कजरी- भाग ३ Ratna Pandey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कजरी- भाग ३

अभी तक आपने पढ़ा कि कजरी लाख कोशिशों के बाद भी अपने आप को नहीं बचा पाई और वह नवीन की हवस का शिकार हो गई।

नवीन के पास आते ही कजरी बहुत जोर से डर गई। तब उसने कहा, "कजरी डरो नहीं, यह अब फिर कभी नहीं होगा। मुझे पता नहीं क्या हो गया था, मुझे माफ़ कर दो । भगवान के लिए यह बात किसी से भी मत कहना। तुम हाथ मुँह धो लो और रोज़ की तरह ही रहो ताकि जब निशा ऑफिस से आए तो उसे सब कुछ रोज़ की तरह सामान्य लगे।"

इतना कहकर नवीन घर से बाहर चला गया। बाहर टहलते समय वह सोच रहा था कि यह उसने क्या कर दिया, अगर कजरी ने निशा को सब कुछ बता दिया तो. . .।

जिस तरह हर पत्नी को अपने पति पर पूरा विश्वास होता है। उसी तरह निशा को भी नवीन पर पूरा विश्वास था। इसी विश्वास के कारण ही तो वह सोलह साल की एक कमसिन लड़की को अपने घर पर छोड़कर ऑफिस चली गई थी। यह सोच कर कि कजरी उनकी बेटी की तरह है और सुरक्षित है। नवीन है ना, उसका ध्यान रखने को।

उसके होते कोई उसे छूने की क्या ग़लत नज़र से देखने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। यह तो नवीन भी जानता था कि निशा उस पर कितना भरोसा करती है। कितना प्यार और कितना आदर करती है। यह सब जानते हुए भी वह अपने आपको वासना और हवस के चक्रव्यूह से साफ़ बाहर नहीं निकाल पाया। अब वह पछता रहा था लेकिन अब पछताने का कोई भी फायदा नहीं था क्योंकि जो कुछ हो चुका था उसे वापस पहले की तरह अब कभी नहीं किया जा सकता था। उसने तो सोलह साल की कच्ची उम्र वाली कजरी को अपना शिकार बना ही लिया था।

मासूम कजरी ने अपने होंठ सिल लिए थे। उसने नवीन की किसी भी बात का जवाब नहीं दिया। उसने रोज की तरह चुपचाप अपना काम करना भी शुरू कर दिया। उसे शारीरिक तकलीफ़ हो रही थी, पीड़ा भी हो रही थी लेकिन मन की इतनी बड़ी पीड़ा को सहन करती कजरी बेचारी तन की पीड़ा को भूले ही जा रही थी। उसकी आँखें मान ही नहीं रही थी। वह बार-बार ओढ़नी के पल्लू से आँसू पोंछती और बार-बार वह फिर से उसी रफ़्तार से बहने लगतीं ।

शाम को जब निशा आई, घर रोज़ की तरह बिल्कुल व्यवस्थित था। कहीं कोई अटाला नहीं, कोई कचरा नहीं। उनका कमरा भी रोज़ की तरह साफ़-सुथरा, परफेक्ट था। बिस्तर पर कहीं कोई सिलवट नहीं। लेकिन कजरी उदास थी, निढाल सी थी।

निशा ने पूछा, "क्या हुआ कजरी? इतनी बीमार-बीमार सी क्यों लग रही हो?"

"कुछ नहीं दीदी, आज थोड़ी तबीयत खराब है।"

"अरे तो घर चली जाती, क्यों रुकी है यहाँ, जाओ जाकर आराम करो। शाम का सारा काम मैं कर लूँगी।"

कजरी ने कहा, "ठीक है दीदी, मैं आज जल्दी अपने घर चली जाऊँ।"

"हाँ जाओ कजरी, दवाई चाहिए तो ले लो।"

"नहीं दीदी, कुछ नहीं चाहिए, मैं जाती हूँ," कह कर कजरी चली गई।

वह अपनी माँ पारो को उसकी आप बीती बताना चाहती थी पर बता ना पाई। वह चाहती थी कि अपनी माँ से लिपट कर फूट-फूट कर रोए पर रो ना पाई। वह चाहती थी कि नवीन की दरिंदगी का पर्दाफाश कर दे, पर कर ना पाई। वह सोच रही थी माँ को कितना अधिक दुःख होगा। वह कितना भरोसा करती हैं नवीन साहब पर जाने दो । माँ को यूँ ही ख़ुश रहने दो। इतने बड़े दर्द के सैलाब को कजरी ने अपने अंदर ही समेट लिया सिर्फ़ यह सोच कर कि इसी में सबकी भलाई है।

अब नवीन जब भी कजरी को देखता, उससे नज़रें नहीं मिला पाता। जो चंचल आँखें पहले कजरी के इर्द-गिर्द घूमा करती थीं वही आँखें अब उससे नज़रें मिलाने में भी कतराती थीं। इसी तरह दिन गुजरने लगे। उधर कजरी की दादी का देहांत हो चुका था और अब घर में केवल दो ही लोग बचे थे। इसी बीच पारो को भी चिकनगुनिया हो गया। निशा ने हर तरह से उनकी मदद की फिर भी वह पारो को नहीं बचा पाई। काल ने कजरी की माँ को भी उससे छीन लिया।

अब निशा के सिवा उसका कोई सहारा नहीं था। पारो जाते-जाते निशा से कह गई, "निशा मैडम मेरी कजरी अकेली पड़ जाएगी। इस भेड़ियों से भरे समाज में उसे इस तरह छोड़कर जाने का मन नहीं होता, डर लगता है, इससे तो वह भी मेरे साथ…"

"नहीं-नहीं पारो तुम ठीक हो जाओगी। इस तरह की बातें मत करो।"

"नहीं मैडम जी, ठीक तो अब मैं होने से रही। बस कजरी में ही मेरे प्राण अटके हैं। मैडम आप मेरी कजरी को अपने घर पर रखेंगी ना?"

"हां पारो मैं कजरी का पूरा-पूरा ख़्याल रखूँगी और उसे अपने घर पर अपने साथ ही रखूँगी। कभी उसे यहाँ इस झोपड़ी में अकेले नहीं रहने दूँगी।"

इतना सुनते ही पारो ने अपनी साँसें छोड़ दीं।

रत्ना पांडे वडोदरा गुजरात

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः