वह रात अच्छे से बीता था। अवधूत के बारे में नहीं जानता लेकिन मुझे मां की कई प्रश्नों का सामना करना पड़ा था। जैसे कि पिछले कुछ दिनों से मैं घर के बाहर इतना क्यों जा रहा हूं? इतनी रात घर क्यों लौटता हूं इत्यादि? अगला दिन बहुत ही चिंता में बीता, क्योंकि उसके घर सीधा जाए बिना अवधूत से कांटेक्ट करने का कोई उपाय नहीं है? वैसे इस वक्त वह अपने घर नहीं होगा, बाराबंकी कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी को लेने गया होगा। शाम तक मैं अवधूत के एड्रेस पर पहुंच गया। कई लोगों से पूछने के बाद आखिर में उसका घर मिल ही गया। इतने बड़े घर में वह अकेला रहता है?
अवधूत ने खुद ही दरवाजा खोला। वह ठीक है यह देख मेरा मन शांत हुआ।
मैंने उससे पूछा,
" उन्हें लेकर आए हो? "
"हाँ, अंदर के कमरे में हैं। लेकिन उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया है और कहा है कि जब तक वो नहीं कहते वहां जाना निषेध है। चलो सामने ही दुकान से चाय पीकर आते हैं।"
चाय पीने के बाद जब हम दोनों लौटे , तब तक शाम खत्म होकर रात हो गया था। अभी तक कृष्ण प्रसाद जी ने दरवाजा नहीं खोला था। अंदर क्या कर रहे हैं पता नहीं ?
आज मां को बता कर आया हूं कि रात को घर नहीं लौटूंगा। रॉकेट की मौत से मां थोड़ा घबराई हुई थीं , इसीलिए उन्हें कैसे मनाया यह मैं ही जानता हूं? हम दोनों कुछ देर और आंगन में टहलते रहे। घड़ी में टाइम देखा तो 9 बज रहे थे , ठीक उसी वक्त कृष्ण प्रसाद जी दरवाजा खोलकर बाहर आए।
आज उनके पोशाक में अद्भुत परिवर्तन है। उन्होंने किसी बौद्ध लामा की तरह हल्के लाल रंग का किमोनो जैसा कुछ पहन रखा है। उनके गले से रंग-बिरंगे चार - पांच क्रिस्टल की माला झूल रहा है। अब उन्होंने हम दोनों को अंदर आने के लिए कहा। एक बड़ा सा कमरा, अंदर लगभग 10-15 दीपक जल रहा है। पूरा कमरा एक हल्की भीनी भीनी सुगंध से भरा हुआ है
यह मक्खन का सुगंध है। मैं इतना जानता था कि बौद्ध अनुयायी हमारी तरफ घी या सरसों के तेल का दीपक नहीं जलाते। उनके घर्म क्रिया का मुख्य अंग यह बटरलैंम्प है। इतने बड़े कमरे के फर्श पर एक बड़ा बहुत ही सुंदर सा ज्यामितीय आकृति बनाया गया है। उस आकृति की डिटेल्स बहुत ही सुंदर था। झुककर ध्यान से सब कुछ देखा तो पता चला कि विभिन्न रंगों के चूने के द्वारा उसको बनाया गया है। ध्यान पूर्वक उस आकृति को देख रहा था, कमरे के उस ओर से कृष्ण प्रसाद जी के आवाज को सुनकर ध्यान भंग हुआ।
" यही देवता वज्रपाणि का मंडल है। इसी मंडल के बीच में हम क्रोध भैरव यानि देवता वज्रपाणि का आह्वान करेंगे। चलो अब शुरू करते हैं। इसके बाद अवधूत के हाथ में एक जपमाला पकड़ा कर बोले,
" सभी इंद्रियों को शांत रख मन को ध्यान मुद्रा के उच्च स्थान पर ले जाना और फिर देवता वज्रपाणि को याद करना, साथ ही साथ 'ॐ वज्रपाणि हुं ' इस मंत्र का जप करना। लेकिन अभी नहीं। अभी मुझे बहुत सारा कार्य करना होगा। मैं जब कहूँ तब मंत्र जप शुरू करना। जाओ मंडल के उत्तर की ओर बैठ जाओ।"
अब उन्होंने आगे आकर मेरे हाथ में उस अभिशापित मूर्ति को दिया, और बोले -
" इसे पकड़े रहो और मेरे आदेश का इंतजार करना। यह मूर्ति तुम्हारे हाथ में रहेगा इसीलिए तुम्हारे साथ कुछ होने की संभावना सबसे ज्यादा है लेकिन डरने की कोई बात नहीं। मैं तुम्हारे चारों तरफ रक्षा घेरा बना देता हूं। याद रखना, कुछ भी हो जाए लेकिन तुम इस रक्षा घेरा के बाहर नहीं आओगे। लाकिनी अपने मायावी जाल से तुम्हें अचंभित करेगी लेकिन वह कुछ भी करे इस रक्षा घेरा से बाहर मत निकलना। अगर इस घेरे से बाहर निकल आए तो हम दोनों कुछ नहीं कर सकते। "
यह सब कुछ सुनकर डर से मेरा गला सूख गया था, फिर भी किसी तरह सिर हिलाकर जवाब दिया।
एक रंगीन बैग के अंदर से कुछ लाल रंग के चुने जैसा निकालकर ; मंत्र पढ़ते हुए कृष्ण प्रसाद जी ने मेरे चारों तरफ एक गोल घेरा बनाया। फिर सामने वाले भालू के चमड़े की आसन पर जा कर बैठे। एक बड़े से पीतल की टोकरी में चमकदार चुने जैसा कुछ डालकर उसमें आग जला दिया। उस आग का रंग गाढ़ा लाल है। मंडल के ठीक बीच में कृष्ण प्रसाद जी ने उस टोकरी को रखा। अब उन्होंने अपने बैग से एक पीतल का घंटा निकाला और फिर उनका बायां हाथ चलते ही वह घंटा मधुर आवाज़ में बज उठा और पूरे कमरे में 'टन टन टन टन' की आवाज सुनाई देने लगा। दाहिने हाथ से उस पीतल की टोकरी में कुछ फेंक रहे हैं और उसी से बीच-बीच में आग की लपटे ऊपर उठती। उनके गंभीर मंत्र पढ़ने की आवाज से इस खाली कमरे की दीवार मानो कांप रहे हैं। मैं और अवधूत इस वक्त केवल दर्शक मात्र हैं , उनके आदेश के बिना हम ' चूँ ' भी नहीं कर सकते।
आग में आहुति देना समाप्त होने के बाद कृष्ण प्रसाद जी उठकर मंडल के चारों तरफ कई सारे सुगंधित धूपबत्ती को जला दिया। कुछ ही मिनटों में पूरा कमरा धुएं और तेज सुगंध से भर गया। अभी इशारों में उन्होंने अवधूत को जपमाला उठाने के लिए कहा और फिर बोले,
" मंत्र तब तक पढ़ते रहना जब तक मंडल के बीच में जलते आग का रंग नीला ना हो जाए। आग का रंग नीला होते ही समझ जाना कि यह देवता वज्रपाणि हैं। याद रखना आग के रंग का परिवर्तन ना होने से पहले कुछ भी हो मंत्र पाठ नहीं रुकना चाहिए।"
अब एक साथ दोनों ने ही मंत्र पाठ शुरू कर दिया। बटरलैम्प की रोशनी में धूपबत्ती की धुआँ व सुगंध तथा दोनों के मंत्र पाठ ने इस पूरे कमरे के वातावरण को एक अलौकिक दृश्य में बदल दिया है।
" ॐ वज्रपाणि हुं , ॐ वज्रपाणि हुं, ॐ वज्रपाणि हुं , ॐ वज्रपाणि हुं "
मंत्र की आवाज से पूरा कमरा गूंज रहा है।
कब तक मंत्र पाठ चलता रहा मुझे नहीं पता? मुझे बैठे-बैठे थोड़ा नींद आने लगा था। इधर धूपबत्ती का धुआँ और सुगंध दोनों बढ़ा है इसलिए नींद आने का बहुत ही अच्छा परिवेश बना था। कुछ ही दूरी पर बैठे अवधूत और कृष्ण प्रसाद जी धुंधले दिख रहे थे।
अचानक हाथ में कुछ गर्म महसूस होते ही मुंह से 'आह 'शब्द निकल गया क्योंकि मानो गर्म लोहे पर हाथ पड़ गया था। मैं चौंक गया। नहीं, लोहा नहीं।हाथ में पकड़ा हुआ मूर्ति गर्म हो गया था इसीलिए उसे पकड़ने में कठिनाई हो रही है। उधर दोनों का मंत्र पाठ चल रहा है, किसी को बुलाकर इस बारे में बता भी नहीं पा रहा। इधर मूर्ति को पकड़े रहना लगभग असंभव हो रहा है। कृष्ण प्रसाद जी के कहे अनुसार मूर्ति को नीचे रख भी नहीं सकते।
पूरा कमरा किसी घटना की प्रतीक्षा कर रहा है। पूरे कमरे का परिवेश डरावना हो गया है। मुझे ऐसा लगा कि मानो कोई शुभ नहीं बल्कि अशुभ शक्ति इस कमरे में दस्तक देने वाला है। उसी वक्त एक धीमी आवाज की हंसी सुनाई देने लगी। आवाज बहुत ही अस्पष्ट और मानो बहुत ही दूर से आ रहा है। मैं अचंभित होकर चारों तरफ देखने वाला। कोई कहीं भी नहीं था। सामने, पीछे , दोनों तरफ नहीं कोई भी नहीं है। आखिर यह हंसी की आवाज कहां से आ रहा है? मंडल के बीच में रखे टोकरी की आग का रंग तो लाल से नीला होना चाहिए था ,लेकिन वह धीरे-धीरे हल्के हरे रंग में क्यों परिवर्तित हो रहा है? इस हल्के हरे रंग को मैंने पहले भी कहीं देखा है।
कृष्ण प्रसाद जी और अवधूत दोनों की आंखें बंद है। कमरे में परिवर्तन होना शुरू हो गया है लेकिन मैं उनका ध्यान आकर्षित नहीं कर पा रहा। अचानक एक ठंडी हवा का झोंका मेरे चेहरे को छूकर निकल गया। जलती आग के लपटें थोड़ा तेज हो गई। उसी आग की रोशनी में अचानक मेरी नजर ऊपर सीलिंग की ओर पड़ी और वहां जो देखा उसे देखकर मेरा पूरा शरीर डर से कांप उठा।....
क्रमशः...