आरंभ से ही हमारा पारिवारिक ढांचा ऐसा रहा है कि यहां पति- पत्नी एक ही फील्ड में होने पर समस्याएं आती ही आती हैं। दोनों को एक साथ सफ़लता, संतुष्टि और साहचर्य एक साथ नहीं मिल पाते।
इसीलिए सयाने लोग यही सोचते हैं कि दोनों की मानस - दुनिया अलग- अलग रहे। तभी अच्छा और प्रेमभरा निभाव हो पाता है।
दिलीप कुमार के मित्र और प्रतिस्पर्धी राजकपूर ने इसीलिए नरगिस से विवाह नहीं किया। इसीलिए अपनी पुत्रवधुओं बबीता और नीतू सिंह से भी शादी के बाद फ़िल्में छुड़ा दीं जबकि ये सभी सफल और होनहार अभिनेत्रियां थीं।
लेकिन दिलीप कुमार इस मामले में भी किस्मत वाले रहे। उनकी पत्नी सायरा बानो उन्हीं की तरह फिल्मी दुनिया का सितारा होते हुए भी फ़िल्में करती रह सकीं क्योंकि दोनों की फ़िल्मों का मिजाज़ अलग - अलग रहा।
इस बात को बार- बार सुनते- सुनते एक दिन सायराबानो को ये लगने लगा कि आख़िर कभी तो उन्हें भी गंभीर निर्माताओं के साथ उद्देश्यपूर्ण फ़िल्में करनी चाहिए। और उनकी इस इच्छापूर्ति का संयोग तब बैठा जब उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी ने फ़िल्म "चैताली" के लिए साइन किया। सायरा बानो के फैंस को इससे सुखद आश्चर्य ज़रूर हुआ पर फ़िल्म नहीं चली।
इच्छा और वास्तविकता का खेल ऐसा ही है। कई बार पानी का बुलबुला भी हीरे की मानिंद दमकता है।
ऐसा ही एक वाकया सायराबानो के कैरियर में उस समय पेश आया था जब निर्माता निर्देशक एच एस रवैल उन्हें फ़िल्म "मेरे मेहबूब" में कास्ट करने के लिए पहुंचे। सब जानते हैं कि मेरे मेहबूब में राजेंद्र कुमार के साथ दो नायिकाओं की भूमिका रखी गई थी जिनमें एक मुख्य भूमिका थी और दूसरी उससे कुछ कम महत्व की सहायक अभिनेत्री की भूमिका थी। रवैल उस फ़िल्म की हीरोइन के तौर पर साधना को ले चुके थे और सहायक रोल में सायरा को लेना चाहते थे।
लेकिन सायराबानो का अपना आकलन कुछ और था। वो चाहती थीं कि उन्हें "जंगली" फ़िल्म हिट हो जाने के बाद अब यहां हीरोइन की मुख्य भूमिका ही मिले। ये बात न रवैल ने मानी और न साधना ने। फ़िल्म में साधना के साथ अमिता ने सहायक भूमिका की। पर ये फिल्म ज़बरदस्त ढंग से कामयाब हुई और इसने कई लोगों की दुनिया बदल दी।
किंतु फ़िल्म "पड़ोसन" ने जिस तरह धूम मचाई उसने सायराबानो का जादू एक नए आयाम के साथ ही जगा दिया। सायराबानो की इस कामयाबी ने कई प्रोड्यूसर्स को दिलीप साहब के साथ सायरा बानो को साइन करने के लिए उकसाया और दर्शकों के सामने "गोपी", "सगीना" जैसी फ़िल्में आईं।
कुछ लोगों को इस बात पर अचंभा ज़रूर होता है कि सायरा बानो के समय की अन्य समकालीन अभिनेत्रियां साधना और आशा पारेख दिलीप कुमार से दूर- दूर क्यों रहीं। जबकि दिलीप कुमार भी इसी समय उस दौर की अन्य सभी हीरोइनों के साथ काम कर रहे थे। यहां तक कि ख़ुद सायरा बानो को भी फ़िर कभी इन अभिनेत्रियों के साथ नहीं देखा गया।
जानकार लोग बताते हैं कि फ़िल्म मेरे मेहबूब वाले अनुभव के बाद साधना और सायरा बानो के बीच एक दूरी सी तो बन ही गई थी।
लेकिन बाद में भी इसे एक संयोग का सहारा और भी मिल गया। सायरा बानो को पता चला कि दिलीप साहब भी साधना से कुछ तकल्लुफ रखते हैं। एक ही समय के दो नामचीन अदाकारों की इस दूरी को लोगों ने अलग- अलग चश्मे से देखा।
कोई कहता था कि साधना की अधिकांश फ़िल्में ज़बरदस्त हिट हो रही हैं और दिलीप कुमार को ये आदत नहीं है कि उनके होते हुए उनकी फ़िल्म किसी और की वज़ह से हिट हो। लिहाज़ा वो साधना के साथ काम करने के इच्छुक नहीं रहते।
कोई कहता था कि ये सभी हीरोइनें एस मुखर्जी स्कूल का प्रॉडक्शन होने के चलते इनमें आपसी अदावत और स्पर्धा है।
लेकिन ख़ुद दिलीप कुमार मन ही मन ये जानते थे कि कभी उनकी फ़िल्म "गंगा जमना"में सहायक अभिनेत्री का रोल मांगने साधना उनके पास आई थीं। किंतु उस समय फ़िल्म की नायिका वैजयंतीमाला ने यह स्वीकार नहीं किया कि उनके साथ साइड हीरोइन के तौर पर साधना जैसी ख़ूबसूरत लड़की हो, उन्होंने ये रोल अजरा को दिलवाया। वक्त ने बाद में वैजयंतीमाला के इस निर्णय को सही साबित करके उस पर मोहर भी लगा दी जब साधना देखते- देखते उनसे भी ज़्यादा मेहनताना पाने वाली कामयाब एक्ट्रेस बन गईं।
दिलीप कुमार इस बात को कभी भूले नहीं थे।
इसका खुलासा स्वयं निर्माता एच एस रवैल ने उस समय किया जब वो दिलीप कुमार के साथ "संघर्ष" फ़िल्म बना रहे थे। उनकी फ़िल्म "मेरे मेहबूब" साधना के साथ सुपरहिट हो जाने के बावजूद वो साधना को संघर्ष फ़िल्म में दिलीप कुमार के साथ लेकर रिपीट नहीं कर सके और उन्हें दिलीप कुमार की पहल पर वैजयंतीमाला को ही लेना पड़ा।
संघर्ष मिलमालिक अमीरों और मजदूरों के संघर्ष की कहानी थी।