वकालतः Hostility Pays Not Ashok Kalra द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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वकालतः Hostility Pays Not

“सर मैं अगले महीने से आपके साथ काम नहीं कर पाऊँगा, मुझे साथ वाले वकील साहब दो हजार रुपये ज्यादा तनख्वाह दे रहे हैं," वकील साहब के सहायक ने सूचित किया।

“जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बेटा। तुम्हें पैसा नाम से बड़ा दिख रहा है, तो कोई बात नहीं,” साहब ने एक फाइल खोली।

“वकील राकेश तोमर जी, आप ही हैं न?" एक बूढ़ा आदमी एक नौजवान के साथ आया और पहचानने की कोशिश में उन्हें घूरने लगा।

वकील साहब ने उसे पहचाना तो नहीं पर अपने सहायक को इशारा किया तो वह अपनी कुर्सी बूढ़े के लिए छोड़ कर खड़ा हो गया। उसने बूढ़े को बैठाया और पानी दिया।

“हाँ, बाऊ जी कहिए, राकेश तोमर मैं ही हूँ,” उन्होंने फाइल सहायक को पकड़ाई।

“ये मिठाई आपके लिए! शहर में मकान खरीदा है, रजिस्ट्री करवाने आया था तो सोचा आपसे मिलता चलूँ,” बूढ़े ने नौजवान को इशारा किया तो बेटे ने मिठाई का डिब्बा राकेश तोमर के हाथ में दे दिया।

“बाऊ जी, लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं”।

“नहीं पहचाना होगा, सालों तो हो गए। आपके बाल भी सफेद हो गए, मेरे तो गायब ही हो गये, बूढ़ा हंसा,” तो चैम्बर में मौजूद सभी हंस पड़े।

"आपका क्या केस था?"

“केस हुआ ही कहाँ था? आपने सलाह देकर मुझे मुकदमा करने से ही मना कर दिया था। जबकि चाहते तो मुकदमेबाज़ी में उलझाकर रुपये ऐंठ सकते थे, मैं गुस्से में कुछ भी करने की मनोस्थिति में था”।

“जी, थोड़ा सा और बताएं, मैं अब भी नहीं समझ पाया। ये तो समझ गया की आप मेरी तारीफ़ कर रहे हैं, उसके लिए आपका शुक्रिया,” राकेश तोमर मुस्कुराए।

“मेरे दो छोटे भाई हैं, जिन्हें मैंने शहर में अपनी दुकान दे दी थी, क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन मैं पढ़ा-लिखा था, नौकरी कर सकता था। दुकान से उन दोनों का गुजारा हो जाता और मेरा नौकरी से। जबकि में दुकान पर सुखी था, किसी की चाकरी करना मेरी फ़ितरत में नहीं था, पर उनके लिए मैं बाहर रहा, बीवी बच्चों से दूर रहा”।

“कुछ साल बाद मेरी नौकरी छूट गई, लेकिन तब तक दुकान पर पहले से अच्छी कमाई होने लगी थी। मैंने कहा कि मैं भी दुकान पर ही आ जाता हूँ, कुछ और काम भी कर लूँगा, लेकिन उन दोनों ने षडयंत्र करके दुकान पर कब्ज़ा कर लिया, और मेरे दुःख की घड़ी में मुझे अलग कर दिया”।

“मैं बहुत ज्यादा गुस्से में था और दो बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंता में था। मैं कैसे भी उन दुष्ट भाईयों से हिसाब करना चाहता था, किंतु आपने ही समझाया कि मुकदमों से फैसला होने में सालों लग जाते हैं तो धन, मन और समय की बरबादी भी होती है। प्यार से बात बने तो ठीक, वरना बुरे के साथ बुरा बनने की जरूरत नहीं। आपका कहना मान कर मैंने बच्चों के भविष्य पर ध्यान लगाया और आज बेटा और बेटी दोनों अच्छी नौकरी में हैं। मैं दोनों भाइयों से अच्छी स्थिति में हूँ। वे दोनों रात-दिन क्लेश में रहते हैं”।

“जी, याद आ गया बाऊजी। हालांकि हमारी दो-तीन मुलाकातें ही हुईं थी। आपका बहुत बहुत धन्यवाद है, कि काजल की कोठरी में मुझे उज़ला कह रहे हैं। हालांकि लोग तो कहते हैं वकीलों से बड़ा कोई झूठा नहीं होता, और सच ही कहते हैं, क्योंकि वकील बुरे काम करते भी हैं। अगर आपका भाग्य बुरा होता तो आप मेरे चैम्बर के बजाए, बाजू वाले चैम्बर में जाते और फिर शायद आज तक मुकदमेबाजी में ही उलझे होते,” ये कहते हुए राकेश तोमर ने अपने सहायक को देखा, जो ये बातें बड़़े ध्यान से सुन रहा था।

“वकील साहब, उस समय सिर्फ मेरी पत्नी ही मुकदमेबाजी के खिलाफ़ थी, वरना तो रिश्तेदारों, दोस्तों और जानने वालों तक ने मुझे कानूनी पचड़ों में पड़ने के लिए पूरा उकसा दिया था। लेकिन किस्मत ही कहूँगा, हजारों की भीड़ में आपसे ही आ मिला”।

“बस जी, ये समय ही था। आप तो समझते रहे कि समय आपके विपरीत है, लेकिन समय आपके साथ था, तभी तो आपको अच्छी पत्नी और अच्छी संतान मिली। फिर आपके साथ सब अच्छा होता चला गया। एक राज़ की बात बताऊँ, मुझे याद आ गया”।

“राज़! राज़ कैसा वकील साहब?” बूढ़ा, उसका बेटा और राकेश तोमर का सहायक बुरी तरह चौंके।

“मैंने आपको जानबूझ कर 3-4 चक्कर कटवाए थे, जबकि जरुरत नहीं थी।”

“हाहाहा… समझ गया मैं। मगर आप ही बताइए क्यों किया था ऐसा आपने?”

“आप तो समझ गए, ठीक है, मैं इन दोनों नौजवानों (बूढ़े का बेटा और राकेश तोमर का सहायक) को बताना चाहता हूँ, मैंने चक्कर इसलिए कटवाए ताकि इन्हें ठण्डे दिमाग से सोचने का वक्त मिल जाए; और वही हुआ भी”।

“लेकिन आप ऐसा क्यों करते हैं, वकील साहब? आपका काम ही कैसे चलता होगा फिर केस न लेने से? और समझाने में समय नष्ट करने से?” अब उस बूढ़े के बेटे ने पूछा।

“बेटा, मैं अपने घर के ही दो केस पिछले ग्यारह साल से लड़ रहा हूँ। भाइयों ने लाठीबाजी तक करवाई मेरे साथ। सच कहूँ तो इन दोनों केसेज़ ने ही मुझे सिखाया है कि लड़ने से जीत भले ही मिल जाए, सुकून नहीं मिलता। बाऊजी का दर्द मैं समझ सकता था, तो मैंने समझाया। अगर बात इनकी समझ में नहीं आती, तो मैं मुकदमा भी कर देता। मेरे पास ईश्वर की कृपा से काम की कमी कभी नही रही”।

“आप धन्य हैं, वकील साहब। कभी घर जरूर आइएगा,” बूढ़ा और उसका बेटा विदा लेकर चल दिये।

वकील साहब ने मुस्कुरा कर मिठाई का डिब्बा खोला और अपने सहायक की ओर बढ़ाया। सहायक ने मिठाई का टुकड़ा उठाया और बाजू वाले वकील की कोठी, गाड़ी और ऑफिस के बारे में सोचने लगा।

—Dr📗Ashokalra

Meerut