घर नजदीक होने के कारण सप्ताहांत में मैं लोकल बस पकड़कर घर चला जाया करता था ।
इस शनिवार भी घर जाने को बस पकड़ा और खिड़की वाली सीट पर आकर बैठ गया ।
बस खुली । कुछेक किलोमीटर आगे जाकर एक रेलवे फाटक पर खड़ी हो गयी । शायद कोई ट्रेन आनेवाली थी। आसपास में अन्य गाड़ियों की भी भीड़ लग गई थी ।
तभी, करीब 65-70 साल की उम्र के दो वृद्ध बस में चढ़ने को उसके दरवाजे के पास आकर खड़े हो गएँ और वहीं खड़े-खड़े बतियाने लगें । उन्हे बस के बाहर खड़ा देख बस कंडक्टर ने बस का दरवाजा खोल दिया ।
उन दोनो वृद्धों की बातचीत सुन समझ में आ गया था कि रिश्ते में वे दोनों समधी हैं ।
उनमें से एक अपनी बेटी के ससुराल आया था और घर को वापस लौट रहा था । जबकि, दूसरा तो मात्र उन्हे बस तक छोडने के लिए आया था ।
शिष्टाचार के नाते घर लौट रहे समधी ने दूसरे को भी अपने साथ चलने का निवेदन किया । उसी शिष्टता से दूसरे समधी ने भी विनम्रतापूर्वक मना कर दिया ।
बस के दरवाजे पर अभी दोनों समधियों का मान-मनौवल चल ही रहा था कि रेलवे फाटक खुल गई और बस चलने को हुई ।
“जाना है कि नही”–बस कंडक्टर ने हड़बड़ी में उस वृद्ध से पूछा और जैसे ही उन्होने चलने की हामी भरी । बिना कुछ सोचे-समझे कंडक्टर ने उन दोनों समधियों को पकड़कर बस में खींच लिया । बस ने भी तुरंत अपनी रफ्तार पकड़ ली । फिर, कंडक्टर बस में भीतर की ओर आकर अन्य यात्रियों से किराये लेने में व्यस्त हो गया ।
दोनों समधियों ने उस कंडक्टर को बताने का लाख प्रयास किया कि उनमे से केवल एक को ही जाना है, दूसरे को नही । लेकिन, खचाखच भरे उस बस में एक ही जगह फंस कर खड़े वे बेचारे टस-से-मस भी न हो पाये ।
अपने सीट पर बैठा मैं और कुछ सहयात्री बस में चल रहा यह परिदृश्य देख मुस्कुरा रहें थें ।
थोड़े ही देर बाद जब कंडक्टर बस का किराया लेने उन समधियों के पास पहुंचा । दोनों एक साथ उसपर चिल्ला पड़ें ।
“एक तो जबर्दस्ती हमें बस में चढ़ा लिया और ऊपर से पैसे मांग रहा है ! कोई पैसा-वैसा नही मिलेगा..... । कब से समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि हमदोनों में से केवल एक को ही जाना है । लेकिन सुनता ही नहीं....जैसे बहरा हो गया है । नही देंगे, पैसा ! जाओ, जो करना है कर लो।” - दोनों समधी एक स्वर में उस कंडक्टर पर चिल्ला कर बोलें ।
तब जाकर उस कंडक्टर को भी अपनी गलती का अहसास हुआ ।
“हमें जाना ही नहीं था । बस घुमाओ और हमें वापस पहुंचाओ ।” – दोनों समधी उस सहमें कंडक्टर पर अपनी सारी भड़ास निकालते रहें ।
समधी बंधू का तमतमाया हुआ चेहरा और उस असहाय बस कंडक्टर का उतरा हुआ शक्ल देखने लायक था, जिसे देख बस में बैठे अधिकांश यात्री अपनी हंसी रोके बिना न रह सकें ।
एक बस स्टॉप पर बस रोककर उस कंडक्टर ने विपरीत दिशा से आ रही बस में एक समधी को बिठाकर वापस भेजा ।
परन्तू, गाँव में रहने वाले एवं शक्ल से भोले दिखने वाले दोनों समधी भी कम थोड़े ही न थें ! उन्होने भी मौका देखकर चौका मारा और हरजाने के रूप में किराया न देने की बात उस बस कंडक्टर से मनवाकर ही अपना आगे का सफर जारी किया।
मूल कृति : श्वेत कुमार सिन्हा ©