सुबह-सवेरे मुसलमानों के गांव कमलिया से चार नौजवान हिन्दुओं के गांव जोगीपुरा में आ पहुंचे. एक दूसरे से सटे हुए गांव थे ये दोनों. और बाहर की दुनिया इन्हें मुसलमानों और हिन्दुओं के गांव के नाम से ही पुकारती थी. वैसे इन दोनों गांव के बीच ‘‘ ना दोस्ती, न दुश्मनी’’ वाला रिश्ता था.
वे नौजवान अपने साथ एक फोटो लाए थे और उसे दिखा-दिखाकर सबसे पूछ रहे थे कि किसी ने सुलेमान को देखा है.
सुलेमान? कमलिया गांव के नीली हवेली वाले रशीद अंसारी का बकरा. ईद पर कुरबानी का हट्टा-कट्टा शानदार रग-पुट्टों वाला बकरा. रंग काला-सफेद. जिसे एक लाख रूपए में खरीदा गया था. इस बकरे को मेवा-मलाई खिलाकर ईद की कुरबानी के लिए तैयार किया जा रहा था. रक्षदि अंसारी के बेटे मोहसिन को बहुत प्यारा था यह बकरा. दिन-रात का साथ था दोनों का. मगर सुबह यह बकरा गायब था.
रशीद अंसारी ने उसकी खोज में चारों दिशा में गांव के नौजवानों को दौड़ा दिया था. वे ईद के बकरे का फोटो लिए उसे ढूंढ रहे थे. उसे ढूंढ कर लाने वाले को दस हजार ईनाम मिलने वाला था, इसलिए गांव के लड़कों को एक काम मिल गया था.
जोगीपुरा में कमलिया गांव के बकरे की खोज शुरू हो गई. इसमें गांव के लड़के भी शामिल हो गए. जोगीपुरा के सरपंच जी का बेटा अनुज भी पीछे-पीछे हो लिया.
कमलिया के नौजवान तरह-तरह की बातें कर रहे थे. उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि हवेली के अंदर से बकरा गायब कैसे हो गया? क्या हवेली में डाका पड़ा है, जिसे रशिद अंसारी छिपा रहे हैं? कहीं बकरा मर तो नहीं गया? कहीं बकरे को दुगुने दाम में बेच तो नहीं दिया गया? या फिर कोई और राज?
दोपहर से शाम हो गई सबने पूरा गांव छान मारा. एक-एक खेत ढूंढ डाला. मगर बकरा न मिला.
हताश कमलिया गांव के नौजवान खाली हाथ लौट गए.
इधर अनुज को ढलती शाम के समय गौशाला में कुछ खटका हुआ. दबे पांव वहां पहुंचा तो देखा बछड़े जितना एक जब्बर बकरा गायों के पीछे दुबका बैठा था. उसे हैरानी हुई कि गांवों ने इस विजातीय प्राणी को कैसे अपना लिया? बल्कि उसके साथ दाना-पानी की साझेदारी भी की.
अनुज मोबाइल टॉर्च की रोशनी में बकरे तक पहुंचा. बकरा भयभीत था. उसने कातर दृष्टि से अनुज की तरफ देखा. अनुज ने उसके पीठ कंधे को सहलाया. उसके गले पर पट्टे से बंधी पर्ची पर उसकी नजर गई. उसने पर्ची निकाली और एक सांस में पढ़ गया. अब सारी बात उसकी समझ में आ गई थी. वह बकरे की पीठ थपथपाकर बाहर निकल आया और अंधेरा छाने का इंतजार करने लगा.
जब रात गहरा गई तो उसने बकरे को गोशाला से निकाला और निर्जन राह से दबे पांव चलते-चलते उसे उत्तर दिशा के पहाड़ी नदी वाले जंगल में छोड़ दिया.
लौटते समय चौपाल पर अलाव में अकेले बैठे चरवाहा रघ्घू पर नजर पड़ी, तो पूछ ही लिया, ‘‘ काका नदी पार जो जंगल है उसमें कौन से जानवर रहते हैं?’’
रघ्घू चरवाहा बोला, बंदर, खरगोश, लोमड़ी, तीतर-बटेर.....’’
अनुज ने दूसरा सवाल पूछा, ‘‘ और शेर चीते बाघ..’’
रघ्घू की हंसी फूट गई, ‘‘ अरे नहीं! कभी-कभार पहाड़ की तरफ से हिरण सांभर और पहाड़ी बकरियां नदी की तरफ आ जाती है पानी-पीने.’’
अनुज के मुंह से निकल गया, ‘‘ तब ठीक है!’’
चरवाहे को कुछ समझ न आया, ‘‘ मतलब ?’’
अनुज ने कोई जवाब न दिया और घर की तरफ बढ़ गया.
अगले दिन ईद थी. अनुज सुबह-सुबह साइकिल लेकर मुसलमानों के गांव कमलिया पहुंच गया.
एक बच्चे से रशीद अंसारी की हवेली का पता पूछा और थोड़ देर बाद दूसरे बच्चे से मोहसिन का. उस लड़के ने मस्जिद से लौटते एक लड़के की तरफ इशारा किया.
अनुज उसके पास पहुंचा और एक पेड़ की आड़ में ले जाकर उसे एक थैली पकड़ा दी. थैली में बकरे का गले का पट्टा था. उसे देखते ही मोहसिन की आंख चमक उठी. अनुज ने आंखों ही आंखों में उसे तसल्ली दी उसका बकरा सही सलामत है. मोहसिन ने पट्टे से एक घुंघरू निकाला और अनुज को देते हुए कहा, ‘‘ आज से हम दोस्त हैं’’
अनुज ने बाहें फैलाते हुए कहा, ‘‘ तो फिर ईद मुबारक!’’