अभी तक आपने पढ़ा सोलह साल की अल्हड़ बंजारन कजरी को उसकी माँ पारो ने अपनी मैडम निशा जिसके घर वह काम करती थी वहाँ उसकी अनुमति से रख दिया ताकि वह ख़ुद दूसरे घरों में जाकर काम कर सके। पारो को उस परिवार पर भरपूर विश्वास था कि उनकी कजरी वहाँ बिल्कुल सुरक्षित रहेगी। लेकिन निशा के पति नवीन की नीयत उसे देखकर ख़राब होने लगी।
रविवार के दिन जब कजरी घर में अपनी धुन में बेफ़िक्र होकर काम करती रहती, नवीन की चंचल आँखें कहीं ना कहीं से चोरी छिपे उसे देखती ही रहती थीं। सुंदर नैन-नक्श, सांवला रंग, गठा हुआ बदन, नवीन के दिलों दिमाग पर इस कदर छाने लगा कि अब उसे किसी भी कीमत पर वह सब हासिल करना था। उसका दिमाग कई बार उसे धिक्कारता यह क्या कर रहा है तू? ग़लत है यह किंतु नवीन का मन अब मानने को तैयार कहाँ था। उसे तो कजरी दिन रात ख़्यालों में भी दिखाई देती ही रहती थी। नवीन अब उस मौके की तलाश में था जब कभी निशा घर से बाहर चली जाये तो वह अपने मन की मुराद और उस चाह को पूरा कर ले जिसने उसे इतने दिनों से बेचैन कर रखा है।
उसका इंतज़ार पूरा हुआ और वह दिन आ ही गया। आज गुरु नानक जयंती थी, नवीन की छुट्टी का दिन था परंतु निशा का ऑफिस जारी था। वह हर रोज़ की तरह इत्मीनान के साथ ऑफिस चली गई। कजरी आज अपनी बंजारन ड्रेस पहन कर आई थी। आज वह रोज़ से भी ज्यादा आकर्षक लग रही थी। मौसम का मिज़ाज भी आज बदला-बदला सा लग रहा था। सुबह से ही आकाश के नीचे काले-काले बादल मंडरा रहे थे, मानो अपना नृत्य दिखा रहे हों। सुबह से उमड़ घुमड़ करते बादल दोपहर बारह बजे अपने रौद्र रूप में आ गए और घमासान बारिश में तब्दील होने लगे।
कजरी घर के काम में व्यस्त थी। नवीन का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। वह किसी ना किसी काम के बहाने उसी कमरे में चला जाता जिस कमरे में कजरी होती। कजरी नवीन के दिमाग में चल रहे तूफ़ान से अंजान अपनी ही धुन में मस्त थी। नवीन चाह कर भी वह नहीं कर पा रहा था, जिसके लिए वह इतने महीनों से प्यासा था, पागल था। आख़िरकार वह वापस अपने बेडरूम में चला गया और उसने एक गिलास में शराब निकाल कर पी लिया। बिजली अपना शोर मचा रही थी। मौसम का अंदाज़ अभी भी वैसा ही था। इतने में नवीन ने कजरी को आवाज़ लगाई, "कजरी-कजरी जरा इधर आना।"
"जी साहब अभी आती हूँ,” नवीन की आवाज़ सुनते ही कजरी अपना सब काम छोड़ कर आ गई और उसने कहा, "जी साहब!"
उधर गैस पर दूध रखा हुआ था और साथ ही कुकर भी चढ़ा हुआ था।
नवीन ने कहा, "कजरी एक गिलास पानी लाओ, दर्द के कारण सर फटा जा रहा है।"
"जी साहब अभी लेकर आती हूँ।"
कजरी ने पानी लाकर नवीन को दिया तो नवीन ने कहा, " कजरी देखो तो शायद मुझे बुखार है?"
कजरी ने जैसे ही उसके हाथ को बुखार देखने के लिए टच किया, नवीन का पूरा बदन कांप गया और उसने कजरी को अपनी बाँहों में भर लिया।
कजरी ने कहा, "साहब आप यह क्या कर रहे हैं? छोड़ो मुझे"
लेकिन नवीन इस समय वासना और हवस के हाथों में गुलाम की तरह था। वह मानो बहरा हो गया था और कजरी की आवाज़ उसे सुनाई ही नहीं दे रही थी। उधर कुकर की सीटी बजती ही चली जा रही थी और गैस पर रखा दूध इस तरह उफ़न रहा था मानो वह भी बचाओ- बचाओ चिल्ला रहा हो। लेकिन उस समय वहाँ उसे और कजरी को बचाने वाला कोई नहीं था।
कजरी ने बहुत विरोध किया, बहुत गिड़गिड़ाई किंतु नवीन ने जब तक अपनी हवस को शांत नहीं कर लिया तब तक उसे नहीं छोड़ा। उसके बाद रोती हुई कजरी जब कमरे से बाहर जाने लगी तब नवीन ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, "कजरी यह बात किसी को मत बताना। मैं-मैं तुम्हें ढेर सारे पैसे दूँगा। तुम-तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो इसलिए यह सब हो गया।"
कजरी की आँखें रो रही थीं। आज उसका विश्वास से रिश्ता टूट गया था। उसने अपना हाथ छुड़ाया और बिना कुछ बोले रसोई में चली गई। आज उसका वह अपमान हुआ था जो नारी को तोड़ कर रख देता है। यह ऐसा घाव है जो नासूर बन जाता है। मन के किसी कोने में उस घटना की भयानक यादें और दर्द अपने पैर हमेशा के लिए जमा लेते हैं। उस स्त्री का पूरा जीवन ही बदल जाता है। कजरी लगातार रो रही थी।
नवीन ने कपड़े पहने और देखने बाहर आया कि कजरी क्या कर रही है। उसे रोता देखकर वह उसके पास आया।
रत्ना पांडे वडोदरा गुजरात
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः