देखो भारत की तस्वीर 10
(पंचमहल गौरव)
काव्य संकलन
समर्पण-
परम पूज्य उभय चाचा श्री लालजी प्रसाद तथा श्री कलियान सिंह जी एवं
उभय चाची श्री जानकी देवी एवं श्री जैवा बाई जी
के श्री चरणों में श्रद्धाभाव के साथ सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
भाव सुमन-
पावन धरती की सौंधी-सौंधी गंध में,अपनी विराटता को लिए यह पंचमहली गौरव का काव्य संकलन-देखो भारत की तस्वीर के साथ महान विराट भारत को अपने आप में समाहित किए हुए भगवान राम और भगवान कृष्ण के मुखार बिन्द में जैसे-विराट स्वरुप का दर्शन हुआ था उसी प्रकार इस पंचमहल गौरव में भी विशाल भारत के दर्शन हो रहे हैं भलां ही वे संक्षिप्त रुप में ही क्यों न हों।
उक्त भाव और भावना का आनंद इस काव्य संकलन में आप सभी मनीषियों को अवश्य प्राप्त होंगे इन्हीं आशाओं के साथ संकलन ‘‘देखो भारत की तस्वीर’’ आपके कर कमलों में सादर समर्पित हैं।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़ डबरा
जिला ग्वालियर (म.प्र)
मो.9981284867
पत्थर खानें
पत्थर खानें बिलौआ, और लदेरा पास।
जौरासी को देखलो, रानी घाटी खास।
रानी घाटी खास, करहिया को भी जानो।
मकरध्वज के पास, आंतरी को पहिचानो।
बनबाई की जान, जहां का प्यारा पत्थर।
चल मऊछ के पास, जहां सब पत्थर-पत्थर।। 356।
रेत भण्डार
घाट लिधोरा, लांच भी, चलो अजयगढ़ पास।
बारे खो इन्द्रक वैल भी, और चांदपुर खास।
मान चांदपुर खास, चलो सिद्धपुरा पै आओ।
भैंसनाई का घाट, रेत मन भर के पाओ।
चलो विजकपुर चलें, सिंध का है जहां चौड़ा पाट।
सिल्हा घाट को देख, पलायछे का भी है घाट।। 357।
बन सम्पदा
लखेश्वरी की डांग, करहिया चलो सिमिरिया।
अमरौली बन देख, शीतला मातु सुमिरिया।
शीतला मात सुमिर कर, जौरासी जंगल देखो।
चलो विलौआ पास, भगेह मेंहगांब को लेखो।
घाटी जंगल भरी, गोराघाट, चांदपुरी।
भैंसनाई की डांग, पबाया चल गयेश्वरी।। 358।
मिल-कारखाने
डबरा शक्कर खाइए, इंदरगढ़ गुड़ खास।
क्रेशर चलते रात दिन, गोराघाट के पास।
गोरा घाट के पास, क्षेत्र यह गन्ना जानो।
जराबनी-जतरथी लखो, धूमेश्वर को भी मानो।
सांखनी शक्कर मील, ले रहा गन्ना सबरा।
गुड शक्कर का क्षेत्र, कहाता पूरा डबरा।। 359।
संतपुरूष
धूमेश्वर के संत जी, रानी घाटी संत।
मात लखेश्वरि पूजिए, करहिया रहे अन्त।
करहिया रहे अन्त, पबाया भवभूति पाओ।
दूधा धारी संत, चिटौली पूज मनाओ।
कन्हर पूजो जाय, पिछोर के है जो ईश्बर।
मनहर पूजो यहीं, पंचमहली धूमेश्वर।। 360।
राग रागिनी, गीत भी हैं यहां की पहिचान।
सप्त स्वरों में गूंजती, यहां की मधुरी तान।
यहां की मधुरी तान, कन्हर पद माला जानो।
रागो की पहिचान, ताल पै ताल पिछानो।
रागायन का क्षेत्र, सुनत होते बड़ भाग।
राग रागिन भरा, गा रहा अम्बर भी राग।। 361।
फाग पंचमहली सुनो, फगुआ करत किलोल।
टकशारी बातें कहैं, जो हों बड़ी अमोल।
जो हों बड़ी अमोल, अधर और धमार जानो।
होली हो श्रंगार, गुलाली रंग प्रधानो।
छन्द बंध से सजी, शैर के हैं कई भाग।
बुन्देली मन मोह, रंगी है रंग में फाग।। 362।
शादी त्योहार पर, सज धज जाता गांव।
दरबाजे संग पतंगी, फैलाती निज पांब।
फैलाती निज पांब, गीत-गारीं-मनहारी।
ज्योंनारों की धमक, ढोलकी बजत नियारी।
झांल मजीरा घोर, नाचती-गातीं दादी।
साजन मनहर गीत, लगै शादी-सी सादी।।363।
धरती-धरती धीर तब, जब हों सौहर गीत।
अंगनाई में नाचती, प्रेम पगी सी प्रीत।
प्रेम पगी सी प्रीति, लला जन्मे घर मांही।
खुशियां बांटत नचत पौर में बजत बधाई।
आस-पड़ोसिन जुरीं, पीर सबकी जहां हरती।
बटत बटौना घने, पुलकती प्यारी धरती।। 364।
घर आए बहुअर जमी, हुलस ढुलक बज जाय।
द्वारे जुर आयें सभी, गीत बधाई गांय।
गीत बधई गांय, पुजै बर-बरनी दोउ।
न्योंछाबर कर रही, लुटत है दौलत सोऊ।
हो रहे मंगलचार, नाच रहे जुर मिल सब घर।
हौसे फूले फिरत, बधाई लेने घर-घर।। 365।
हो रहीं देब मनौतियां, घुल्ला हिलत दिखाय।
बैसांदुर पर घृत चढ़त, मेबा सोवक चढ़ाय।
मेबा चढ़त दिखाय, हाथ जोरैं सब ठाड़े।
अर्जी रहे लगाय, पढ़त दुनियां के पहाड़े।
पूजत हो रहे खुशीं, दर्द की दुनियां खो रही।
जय-जय-जय मनमस्त, घोर भारी ही हो रही।। 366।
रसिया होते कहीं पर, कहीं कन्हैया घोर।
नौरें मटकत दाऊ की, बाप बोलत दौर।
कक्कू बोलत दौर, कन्हैया मेरो न्यारो।
रसिया कृष्ण कन्हाई, कभी जो कहीं न हारो।
रूक्मिज ज्यायो बिहारा, बड़ो है द्वारिका बसिया।
हार गयो शिशुपाल, कन्हैया मेरा रसिया।। 367।
गोठें कारष देव की, सुनो लगा कर कान।
हीरामन, हीलो सुनो, गंगा-मोती ध्यान।
गंगा मोती ध्यान, नगाड़े-बज रहीं ढांके।
आ जाओ महाराज, बटौना तब ही बांटे।
घुल्ला उचकत दिखें, हाथ में शैली-गोटें।
हो-हो-हो मनमस्त, सुनो नन्ना की गोठें।। 368।
चौपाई चौपाल कीं, दोहा के मृदु बोल।
छन्द सोरठा मोहे मन, देते हृदय खोल।
देते हृदय खोल, पढ़ो बरबै, गीता बली।
चालीसा पढ़ लेऊ, बीर हनुमत है अतबली।
पढ़ कबीर, रैदास, सूर सौरभ लो भाई।
विहारी का श्रंगार, अनेकों कवि चौपाई।। 369।
तरह-तरह के भजन पढ़, बदले जीवन दौर।
सम्पादी-सम्बाद दें, मंडल है कई ठौर।
मंडल है कई ठोर, अनेकों चालो गाते।
मनो रंजनों साथ, बनाते जीवन नाते।
संतोष जीवन चरित, दर्द जन-जन के ही भरहिं।
सुन होते मनमस्त, नाचते हैं तरह-तरह।। 370।
आल्हा के संबाद कहीं, कही ढोला की तान।
ढुलक पुलक कर बोलती, सारंगी की शांन।
सारंगी की तान, लोग सुनकर हरसाते।
हाथों में तलबार, दौड़ते नाचत-गाते।
ढोला नरबर सुनो, महोबे जाओ लाला।
बीरों के संबाद, सुनो तो ढोला-आल्हा।। 371।
देता प्यार पढ़ाय जो हीर-रांझा को गाओ।
सच्चा जीवन प्रेम, पाठ, करके, हरषाओ।
एक-दूजे के होऊ, यही जीवन है सच्चा।
राधा-कृष्ण हो जाओ, भेद नहीं कोई, बच्चा।
प्यारों की दास्तान, प्रेम कर समुझा-चेता।
रांझा-हीर के गीत, सही जीवन फल देता।।372।
सम्मान होते हैं कहीं, कहीं आभार मिल रहे।
भीड़ भरे बाजार, मंच कहीं भारी सज रहें।
सज रहे मंच अपार, स्मृति के चिन्ह सुहाते।
मैडल बट रहे कहीं, अंग वस्त्रों के नाते।
करलो अच्छे काम, जहां में होएगा तब मान।
सच्चा जीवन यही, सदां ही पाओगे सम्मान।। 373।
देश हितैषी बनो तो, होऊ देश कुर्बान।
बीर पदक तब मिलैंगे, बढ़े देश में शान।
बढ़े देश में शान, सौर्य की गीता गाओ।
श्रद्धांजलियां मिले, सौर्य चक्कर भी पाओ।
तोप-सलामी साथ, अमर हो जाओगे शेष।
सब मिल पूजैं तुम्हें, ओर पूजेगा सारा देश।। 374।
तरह-तरह के पशु याहं, बैल्-भैंस और गाय।
हाथी, घोड़ा, गधा संग, भेड़-बकरियां पांय।
भेड़-बकरियां पांय, हिरण और बारह सिंघा।
कुत्ता-चीता-स्यार, बिलइया-हाथी, सिंहा।
अगगिनते हैं भेद, बताएं तो किस तरह।
पढ़ो किताविन माहि, जीव-जन्त हैं तरह-तरह।। 375।
पच्छी भी कई भांत के, गिन नहीं सकते यार।
केकी, कोयल, पपीहा, जातीं अपरम्पार।
जाती अपरम्पार, हंस सारस भी जानो।
कौआ, चीलें गिद्ध, आसमां देखो, भानें।
अनगिन छोड़ो यार, बात है मेरी अच्छी।
उड़त आसमां लखो, भांति कई एक पच्छी।। 376।
गणना कीट पतंगों की, कर नहीं पाओ मीत।
अगर उन्हें कहीं देख हो, हो जाओ भयभीत।
हो जाओ भयभीत, विषैले दांतों वाले।
कई तरह के रंग, श्वेत कहीं-काले-काले।
चींटी-अजगर देख, आंख भी जिन्हें न पढ़ना।
अति सूक्ष्म हैं जीव, न होवे जिनकी गणना।। 377।
पहनाबा है यहां कई, कई भांत के लोग।
पर्यावरणी भाव से, सभी भोगते भोग।
सभी भोगते भोग, पहनते कुर्ता धोती।
पेंट, पजामा कहीं, कोट अल्फी भी सोती।
फ्राक ओर सलबार, साड़ी संग कई एक भाबा।
समय क्षेत्र अनुसार, सभी के अलग पहनाबा।। 378।
जाती वर्ग समाज भी, यहां अनेकन पांय।
अपने अपने भाव से, गीत आपने गांय।
गीत आपने गांय, सभी ने सब कुछ देखा।
क्या-कितना समुझांय, होय नहीं कोई लेखा।
यहां राजा और रंग, साधु संग स्वमच सी जाती।
देखो, गणना करो, वर्ग कई, वर्गी जाती।। 379।
पंचमहल की धरा यह, कई रंगों के साथ।
भारत को दर्शा रही, दर्श करो मिल प्राथ।
दर्श करो मिल प्राथ, दिखाई भारत देगा।
कोई न अन्तर कहीं, समझ कुछ समझा लेगा।
एक बार तो देख, यहां की गहरी चहल पहल।
हो जाओगे मनमस्त, लखो गौरव पंचमहल।। 380।
कवि
राजा मीरेन्द्र सिंह जू, प्रेमानन्द कहांय।
विरहणी राधा कृति, सरस भाव दर्शाय।
सरस भाव दर्शाय, उपन्यास राम गोपाल भावुक।
धीरेन्द्र धीर के गीत, खुराना राजबीर बानक।
श्याम सनम के छन्द, अनंद भवित साजा।
कविता रमाशंकर राय, छन्द मनमस्त के राजा।। 381।
महाकवि भवभूति भए-संस्कृत के सरताज।
नाटक त्रय रचना करो, कहीं न समता आज।
कहीं न समता आज, कन्हर पद-राग सुहाने।
कई ताल-लय छन्द, जिन्हें रागी ही जाने।
शान्तानन्द बेदान्त, मुक्तेश्वर संत महाछवि।
गौरीशंकर दृष्टि, अनेकों विद्या महाकवि।। 382।
अनूठे संत
रानी घाटी गंग को, लाए सरयूदास।
भवभूति ने राम सिय, रचा नया इतिहास।
नचा नया इतिहास, संत कन्हर की लीला।
कालिन्दी गंगा प्रकट, जाहं सबको सब मीला।
गौरीशंकर खेल, जिंदगी अबधूत काटी।
सन्यास सान्तानन्द, चढ़ गए ऊंची घाटी।। 383।
अद्भुत लीला ही रही, दूधाधारी संत।
ग्राम चिटौली शिवा-शिव, ब्राजे जहां अनंत।
ब्राजे जहां अनंत, लवण सरिता के तीरा।
सांटेश्वर के संत, संत धूमेश्वर हीरा।
संत सभी मनमस्त, धरा भक्ती से है सुत।
लगता यहां बैकुण्ठ, सभी कुछ यहां है अद्भुत।। 384।
सजग संत कवि हो जहां, तहां देव सब आंय।
धरती सुघर सुहाबनी, वेद गीता तहां गांय।
वेद गीता तहां गांय, सुखों की वर्षा होगी।
मलिया गिरी समीर, करैं सबको नीरोगी।
क्या नहीं होगा वहां, जाप-तप योग औ भजन।
जन-जन हो मनमस्त, आओ तो, न्योतत सजन।। 385।
लगता नेता यहां के, उच्च पदों पर जांय।
कर्मशील कर्तव्यनिष्ठ, जीवन सभी वितांय।
जीवन सभी वितांय, गृह और राज्य संभाले।
कई पदों पर डटें, लग रहीं इनकी चालें।
है मनमस्त विचार, यहां पर भारत जगता।
धर, धर्म, उपदेश सभी में भारत लगता।। 386।
सी.एम. जैसे सभी हैं, रखते उच्च विचार।
ऊंची संगत साथ में, है चाणक्य भी यार।
हैं चाणक्य भी यार, पार कोई नहीं पाता।
कभी-कभी तो, इनमें ही, राष्ट्रपती दिखाता।
विधी-विधाई यहां की, सैन्य संग भी है जी.एम.।
भाग्य जगैं मनमस्त, बनेंगे कभी तो पी.एम.।। 387।
सब कुछ, सबकुछ यहां दिखे, कमी नहीं यहां कोय।
पंचमहल गौरव सदां, जन-जन के विच होय।
जन-जन के विच होय, स्वर्ग का यहां बसेरा।
सब कुछ उगले भूमि, स्वर्ग है भारत मेरा।
लहराता है यहां तिरंगा-मेरा यहा ध्वज।
है भारत मनमस्त, यहां है सबकुछ सबकुछ।। 388।
पद्मावती (पवाया) पंचमहल गौरव
आओ मित्रो! वहां चलेंगे, जीवन सुख की छांव खोजने।
रम्य–भूमि जहां पद्मावती की, सदियों के इतिहास गा रही।
मनुहारों में सुयश पा रही।।
अखिल विश्व में, भारत भू-यह, मध्य प्रान्त, उत्तर अंचल में।
जिला ग्वालियर, कालिब ऋषित तप, तानसेन की तान श्रवण में।
विश्व-ख्यात शक्कर मिल डबरा, सौर्य प्राप्त तहसील हमारी।
जिसके अंचल-छुपी संस्कृति, अष्टसदी में लिए जा रही।।
मनुहारों................................................................।। 1।
डबरा-भितरवार मार्ग में, करियावटी से दक्षिण जाना।
पार-पार्वत्या करते ही, धूमेश्वर-शिव, ध्वजा दिखाना।
धूम-धाम की, दिव्य छटा में, प्राची दिसिका द्वार पुजारी।
गगन चूमती गुम्बद-गौरव, जय-जय हरि हर गीत गा रहीं।
मनुहारों....................................................................।। 2।
सिंध सरित के पावन तट पर, है विशाल, धूमेश्वर मंदिर।
दालानों की दिव्य छटाएं, झंझरीदार झरोखे सुन्दर।
शेषनाग, नंदीगण राजे, भक्तजनों अतिशान्त निराली।
गर्भगृह के दिव्य द्वार पर, खुदीं पट्टिका, पढ़ी जा रहीं।।
मनुहारों....................................................................।। 3।
बीर सिंह जू नृपति ओरछा, बुन्देली के बीर-पुजारी।
सुवि-निर्माण किया मंदिर का, चमकी जिनकी धवल दुधारी।
जीर्णोद्धार, नृपति ग्वालियर ने, करके मंदिर दिव्य बनाया।
नाग-नृपों के कार्य कला की, सुयश चांदनी-धवल छा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 4।
दिव्य, सुदीर्घ-शिव प्रतिमा से, गर्भगृह भी दमक रहा है।
शिवा-भवानी की मूर्ति ने, जय-जय जय शिव, सदां कहा है।
दिव्य सुआशन, नागदेव की, दर्दों का दर, दर्द मिटाती।
दर्श मात्र से, भक्तजनों की युग युगान्तरी, प्यास जा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 5।
मंदिर, गुम्बद, कलाकृति का, निर्मल गौरव भुवन गा रहा।
गगन चूमता, रवि आश्रय-सा, सताब्दियों का विमल छा रहा।
अनुपम कलाकृति, ज्यों सच्ची नित्य मयूरी, नृत्य दिखाती।
सारस, कलहंसों की पांते, सुयश-सुगौरव, लिए जा रहीं।।
मनुहारों....................................................................।। 6।
गुम्बद पर बैठे तोतागण, जपहर, हर-हर, बोल रहे हों।
सुघर, सुराहीं, मिलीं स्वर्ग से, सुयश-सदां, अनकहे कहे हों।
है अनंत, अनगिन छवि कृतियां, बुला रहीं ज्यों सोधजनों को।
कर उत्खनन, दिव्य दृष्टि से, सोध-सोच को, कृति गा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 7।
सिंध-सरित का जल प्रपात यहां, धुंआधार सा, दिव्य दिखाता।
अर्द्धशतक की ऊंचाई से, गिरकर-तुमुको ध्वनि-सा गाता।
गगन-भेद, ध्वनि, जल की क्रीड़ा, कल्लोलनी-लोरियां गाती।
शान्त, सुशीतल, सीतल पगों से, उभय तटों से सुयश पा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 8।
दिव्य, सुबैठक-चौचंकी की, प्राची, अस्तांचल रंग लेती।
पद्मावती के नाग-नृपों की, गौरव-गाथा, जग को देती।
मध्यसरित में, निर्विवाद यह, अडिग खड़ा है, कई युगों से।
जीवन पथ में, अडि़ग रहे जो, उनका गौरव सरित गा रही।
मनुहारों....................................................................।। 9।
पद्मावती के सुगम पथों में, श्रीपर्वत की छटा निराली।
जन कहते मलखान पहाड़ी, छिटकी-जिसकी, भू पर लाली।
कहती-बीर भूमि की गाथा, गढ़ी सांग जो, उच्च शिखर पर।
गांजर का इतिहास निराला, आल्हखण्ड ज्यौं कथा-गा रही।
मनुहारों....................................................................।। 10।
महा कवि-भवभूति काव्य कृति, मालती माधव-महाकाव्य है।
सुघर कथा की, अनुपम गाथा, विमल भाव अरू मधुर भाव है।
संस्कृत में संस्कृति हमारी, सागर से भी गहरी-जानो।
जिसमें से, हीरों की लडि़यां, मुफ्त लुटाती, सबै जा रही।
मनुहारों....................................................................।। 11।
पाबन पथ पर, बाम भाग में, कुछ दूरी पर, पार-पार कर।
विष्णू मंदिर अथवा यह कुछ, नाट्य मंच का रूप, धार कर।
मृण्यमूर्ति, पाषाणी प्रतिमा, भरा हुआ भण्डार, यहां पर।
राज चिन्ह अरू नृत्य नायिकाओं की आभा, यहां छा रही।
मनुहारों....................................................................।। 12।
अबनि गर्भ से, छुपा हुआ जो युग-युग का, विशाल यह वैभव।
पुरातत्व ने किया उजागर, मो.बे.गर्दे माया यह सब।
संग्राहालय सज गए यहां से, रिक्त नहीं है, फिर भी अबनी।
प्रथम सदी से, आज तलक का, समा वैभव, अवनि पा रही।
मनुहारों....................................................................।। 13।
आज तलक, निर्णय नहीं पाए, क्या सरूप या-भव्य इमारत।
कई कल्पनाएं, कल्पित कीं, कई हो गईं, तुरत नदारत।
प्रश्न रहा उलझा, अनसुलझा, सोधक जन, सोधन करने को।
पावन सरित धार-पारा की, प्रश्न सभी से किए जा रही।
मनुहारों....................................................................।। 14।
पद्मावती के पावन पथ में, मस्जिद और मकबरे सुन्दर।
अनुपम यौबन के, लहराते से ज्वार-समंदर।
हिन्दू संस्कृति विडम्बना सी, कालजपी भी, मनकंपित थे।
नियति-गटि के झेल बवंडर, अबनी-अनुपम छटा पा रही।
मनुहारों....................................................................।। 15।
ढका हुआ है आज बदीला, अपना गौरव लिए उदर में।
खाई ने, अपने मुंह खायी, परिछाई सी रही, किधर में।
किला ध्वंस, खण्डहर बीराना, बीरानों के गीत गा रहा।
सिंध सरित पारा क्रीड़ा में अनबोले, अनसुने जा रही।
मनुहारों....................................................................।। 16।
अजय किला भी काल-कबलि हो, स्मृति सा है, नाग वंश का।
पश्चिम दिसि के मुख्य द्वार से, स्वागत करता अंश हंस का।
सिंध और पारा का संगम है, खाई के परिधान बंधा है।
चहुगिर्दी जल का परिकोटा, सरिता सरिगम, अगम गा रही।
मनुहारों....................................................................।। 17।
सिंध और पारा का संगम, प्राची की मनुहारें लाता।
रवि-रश्मि संग, ऊर्मिनाब चढ़, शिबा-शिबम पर अर्द्ध चढ़ाता।
है विशाल, सागर सा सुन्दर, अभिवादनरत, कूल वृक्ष मत।
सुमन फलों की अंजलि भरि भरि, समय समर्पण ध्वनि छा रही।
मनुहारों....................................................................।। 18।
सिंध सरित तट, बनीं सीढि़यां, दुर्ग सिंध की, अनुपम थाथी।
प्रस्तर, ईंट, चूनरी परिणय, अमिट रहा, युग सरिता भाती।
यूं लगता, ज्यों सिंध सरित तट, नहाती कोई मालिती आकर।
मनुहारी मुस्कान बांधकर, मन-माधव को यहां बुला रही।
मनुहारों....................................................................।। 19।
संगम की सरगम के ऊपर, किले-कंगूरे ताल दे रहे।
झिलली, झींगुर की झंकारें, दादुर के स्वर, दर्द खे रहे।
गर्भ गृहों से निकलें ध्वनियां, कहतीं कुछ अस्टम सदियों की।
समझ सको। समझो, समझाओ, कौन राग को, ये अलाप रहीं।
मनुहारों....................................................................।। 20।
रवि रश्मि, प्राची अनुरंजित, स्वर्ण प्रथा, जगमग कर देती।
मानो सरिता, सुगम तटों को, मनचाहा, मन महावर देतीं।
इसीलिए यह स्वर्ण बिन्दु है, सांटेश्वर जिसको सब कहते।
बालजती अरू शिव प्रसाद को, सारी दुनियां, यहां पा रही।
मनुहारों....................................................................।। 21।
रम्य तलहटीं, आम्र कुंज से, कोयल गीत मनोरम गाती।
पपीहा के गौरव गायन पर, नित्य मयूरी नृत्य दिखाती।
जम्बु–जड़ों में, जटिल जटाधर जपते हरीनाम की माला।
बदरीबन से, मंद मंद ज्यों-मदमाती सी गंध आ रही।
मनुहारों....................................................................।। 22।
बट,पीपर,पाकरि की छाया, कठवरजटा, जमीं जल ऊपर।
तयहारी छाया-तमालकी पाबन पंचबटी-सी, भू-पर।
सघन कुंज में करत कलोलैं, मृग शाबक, मृग-मृगी संग-संग।
मृगराजों की गहन गर्जना संगम तीरे-तीर जा रही।
मनुहारों....................................................................।। 23।
संगम जलधि अंक में जलजीं, जल जीवों संग, क्रीड़ा करती।
चक्र काक, सारस, हंसों के, स्वर सुन सब पीड़ाऐं डरती।
तट वृक्षों से सुमन झर रहे, गिरत फलों की ध्वनियां होतीं।
चकित हो जातीं, बक अंबली, कड़कड़ात पर सबै लुभा रहीं।।
मनुहारों....................................................................।। 24।
अबनि अंक में, अंगड़ाते से, रम्य बगीचे, मधुर फलों से।
शस्य–श्यामलम फसलैं झूमें, जटिलप्रश्न हल जहां हलों से।
गूंज रही हो जहां रबानी, कृषकों के अलहड़ गीतों में।
जहां कन्हैया की बंशी-समीकर सब सुने जा रही।
मनुहारों....................................................................।। 25।
गुरूबर पाठपढ़ाते नित प्रति, मीमांसा अरूणाय शास्त्र के।
गूंजे वेद ऋचाएं जहां पर, शिल्प कलाएं, शिल्प शस्त्र से।
अस्त्र और शस्त्रों का शिक्षण, करते गृहण यहां पर पटु-बटु।
शिष्यगणों की रटनि ध्वनी से, अनुगुंजन ध्वनि समां पा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 26।
रतन प्रसवनी बसुन्धरा यह, उदरदरी से निकलें हीरे।
प्रथम असाढ़ी की बारिस में जन जन फिरते टीले-तीरे।
कहीं तटों में कहीं, घटों में, बरसे हों ज्यौं जलदि उदर से।
दौड़-दौड़ कर, बाल वृद्ध जन खुशियों भरी बहार आ रही।
मनुहारों....................................................................।। 27।
मेले हाट कई यहां लगते, पद्मावती में धूमधाम से।
लोहा लिए लोहारी आती, चले सांखनी, धनद साख में।
रौनी है मगरौनी प्यारी, नर-वर नरवर के नरनारी।
लोह-कैरूआ से मिलकर के, हरसी-हर्ष भरी, पग-भा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 28।
बजते बाजे, मधुर बाजने, करहिया के मृदुल करों से।
।स्वर्ण आमरण, लिए सुनमीं, भीतर-बाहर भितरवार से।
गांधी-चरखा करियावटी भी, बागबई के बाग निहारो।
महाराजपुर की महाराजी, चांद पुरन की चमक छा रही।
मनुहारों....................................................................।। 29।
जंग जीत भई सालवई की, लोहागढ़ ने लोहा लीना।
फतह पा रहा, सदां फतेपुर, मस्तूरा मनमस्त नगीना।
बनियों की बनियानी प्यारी, चितओली है, सदां चिटौली।
रम्य भूमि मनमस्त हमारी युगों युगों से, सबै भा रही।।
मनुहारों....................................................................।। 30।
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वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़ डबरा
जिला ग्वालियर (म.प्र)
मो. 9981284867