साहेब सायराना - 20 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 20

कालजयी उपन्यासकार शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म "देवदास" कई बार बनी। 1955 में जब दिलीप कुमार को लेकर इसे प्रदर्शित किया गया तब तक दिलीप कुमार अपार ख्याति पा चुके थे। उन्हें फ़िल्मों में आए दस साल से भी अधिक समय हो चुका था। वे अंदाज़, दीदार, ज्वारभाटा, जोगन जैसी कई फिल्मों में काम कर चुके थे।
देवदास में उनके साथ वैजयंती माला और सुचित्रा सेन थीं। पेशावर में जन्मे दिलीप कुमार, बंगाल की सुचित्रा सेन और मद्रास की वैजयंती माला इस विशाल देश के तीन सुदूर कौनों से आए थे। किंतु इस फ़िल्म में तीनों ने कहानी को जिस तरह जीवंत किया उससे यही विविधता कालांतर में हिंदी फ़िल्मों का प्राणतत्व बन गई। इस तिकड़ी ने बहुभाषी देश के एक ऐसे ज्वलंत सवाल का माकूल जवाब दिया जो आज तक कदम- कदम पर उठता रहता है।
कुछ लोग, जिनमें गंभीर सिने समीक्षक भी शामिल हैं, ये कहते पाए जाते हैं कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं, यथा- बांग्ला, मराठी, तमिल, पंजाबी आदि की फ़िल्मों में जो गहराई अथवा परिवेश की स्वाभाविक पकड़ आती है वह बहुधा हिंदी फ़िल्मों में क्यों नहीं आ पाती?
इस प्रश्न का सटीक उत्तर देते हुए, प्रश्न और उत्तर की व्याख्या करते हुए तथा इस आक्षेप से हिंदी फ़िल्मों का बचाव करते हुए देवदास फ़िल्म की बात आज भी उसी तरह की जाती है जैसे फ़िल्म के रिलीज़ होते समय की गई होगी।
जब हम क्षेत्रीय भाषाई फ़िल्मों, जैसे ओड़िया, तेलुगू, गुजराती, राजस्थानी आदि की बात करते हैं तो हम ये नहीं भूल सकते कि अधिकांश भाषाओं की फ़िल्मों की निर्माण- टीम उसी भाषा या समाज के लोगों से बनी हुई होती है। गुजराती फ़िल्म उद्योग में अधिकांश लोग गुजराती ही होंगे, पंजाबी फ़िल्मों में पंजाबी मूल के लोगों की बहुतायत होगी, बांग्ला फ़िल्मों में बंगाल से जुड़े लोगों का बोलबाला होगा किंतु हिंदी फ़िल्म में पूरे देश के कौने- कौने से आए लोग होंगे। यहां बंगाल की राखी भी होंगी, हरियाणा की कंगना भी, कर्नाटक की दीपिका भी, तो विदेश से आई कैटरीना भी।
हिंदी फ़िल्म की यूनिट में रचनात्मक और तकनीकी लोग तो अहिंदी भाषी होंगे ही, अंग्रेज़ी में इंटरव्यू देने वाले हीरो- हीरोइन तथा उर्दू में संवाद लिखने वाले लेखक भी दिखेंगे
यही कारण है कि हिंदी फ़िल्मों का परिवेश किसी एक जगह की आंचलिकता को नहीं छूता।
फ़िर यहां तो यूसुफ खान दिलीप कुमार बन कर बल्लेबाजी कर रहे थे। मज़ा आना ही आना था।
आया, और जमकर आया।
दिलीप कुमार ने कुछ चुनिंदा फ़िल्मों में अतिथि भूमिका भी निभाई।
प्रायः फ़िल्मों में अतिथि भूमिका के कई कारण होते हैं - किसी फ़िल्म की मुख्य स्टारकास्ट में न होते हुए भी यदि कोई बड़ा सितारा संपर्कों या परिस्थिति के चलते सहज उपलब्ध हो जाता है तो उसे फ़िल्म में शामिल कर लिया जाता है। या कई बार ऐसा होता है कि किसी स्टार की ख़ास इमेज बन जाती है और ऐसे में यदि उसी तरह का काम कहानी में होता है तो उस सितारे को अतिथि के तौर पर जोड़ लिया जाता है।
दिलीप कुमार का कद वैसे तो अपने आप में ही इतना विराट था कि उनके पास अतिथि भूमिका लेकर जाने वाले निर्माता भी कुछ न कुछ ख़ास सोच कर ही जाते थे पर फ़िर भी दिलीप इस बात को लेकर काफ़ी गंभीर रहते थे कि उन्हें कोई भूमिका क्यों दी जा रही है।
कई निर्माता केवल इसलिए उन्हें अपनी फिल्म से जोड़ना चाहते थे कि वे बड़े सुपर सितारों के साथ उनका नाम जोड़ कर फ़िल्म की स्टार वैल्यू को और पुष्ट करना चाहते थे।
माला सिन्हा सातवें दशक से लेकर सदी के अंतिम दशक तक काफ़ी सक्रिय और बड़ा नाम रहा। लेकिन ये एक संयोग ही था कि माला सिन्हा के साथ दिलीप कुमार ने कोई फ़िल्म नहीं की जबकि वो राजकपूर और देवानंद से लेकर राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, जितेंद्र आदि सभी सितारों की हीरोइन बनीं। उन्होंने कई बेहतरीन बंपर हिट फ़िल्में भी दीं।
ऐसे में जब ऋषिकेश मुखर्जी ने विश्वजीत और माला सिन्हा को लेकर हास्य प्रधान फ़िल्म "फ़िर कब मिलोगी" बनाई तो उन्होंने अतिथि भूमिका के लिए दिलीप कुमार को साइन कर लिया। लेकिन फ़िल्म ज़्यादा सफ़ल नहीं हुई। केवल इसी आधार पर दिलीप को ले लेने वाली अधिकांश फ़िल्मों का हश्र लगभग यही हुआ।
फ़िल्मों से पूरी तरह संन्यास ले लेने के बावजूद दिलीप कुमार और सायरा बानो ने कई दशक लंबा वैवाहिक जीवन साथ - साथ गुजारा। सायरा बानो ने इन दिनों पूरी निष्ठा और आत्मीयता से दिलीप साहब की सेवा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।