही चलता ......किसी ग्रह या किसी नक्षत्र की कोई दशा भी काम नही करती |

सुरभि का धीरे धीरे शिथिल होता शरीर अब ओ. पी.डी. रूम के फ्लोर पर बिखर गया था

सुरभि को कमल के विचार बड़े अनोखे लगते थे उसके विचारों के नयेपन और गूढ़ता से वह मोहित हो जाती थी हर विषय का एक अलग और अनछुआ पहलू वह सुरभि के सम्मुख ऐसी सहजता से रख देता जैसे कोई आम बात हो सुरभि मुग्ध हो जाती सुरभि के मुग्ध होने की वजह भी थी उसके अति पारम्परिक परिवार में ऐसी मुक्त ,स्वछन्द हवाओं का आना सदैव प्रतिबंधित रहा था । पंडित त्रिलोचन पांडे ने अपने घर में परंपरा, रीतियों और संस्कारों की अखंड ज्योत को एक पल भी बुझने नही दिया था ।अपने दोनों बच्चो के मन में शुरू से ही उन्होंने संस्कार और परंपराएं कूट कूट कर भर दी थीं अक्सर जान पहचान वाले या फिर रिश्तेदार कह दिया करते

पंडित जी बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं आपने अपने दोनों बच्चों को देखिए ,बड़ों के सामने नजर भी नही उठती वरना आजकल तो ......”

लोगों की ऐसी बातों से ग्रह स्वामिनी कसमसा जाती उसको पता था कि इतने आज्ञाकारी बच्चों को गढ़नें में पंडित जी के चाबुक जैसे व्यक्तित्व का कितना योगदान था पंडित जी ने दोनों को ही छुटपन से अपनी कठोर नियंत्रण में रक्खा था वह स्वयं एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रधानाचार्य थे ,सो बच्चों का दूसरे किसी स्कूल में जाने का तो प्रश्न ही नही था दोनो हमेशा से ही पंडित जी के अंकुश और अनुशासन में रहे , घर के अंदर भी और घर के बाहर भी उन दोनों को उन्होंने कभी भी अपनी मान्यताओं और विचारों की लक्ष्मण रेखा लांघने नही दी थी और खास तौर से सुरभि को पढ़ने-लिखने में दोनों अव्वल थे और स्कूल की बाकी गतिविधियों में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे। इसका श्रेय भी पंडित जो को ही था अपने कठोर अनुशासन से दोनों को उन्होंने ऐसा ढाला था कि जैसे कोई सुनार सोने को और अधिक तपाकर और अधिक ठोक पीट कर ऐसा अप्रतिम आभूषण बनाये कि देखने वाले की नजर ठहर जाए अनुशासन से गढ़े पंडित जी के दोनों गहनें पूरी रिश्तेदारी में प्रशंसा के पात्र थे पंडित जी को इस बात का दम्भ भी था । उस समय जब पड़ोस की सुलभा चाची की संध्या ने घोषणा कर दी थी कि वह अपने पसंद के लड़के से ही शादी करेगी जो कि शायद उसके ऑफिस में ही था तब पंडित जी किस तरह दहाड़ पड़े थे

अरे बचपन से ही संस्कार देने पड़ते हैं ........हुँह, अपने आप शादी.....खेल है क्या न कुंडली मिलान ,न माता पिता की स्वीकृति ......शादी न हो गया खेल हो गया ....लव मैरिज ....यह नया रोग पनप गया है समाज में ।

सुलभा चाची के जाने के बाद काफी देर तक सुलगते रहे वह ।

उनकी धर्मपत्नी को उनके विचार और तरीके जरा भी स्वीकृत न थे लेकिन प्रतिरोध का साहस न था । बी.एच. यू.से स्नातक उनकी पत्नी के मायके की हवा ससुराल से बिल्कुल भिन्न थी । कहाँ मायके में पल पल माँ और बाबूजी की गूँजती स्वछंद हँसी,शाम देर तक चलती गोष्ठियां, माँ की सहेलियों का दोपहरी में जमघट, देश दुनिया की हजारों बातें , बहस और कहाँ उसके ससुर का रोब दाब से नियंत्रित साम्राज्य ।

-------------- क्रमशः

-------- कंदर्प

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कहानी को पसंद करने के लिए अपने पाठक परिवार को ढेर सारा प्यार। आपका स्नेह लिखने की प्रेरणा देता है । यह मेरा पहला उपन्यास है अतः समीक्षा अवश्य दें । धन्यवाद औऱ ढेर सारा प्यार ।