संतुष्टि Shwet Kumar Sinha द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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संतुष्टि

एक ढलती शाम। आती-जाती मोटरगाड़ियों व पैदल चलते लोगों के कोलाहल के बीच वह सड़क के किनारे खड़ी अपना ग्राहक तलाश रही थी। यह चढ़ती महंगाई की मार थी या उसकी ढलती जवानी का असर, जिससे पतझड़ के पत्तों के समान उसके कस्टमर छिटककर उससे दूर जाने लगे थे तभी तो आज सुबह से उसके लाख रिझाने के बावजूद भी एक भी ग्राहक उसकी तरफ आकर्षित नहीं हुआ।

“साब, चलता है क्या! चलो न...सही रेट लगा देगी मैं! दस मिनट में तुम्हारा सारा थकान न मिटा दिया, तो मेरे इच नाम पे कुत्ता पाल लेना!!” अपने अक्खड़ अंदाज़ से होठों की लिपस्टिक मिलाती वह सड़क के एक चौराहे से दूसरे चौराहे तक कस्टमर्स को शीशे में उतारने का प्रयास करती रही, जबकि उसके भीतर छिपा करुणामयी हृदय घर में अकेली बीमार पड़ी नौ साल की बेटी पर ही अटका था।
“ऐई....चल साइड हट!!”, “तेरा रेट बहुत ज्यादा है!” से लेकर “खुद को जाके आइने में देख!!” जैसे दुत्कारों के अलावा आज सुबह से उसने कुछ न खाया था। खाती भी कहाँ से, एक फुटी कौड़ी की भी आज कमाई न हुई थी। कुछ पैसे थे, जो उसने अपनी बीमार बेटी की दवा के लिए बचा रखा था। लेकिन अभी वो कम ही पड़ रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि इन पैसों से अपनी बिटिया की जान बचाने के लिए दवा खरीदे या उसका पेट भरने के लिए खाना।
उम्र के पैतीसवें पड़ाव पर कदम रख चुकी शब्बो की इकलौती बेटी उसके इसी धंधे का परिणाम थी, जो किसी कस्टमर के ज़िद्द की वज़ह से उसकी झोली में आ गिरी थी। इस नियत को ही अपनी नियती मान उसने उसे अपने जीने का सहारा बना लिया। लेकिन तय किया कि उसे देहजाल की इस दलदल से दूर रखेगी और पढ़ा-लिखाकर एक लायक इंसान बनाएगी। पर पिछले कुछ दिनों से दिमागी बुखार ने ऐसा जकड़ा कि वह बिस्तर पर ही आ गिरी।
“टाइम से दवा नहीं दिया तो इसकी बीमारी बढ़ सकती है। फिर यहाँ आने की भी कोई जरुरत नहीं!”- डॉक्टर की कही बातें उसके कानों में गुंज रही थी, तो गाड़ियों की कोलाहल के बीच मन की वेदना किसी कोने से आवाज़ लगा रही थी- “माँ, कितनी देर कर दी आने में आज! बडी भूख लगी है, माँ!”
“ओ शब्बो रानी, कहाँ ध्यान रहता है तेरा! उधर देख, बगल वाली रज़िया तेरे रेग्युलर कस्टमर को बहकाकर अपने साथ लिए जा रही है।” अपना ग्राहक सुंघती पास खड़ी सुशीला ने शब्बो का ध्यान तोड़ा, तबतक वह उससे दूर जा चुका था।
“पता नहीं, आज किसका मुंह देखकर उठी! सुबह से एक भी कस्टमर हाथ नहीं लगा। बेटी के लिए दवाइयाँ और खाना ले जाने तक के पैसे न जुटे। कैसी फुटी किस्मत लेकर पैदा हुई मैं!”- मन ही मन बड़बड़ाती और अपनी किस्मत को कोसती शब्बो ने कमर में खोंसे की-पैड वाला मोबाइल निकालकर समय देखा तो रात के नौ बजने को आए थे।
सड़क पर लोगों की भीड़ भी अब धीरे-धीरे छटने लगी थी और इक्का-दुक्का पुलिसवाले भी चहलकदमी करते दिख रहे थे।
मन मसोसकर शब्बो ने अपने घर की तरफ रुख किया। रास्ते में पड़ने वाले दवाखाने का भी चक्कर लगाया, पर उसने उधार देने से साफ मना कर दिया। फिर हाथ में लिए चिल्हरों को गिने तो वह इतने भी न थे कि उनसे पेट भरने के लिए कुछ खरीदा जा सके।
लाचार होकर खाली हाथ घर लौटी तो पाया कि बेटी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। माँ के बुझे चेहरे को देख बेटी की आंखों में आशा की किरण जलने से पहले ही बुझ गई। झुठी आश लिए शब्बो ने एकबार रसोई में झांका तो वहाँ पड़े खाली पतीले जैसे उसके खाली पेट और फुटी किस्मत की मजाक उड़ा रहे थे।
आँखों के कोरो में आंसू छिपाए वह रसोई से बाहर निकली और रात के खाने में अपनी बेटी की तरफ दो चुटकी नमक मिला पानी से भरा गिलास बढ़ा दिया, जिससे ज्यादा देने के लिए उसके पास आज कुछ था भी नहीं।
तपे बदन से बेटी ने गिलास में भरे पानी को उसके आखिरी बूंद तक मुंह से लगाए रखा और इस बीच न जाने कितनी बार शब्बो के आँखों से नीर लुढ़के।
भूख और बीमारी से आँख-मिचौली खेलती शब्बो अपनी किस्मत को कोस ही रही थी कि तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया।
बेटी को बिस्तर पर लिटा शब्बो ने बुझे मन से दरवाजा खोला तो सामने कोई ग्राहक खड़ा दिखा।
“चलेगी क्या?” सुनते ही जैसे शब्बो की बांछे खिल गई। उसने कमरे के भीतर मुंह फेरकर सोये अपनी भुखी बेटी पर एक निगाह फेरी और फिर दरवाजे पर खड़े उस ग्राहक के सवालिया निगाहों की तरफ देखा, जो उसकी हामी के इंतज़ार में खड़ा था। पल्लू से अपने चेहरे को पोछ सामने खड़े अन्नदाता को रिझाती शब्बो ने सिर हिलाकर पास वाले कमरे की तरफ इशारा किया।
थोड़ी ही देर में शब्बो के ज़िस्म पर लेटा हुआ वह ग्राहक ढेर हुआ तो शब्बो की आँखों के आगे अपनी भुखी और बीमार बेटी के लिए रोटियों और दवाईयों की उम्मीदें हिलोर मारने लगी।
“साहब तुम्हारा हो गया न, अब जल्दी से पैसे दे दो! मुझे अपनी बेटी के लिए दवाईयाँ और खाना लाने जाना है।”- अपने ऊपर ग्राहक का बोझ लिए शब्बो ने उससे उसकी संतुष्टि का हिसाब मांगते हुए कहा।
कुछ ही पल बाद खिले चेहरे से नोटों को अपनी पल्लू में गिरह लगाते हुए शब्बो तेज़ कदमों से बाहर की तरफ लपकी। वापस लौटी तो हाथ में बिटिया के लिए जरुरी दवाईयाँ और रात का खाना साथ था।
अपनी बेटी को पेट भर खाना खिला और दवाइयाँ देकर शब्बो के चेहरे पर एक अजीब-सी संतुष्टि और मातृत्व का भाव फैला था, जिसने उसके दिनभर के तरद्दुद को भुला दिया था।

। । समाप्त । ।