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औरत (एक दृष्टि)

औरत को हीन मानना समाज के संस्कारों में रच-बस गया है ,दिलो-दिमाग पर हावी है जहां से उसे खुरच कर हटाना और इसी खुरची हुई जगह पर नयी इबारत लिखना आसान नहीं है ,इसके लिए वक्त भी बहुत चाहिए |आप उसे शूद्र –गंवार –ढ़ोर –पशु समझकर पीटिए या उसमें देवता का निवास है ,इसलिए उसकी पूजा कीजिए |आज स्त्री जहां खड़ी है ,वहाँ से निकलने में पता नहीं उसे कितना वक्त लगेगा |जानबूझकर हो या अनजाने में ,मर्द में एक उच्चता की भावना बचपन से ही विकसित करा दी जाती है और बड़े होने पर जब स्त्री समानता की बात करती है ,तब मर्द बगले झाँकता है ....इसके लिए दोषी कौन है –हमारी सामाजिक व्यवस्था ,माता-पिता का अज्ञान या कुशिक्षा....?
विषय -विशेषज्ञों का कहना है –मानव समाज को अगर समस्या हल करनी है तो औरतों के प्रति मर्दों का नजरिया बदलना होगा |सदियों से खुदे संस्कारों को खुरचना होगा कि जन्म से ही लड़कों और लड़कियों में फर्क है ....लड़के बुढ़ापे का सहारा है और लड़कियां पराया धन |
इस देश में जितनी लड़कियां पैदा होती है उनमें से बहुत -सी लड़कियां अपनी पहली वर्षगांठ नहीं मना पातीं ,कितनी ही अविकसित मर जाती हैं ,कुछ मौतें अचानक होती हैं |जो पूरा जीवन पाती हैं उनमें से कुछ बलात्कार का शिकार होती हैं ,कुछ की दहेज हत्या होती है ।कुछ काल-गर्ल्स बन जाती हैं ,कुछ स्वयं अनेक अपराधों में शामिल हो जाती हैं और कुछ आत्म-हत्या करके खुद ही रास्ते से हट जाती हैं |अगर यही हाल रहा तो आने वाली सदियों में पुरूष-समाज किस अर्धांगिनी की बात करेंगे ?
किसी महापुरूष ने कहा-एक स्त्री ने [हौवा] ने हमें स्वर्ग के बगीचे से निकलवाया ...लेकिन फिर धरती को स्वर्ग भी तो उसी स्त्री ने बनाया |अगर यह बात सच है तो धरती को स्वर्ग बनाने वाली स्त्री की ऐसी दशा क्यों है ?
कहावतों और मुहावरों में—औरत को मिट्टी का लोंदा होना चाहिए ताकि जब जैसी जरूरत हो ,उसे तोड़ -मोड़ लिया जाए |
स्त्री का गहना है -लाज,शील,संकोच,विनम्रता ,आत्म-नियंत्रण और पुरूष के-उग्रता,तर्क- बुद्धि ,स्वेच्छाचारिता| अगर ये गुण पुरूष में नहीं है तो वह पौरूष हीन है |क्या स्त्री के लिए इन पुरूष -गुणों की आवश्यकता नहीं ?
कहते हैं अभागा आदमी घोड़ा गँवाता है ,भाग्यवान बीबी क्योंकि घोड़ा पैसे खर्च करके लिया जाता है जबकि पत्नी पैसे लेकर घर आती है |अर्थात स्त्री एक जानवर से भी हीन है |
स्त्री को आशीर्वाद में सौ पुत्रों की माँ बनने को कहा जाता है |आज यह संभव नहीं है तो सुधार हुआ –पुत्रवती भव |पुत्री की माँ बनाना सौभाग्य की बात नहीं |पुत्र हुआ तो थाली बजे पुत्री हुई तो आंसू झरते हैं |पुत्र के जन्म पर माँ को छठी –बरही के दिन नए कपड़े मिलते हैं |पुत्री के लिए कोई व्रत-त्योहार नहीं पर पुत्र के लिए कई हैं |खान-पान में भी पुत्र-पुत्री के बीच भेद भाव है |पुत्री ताड़ की बढ़ती है रूखा-सूखा खाकर भी पर पुत्र तर माल खाकर भी घिसता रहता है|पुत्र के अन्नप्राशन संस्कार में शुभ मुहूर्त देखा जाता है पुत्री के लिए कुछ नहीं |
यू तो कह दिया जाता है कि जहां स्त्री नहीं ,वहाँ प्यार नहीं पर सच त यह है कि स्त्री जंजीरों में ही जन्म लेती है और अपनी पूरी जिंदगी जंजीरों में ही काट देती है |देश,समाज,गाँव-शहर कोई हो पुरूष –प्रधान हर समाज –कानून में स्त्री दूसरे दर्जे पर ही स्वीकृत है और यह दूसरा दर्जा उसके जन्म के साथ ही शुरू हो जाता है |राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर चुके देशों में भी स्त्री जनसंख्या आज भी शारीरिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर समान नहीं है |

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