साहेब सायराना - 1 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 1

कहते हैं कि अपनी जवानी में हर कोई ख़ूबसूरत होता है। जवानी इंसान की ज़िन्दगी में एक बार आने वाला वो मौसम है जो जिस्म के पोर- पोर को फूल की तरह खिलाकर एक शोख चटक के तड़के से खुशबूदार बनाता है। लड़का हो या लड़की जवानी तो जवानी है। झूम कर आती है। हर बदन पर आती है।
लेकिन अपने ही बनाए इस फलसफे पर कुदरत को कभी भरोसा नहीं हुआ। आख़िर इसमें इंसाफ़ कहां है? आदमी को कई बरस में फ़ैला हुआ एक लंबा जीवन मिले और इसमें जवानी का मौसम सिर्फ़ एक बार आए??
अतः कुदरत ने मनुष्य को दो हिस्सों में बांट दिया। एक "सूरत" और दूसरी "सीरत"।
अब ठीक है। सूरत पर चाहे जवानी का जलवा बस एक बार आयेगा किंतु सीरत की युवावस्था इंसान के ख़ुद अपने ही हाथ में रहेगी। आदमी चाहे तो वो अस्सी साल की उम्र में भी जवान बना रहे, और न चाहे तो सोलह साल की उम्र में ही बूढ़ा हो जाए।
ये कहानी एक ऐसे ही शख़्स की है जिसने अपनी तमाम ज़िन्दगी जवानी में ही गुज़ारी। लगभग एक शताब्दी का लंबा भरा- पूरा जीवन देखा मगर अपनी फितरत अंत तक ताज़ादम बनाए रखी। आयु के निन्यानबेवें साल में जब दुनिया से जाने की घड़ी आई तो हर शख़्स ने यही कहा- अरे, चले गए? अभी तो और रहना था!
ये कालजयी कहानी है दिलीप कुमार की।
ये कहानी है स्वाभिमानी सायरा बानो की।
ये कहानी है जिंदगी की, मोहब्बत की, ज़िंदादिली की।
आज इम्तहान का आख़िरी पर्चा था। फ़िर लगभग तीन महीने के बाद स्कूल दोबारा खुलने वाला था। मां दो दिन पहले ही लंदन आ गई थीं। उन्हें बिटिया को अपने साथ हिंदुस्तान वापस जो लेकर जाना था।
कार से उतर कर दौड़ती बेटी ने अपने हाथ में पकड़ा छोटा सा बैग उछाल कर इस तरह फेंका मानो ये बोझ बेवजह अब तक उसके कंधों पर लदा हुआ था।
लाड़ली बेटी मां से लिपट गई।
मां एक पल के लिए ये भुला बैठी कि बिटिया कहीं से कोई किला फतह करके नहीं लौटी है बल्कि दसवीं जमात की परीक्षा का पर्चा देकर आई है। मां ने अपनी आवाज़ में थोड़ी सी नाटकीयता घोली और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछने लगी- बता, क्या ईनाम चाहिए तुझे मुझसे?
बेटी ने पहले तो कुछ मुस्कुरा कर ध्यान से मां का वो दिलकश चेहरा देखा जिसे उसने सिनेमा के पर्दे पर भी पहले कई बार देखा था फ़िर उसी तरह इठला कर बोली- भूल गईं? मैंने आपको बताया था ना, इस बार मैं फ़िल्म की शूटिंग ज़रूर देखूंगी। मना मत करना!
- अरे बाबा, मना क्यों करूंगी। पर फ़िलहाल न तो मेरी कोई शूटिंग चल रही है और न ही मेरा मन है, गर्मी में चेहरा पोत कर कैमरे की तपती रोशनी से आंखें चार करने का। मां ने लापरवाही से कहा।
बिटिया ने तीखी निगाह से मां को देखा फ़िर उखड़ कर बोली- ओ हो, आप तो सब भूल जाती हो। मैंने कहा नहीं था कि मुझे "ज्वारभाटा" वाले दिलीप कुमार की शूटिंग देखनी है।
- यूसुफ की! चल, कोई शूटिंग चल रही हो तो देख लेना। मां नसीम बानो ने मन ही मन गहरी नज़र से बिटिया सायरा को देखते हुए कहा। वो कुछ सोच में भी पड़ गईं। बिटिया बड़ी हो गई है! अब गुड्डे गुड़िया से नहीं बहलने वाली। सोचती हुई मां- बेटी हिंदुस्तान लौटने की तैयारी में जुट गईं।