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कजरी - भाग १

कजरी झोपड़पट्टी में रहने वाली बहुत ही मासूम, सुंदर-सी कमसिन एक बंजारन थी। बचपन से अब वह नाता तोड़ कर जवानी से रिश्ता जोड़ रही थी। पन्द्रहवाँ साल पूरा होने ही वाला था। उसके बाद नारी के यौवन का सबसे सुंदर साल सोलहवाँ साल जिसे अंग्रेज़ी में स्वीट सिक्सटीन कहा जाता है बस वही लगने वाला था।

आठवीं मंज़िल पर तीन बेडरूम का एक सुंदर-सा फ़्लैट था। जहाँ कजरी की माँ पारो वर्षों से काम करने जाया करती थी। कजरी भी अपनी माँ का हाथ बटाने वहाँ आती रहती थी। पारो अपना घर चलाने वाली अकेली महिला थी। उसके सर पर अपनी सासू माँ की भी जवाबदारी थी। पति शराब पी पीकर स्वर्गवासी हो चुका था और ससुर को कैंसर जैसी भयानक बीमारी निगल गई थी। सासू माँ कमज़ोर थी इसलिए बैठे-बैठे ही पूरा दिन गुजार देती थी। पारो को इस बढ़ती महंगाई ने दबोच रखा था। वह जितना कमाती सब 20-25 दिन में ही ख़त्म हो जाता। महीने के बचे हुए दिन बड़ी ही कड़की में गुज़रते थे।

अब कजरी बड़ी हो रही थी। तभी एक दिन पारो ने सोचा आठवीं मंज़िल वाली निशा मैडम और नवीन भैया बहुत ही अच्छे लोग हैं। वहाँ का काम कजरी को ही सौंप दूँ तो? वह अपने ही मन से प्रश्न कर रही थी। हाँ-हाँ यह ठीक रहेगा, उतने समय में वह ख़ुद और थोड़े घर का काम बाँध सकती है। गुज़ारा चल जाएगा फिर आख़िरी दिनों में किसी के आगे हाथ फैला कर कर्ज़ा लेने की ज़रूरत नहीं होगी।

यह सोच कर उसने एक दिन निशा से पूछा, "मैडम यदि आपके घर अकेली कजरी काम संभाल लेगी तो मैं और दो-तीन घरों में काम बाँध सकती हूँ। निशा मैडम महंगाई तो मुँह खोले हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहे पर खड़ी है। करें तो क्या करें? आटा, नमक, कांदा भी अब तो खून को पसीना बनाकर बहाने पर मजबूर कर रहा है। इससे ऊपर तो हम कुछ सोच ही नहीं सकते। इतने के लिए ही और काम करना पड़ेगा, वरना महीने का आख़िरी हफ़्ता तो भूखे ही रहने की नौबत आ जाती है। यदि आप हाँ कहें तो," इतना कहते हुए पारो उम्मीद भरी नजरों से निशा की तरफ़ टकटकी लगाकर देख रही थी।

निशा ने कहा, "पारो तुम्हारी क्या बात करें, यह महंगाई तो सभी को नानी याद दिला रही है। मुझे कजरी से काम करवाने में कोई आपत्ति नहीं है। कजरी तो बहुत अच्छा काम करती है। तुम्हारे साथ लगी ही रहती है। तुम भी जहाँ चाहो काम बाँध लो। तुम्हें यदि चार पैसे ज़्यादा मिल सकते हैं तो मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है।"

"धन्यवाद मैडम, मैडम कजरी को मैं आपके घर के सिवा और कहीं भी अकेली नहीं छोड़ सकती। जवान बच्ची है, ज़माना खराब है, कहीं कुछ ऊँच-नीच ना हो जाए इसलिए डर लगता है। आपका घर तो बिल्कुल मंदिर जैसा पवित्र लगता है। नवीन भैया भी बहुत अच्छे हैं। वह तो समाज के गरीब लोगों के लिए कितना करते हैं हमें पता है।"

"ठीक है पारो तुम बेफिक्र रहो कजरी हमारे घर में बिल्कुल सुरक्षित रहेगी।"

इस तरह पारो ने निशा के घर आना बंद कर दिया। अब कजरी ही उनके घर का पूरा काम संभाल लेती थी। सुबह सात बजे से शाम छः बजे तक का समय था उसका। निशा ने कजरी को एकदम साफ़ सुथरा रहना सिखा दिया था। अपने पुराने किंतु अच्छे कपड़े भी निशा हमेशा कजरी को दे देती थी। निशा का इस तरह से उसका ख़्याल रखना कजरी को बहुत पसंद था। कजरी भी सारा काम बड़ी सफाई से और मन लगाकर करती थी।

निशा और नवीन दोनों सुबह नौ बजे अपने-अपने ऑफिस चले जाते थे। शाम को सात-आठ बजे तक वे वापस आ पाते थे। इस बीच कजरी सारा काम निपटा कर, रात का खाना बना कर घर चली जाती थी। निशा उसे बहुत ही प्यार से रखती थी। उसे खाने पीने की भी पूरी छूट थी। कजरी भी बहुत ख़ुश थी और उसे ख़ुश देखकर उसकी माँ भी बहुत ख़ुश रहती थी। कभी-कभी पारो, निशा के घर आकर बार-बार उसे दुआएँ देती रहती थी।

एक दिन पारो ने निशा से कहा, "मैडम आपकी वज़ह से मैं दूसरे घरों में काम कर पा रही हूँ। चार पैसे भी ज़्यादा मिल रहे हैं तो मुझे महीने के आख़िर में किसी के आगे हाथ नहीं फ़ैलाना पड़ता। कजरी की चिंता भी नहीं रहती। "

सोलह साल की अल्हड़ जवानी लिए कजरी जब भी नवीन के सामने आती, नवीन की नज़रें उस पर टिक जातीं। अब नवीन की नीयत ख़राब हो रही थी।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः

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