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भला मानस - Virtue Of Help

“पापा, आपके लिए क्या लाएं हम?” बेटी ने पूछा।

“कुछ नहीं, बस आप दोनों ज़रा जल्दी आ जाएं,” मैंने एक कॉल रिसीव करने से पहले कहा।

त्यौहार का दिन था और बाज़ार में बहुत भीड़ थी। मैं आमतौर पर भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने से बचता हूँ, लेकिन पत्नी और बेटी की जिद के आगे नहीं चली थी। वे शॉपिंग प्लाजा चले गए और मैं वहाँ से 70-80 मीटर दूर खड़ी कार में था।

उन्हें गए दो घंटे से अधिक हो गये थे। मैं अपनी पत्नी को फोन लगा ही रहा था कि अचानक मैंने देखा कि नीले रंग की एक कार तेज धमाके से उछली और फिर आग ही आग फैल गई। धमाका इतना तेज़ था कि मेरी कार के शीशे चटक गये और मैं भी ज़ख्मी हो गया। कान सुन्न हो चले थे और हर तरफ धुआँ ही धुआँ था। मेरे हाथ में पकड़ा फोन गिरा और फिर ऑन ही नहीं हुआ।

मैं तेजी से शॉपिंग प्लाजा की तरफ भागा, वहाँ का मंज़र देखते ही मेरी रूह फ़ना हो गई। कई सारी लाशें… किसी की टांग गायब, किसी का… उफ्फ बयाँ करना भी मुश्किल है। एक माँ अपनी मासूम बेटी की लाश गोद में लिए बैठी रो रही थी, लेकिन उसकी तरफ देखने वाला भी कोई नहीं था। खुद मेरे दिमाग में बस मेरी बेटी और पत्नी घूम रहे थे। समझ ही नहीं आ रहा था क्या करूँ। चारों ओर से पुलिस और होमगार्डस ने घेर लिया था, और वे शापिंग प्लाजा के अंदर जाने ही नहीं दे रहे थे।

“भाई मेरी मदद करो,” एक औरत ने कहा। उसके साथ एक युवती थी जिसका चेहरा और एक हाथ बुरी तरह से ज़ख्मी था।

मैं बस सूनी आँखों से उसे देखता रहा, जैसे कि मैं होशा-हवास में ही नहीं था। खून देख कर मुझे चक्कर आ जाते हैं, शायद वही असर था।

“भाई…” उसने मेरा हाथ पकड़ कर झिंझोड़ा।

“आप अंदर से आ रही हैं क्या? मेरी बीवी और बेटी अंदर हैं!” मैंने कहा तो मुझे खुद अपनी आवाज़ भी जैसे कुएं में से आती लगी।

“भाई अंदर जाने का कोई हाल नहीं है, आग लगी हुई है,” उसने ये कहा ही था कि शॉपिंग प्लाजा के अंदर एक और धमाका हुआ और मैं अंदर तक कांप गया।

“भाई मेरी बेटी को अस्पताल पहुँचाने में मदद करो, आपकी बीवी और बेटी अंदर नहीं हैं, अंदर कोई नहीं है, उनको किसी और से मदद मिल ही जाएगी, आप अंदर तो वैसे भी नहीं जा पाएंगे,” कहते कहते वह औरत रोने लगी।

पता नहीं मेरे दिल को क्या हुआ कि एकदम वास्तविक स्थिति दिखने लगी। मेरा अंदर जा पाना असंभव था, सारी जगह पर पुलिस नज़र आने लगी थी जो लोगों को वहां से दूर कर रहे थे। उस औरत की बात एकदम सही लगी। कोई और मेरी बेटी और पत्नी की मदद जरुर करेगा, जो भी उनके पास होगा।

“चलिए इन्हें ले चलें,” मैंने खुद को संभाला और उस युवती को संभालने में उसकी मदद करते हुए, उन्हें अपनी कार की ओर ले जाने लगा। कार के पास पहुँचने से पहले ही एक एंबुलैंस वहाँ आ गई, उन्होंने उस युवती को संभाल लिया। उस औरत का फोन लेकर मैंने पत्नी को फोन किया, लेकिन उसका फोन ही नहीं मिला।

अब तो शॉपिंग प्लाजा के चारों ओर पुलिस और आर्मी ही दिख रही थी। रास्ता ही बंद कर दिया गया था। मुझे एक सैनिक ने आसपास के अस्पताल में देखने को कहा। मैं भागा, मेरे दिमाग में ही नहीं आया था, क्योंकि सोचने की शक्ति ही नहीं बची थी।

पास के अस्पताल में तो दृश्य और अधिक विकट था, जो मैंने आजीवन न देखा था। लेकिन बहुत तलाशने के बाद भी मेरी बेटी और पत्नी कहीं न दिखे। आशा-निराशा में झूलते हुए मैं वहाँ से निकला और घर की ओर चला। वे दोनों हैरान-परेशान घर के बाहर ही बैठी थीं। एक भला मानस उन्हें यहाँ तक पहुँचा गया था।

आदमी ही आदमी के ग़र काम आये

तो खुदा सच में यहीं पर हर ब़ाम आये

—Dr💦Ashokalra

Meerut

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